Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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रोज लेता हूँ सांस ,शहर की बू भीतर चली जाती है

 

 

fate

 

 

रोज लेता हूँ सांस ,शहर की बू भीतर चली जाती है
सुबह शाम गुनाहों की इक शमा खूब जली जाती है |


जाने किसके मुक़द्दर में अँधेरा आया होगा
किसकी किस्मत से रौशनी निकली जाती है |


सडको पे मकोड़े सा रेंगते आदमी नज़र आता है
और इंसानियत की उम्र भी ढली जाती है |


कायदों की बाड़ हर मकान के आगे लगी देखी
मगर गरीब के हिस्से में ही ऐसी गली आती है|


दौलत ,दौलत ,मुझे कैसे भी बस मिल जाए
कोने कोने में रईसों की यही बेकली जाती है |

 

 

वैशाली भरद्वाज

 

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