Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

गुम गया गणतंत्र मेरा

 

सुशील शर्मा

 

 

गुम गया गणतंत्र मेरा जाओ उसको ढूंढ लाओ।
गण खड़ा कमजोर रोता तंत्र से इसको बचाओ।

 

आदमी जिन्दा यहाँ है बाकी सब कुछ मर रहा है।
रक्तरंजित सा ये सूरज कोई तो इसको बुझाओ।

 

घर की दहलीजों के भीतर कौन ये सहमा हुआ है।
गिद्ध की नजरों से सहमी सी बुलबुल को बचाओ।

 

हर तरफ शातिर शिकारी फिर रहे बंदूक ताने।
गर्दनों पर आज तुम खुंरेज खंजर फिर सजाओ।

 

बरगदों की बोनसाई बन रहे व्यक्तित्व देखो।
वनमहोत्सव के पीछे कटते जंगल को बचाओ।

 

सत्य के सिद्धान्त देखो आज सहमे से खड़े हैं।
है रिवायत आम ये सत्य को झूठा बताओ।

 

सत्ता साहब हो गई है तंत्र तलवे चाटता है।
वेदना का विस्तार जीवन अब तो न इसको सताओ।

 

शातिरों के शामियाने सज गए है आज फिर।
आज फिर माँ भारती को नीलामी से बचाओ।

 

विषधरों के इस शहर में सुनो शंकर लौट आओ
मसानों के इस शहर में है कोई जीवित बताओ।

 

गण है रोता और बिलखता तंत्र विकसित हो रहा है।
आज इस गणतंत्र पर सब मिल चलो खुशियां मनाओ।

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ