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रस प्रधानता- प्रेम का स्वरुप

 

''रस प्रधानता- प्रेम का स्वरुप "


रति का अनेक अर्थ होता है,
भक्ति प्रेम अनुराग पलता है।
प्रेम परम धर्म कहा जाता है,
जो मनोनुकूल सुख में रमता।।

प्रेम के स्वरुप का वर्णन कभी
भी, किया नहीं जा सकता है।
मन उन्मुख निज प्रिय वस्तु के
प्रेम पूर्वक होना रति कहलाता।।

भोग विलास का सम्मोहक स्वरुप,
उन्माद वासना का प्रेम नहीं होता।
भलाई शांति और सदाचारिता के,
सद गुणों में ही प्रेम निवास करता।।

सदाचार युक्त प्रेम संसार लोक में,
सर्वश्रेष्ठ और चिर स्थाई होता है।
रस औ भाव समुद्री लहरों सी उठी,
उसी में लीन होने को प्रेम कहते।।

रसाभाव में अनुचित विभव आलंबन
मानकर, रति अनुभव अनुचित होता।
किसी विषय वर्णन जब सीमा लांघे,
उसने अद्भुत रस आभाव ही मिलता।।

श्रृंगार रस के देवता विष्णु भगवान,
भगवान विष्णु सतों गुणों के प्रधान।
सृजन करता के भी हैं सृजन कारी,
अनंत अगाध समुद्र समान वर्तमान।।

सबका पालन पोषण करती रमणा,
उनकी सहकारिणी शक्ति रमा रमती।
पुष्प सलिला भागीरथी के उत्पादक,
स्वर्ग मर्त्य पाताल लोक की पोषक।।

रति श्रृंगार रस की जननी कहलाती,
जिनसे रति उसका स्थाई भाव कहा।
प्रेम के स्वरुप का अनुभव मात्र होता,
भक्ति प्रेम अनुराग लफ्ज में खोता।।

- सुख मंगल सिंह

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