Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

साथ-साथ गिनता साँसों को

 

साथ-साथ गिनता साँसों को, बैठा बाज रहा होगा।
उसका साथी हो जाने का, ये अंदाज़ रहा होगा।।

 

टूटे घर की टूटी छानी, से ना आज धुआँ निकला।
मठमैला पानी ही उसका, भोजन आज रहा होगा।।

 

कहने वाले यह कहते, हर पात हिले उसकी मर्जी।
वह जो कहीं न पाया जाता, वह नाराज़ रहा होगा।।

 

आँखों से जो टप-टप टपका, वह पानी यह बोल गया।
जिस जीवन को वह जीता है, टूटा साज रहा होगा।।

 

तब भी दुख था, अब भी दुख है, रोज़-रोज़ की ये गाथा।
अब-तब की ये बात न सोचो, किसका राज रहा होगा।।

 

भरी दुपहरी के काजों के, कालेपन को देख लिया।
अँधियारी रातों में उसका, कैसा काज रहा होगा।।

 

एक जगह आ ठहरा मन तो, ऐसा भी हो सकता है।
'सिद्ध' कहीं कोई तुझको भी, दे आवाज़ रहा होगा।।

 

 

ठाकुर दास 'सिद्ध'

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ