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मन की बात

 

सुशील शर्मा

 

 

मन के कोने पड़ा हुआ सच तड़फ रहा है

जीवन जीने को मन मेरा तरस रहा है।

 

पलकों पर आते आते नींद थकी सी सो जाती है।

क्यारी के फूलों के फुनगों पर धूप पकी सी खो जाती है।

 

आरक्षण का भस्मासुर अब निगल रहा है प्रतिभाएं।

राजनीति का अहिरावण मुह खोले लूट रहा है क्षमतायें।

 

जीवन सुख से जीना चाहो तो अपना मुँह बंद रखो।

आस पास के घड़ियालों से अपने को पाबंद रखो।

 

मानवाधिकार के पैरोकारी घूम रहे हैं राहों पर

अपराधों से रिश्तेदारी बैठ गई चौराहों पर।

 

वामपंथियों के पांखण्डों की शिला टूटते देखी है।

दक्षिणपंथी आवाज़ों की हवा निकलते देखी है।

 

कश्मीरी पंडित की चीत्कार कहो कौन सुने ?

बम विस्फोटों से मरते लाचारों को कौन गिने?

 

भगवानों को हरदिन ये सड़कों पर लजाते हैं।

पैगम्बर मोहम्मद को ये हर दिन धूल चटाते हैं।

 

राम ,कृष्ण ,विवेकानंद गाँधी इनके प्रतिमान नहीं।

अशफाक ,हमीद कलाम ,रसखान का माने ये पैगाम नहीं।

 

मंदिर तोड़ो मस्जिद तोड़ो बस इनका ये नारा है।

कैसे भी सब वोट बटोरो ये सिंहासन हमारा है।

 

भाई भतीजों की भर्ती कर दल अपना बनाते हैं।

सत्ता पर काबिज होने हिन्दू मुस्लिम लड़वाते हैं।

 

साम्प्रदायिकता का डर दिखलाकर वोटों को लुटते देखा।

जिसने भी सच को बोला सरे आम पिटते देखा।

 

बेच रहें है फर्जी डिग्री शिक्षा के गलियारों में।

प्रतिभाओं को लूट हैं सरे आम बाज़ारों में।



अब तो कोई शंकर आये इस विष को पीने वाला।

विषधरों के फनों को कुचले कोई चौड़े सीने वाला।

 

मन के कोने पड़ा हुआ सच किस किस को बतलाऊँ मैं।

जीवन जीने की मंशा की कैसे अलख जगाऊँ मैं।

 

 

 

सुशील कुमार शर्मा

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