Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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आईने पर दो कविताएं

 

आइना

 

 

दिल गम से टूटा है।
चलो हम मना लें उसे।
टूटा है आइना किरचों में।
करीने से सजा लें उसे।

 

आइना है कविता मेरी
तेरे उन सवालों का।
जो उलझे है बेतरतीब
जेहन में गर्द जालों का।

 

हर अक्स आईने में
अजनबी सा लगता है।
दिल को बचा कर रखना।
वो टूट भी सकता है।

 

आइनों में मैंने
देखी थी अपनी सूरत।
आइना झूठ नहीं कहता
क्या वो थी इंसान की मूरत?

 

सुशील शर्मा

 

 

 


*मैं आइना हूँ*


सुशील शर्मा

मैं आइना हूँ।
न मेरा कोई रूप है ,न कोई रंग है।
न मेरा दिल है न कोई उमंग है।
दर्द और दुखों से व्यथित नहीं हूँ मैं।
छुद्र पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं हूँ मैं।
जो मेरे समक्ष जिस भाव में आता है।
खुद को मूल स्वरुप में चित्रित पाता है।
तुम्हारे सारे आवरण ढंकना मुझे नहीं आता।
तुम्हारे अवगुणों को छुपाना मुझे नहीं भाता।
मुझे सच के सिवा कुछ बताना नहीं आता।
मैं अँधेरे उजाले को नहीं पहचान पाता।
मैं सत्य असत्य को नहीं जानता हूँ।
सौंदर्य और कुरूप मानकों को नहीं मानता हूँ।
शब्द और भावनाओं से मैं बेअसर हूँ।
प्रेम और घृणा से मैं बेखबर हूँ।
मुझे मालूम है तुम्हारे अंदर कुछ मरता है।
तुम्हारा अहं मेरा सामना करने से डरता है।
मैं तुम्हारे अंतर्मन का सामान्तर हूँ।
मैं तुम्हारे मन का अभ्यांतर हूँ।
जब भी मेरे सामने आओगे।
खुद को खुद जैसा ही पाओगे।
मैं आइना हूँ।

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