Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

" कुरुक्षेत्र! अर्जुन में द्वंद्व स्थिति "

 

" कुरुक्षेत्र! अर्जुन में द्वंद्व स्थिति "


संयम रुपी संजय ने घृत राष्ट्र से कहा,आवृत्त मन को समझा हे राजन अर्जुन !
वैराग्य रुपी कपि ध्वज, जिस ध्वजा को लोग चंचल थी कहते हैं। किंतु वह वैसी नहीं है ! कपि कोई साधारण बंदर नहीं है  खुद हनुमान ही हैं। जिन्होंने मान अपमान का हनन किया है। -यथा 
'सम मान निरादर आदरहीं '!
अर्थात प्रकृति में देखी सुनी गई वस्तुओं से  त्याग - राग का, वही वैराग्य है। वैराग्य ही जिसकी ध्वजा में है उस अर्जुन ने व्यवस्थित होकर धृतराष्ट्र पुत्रों को खड़े देखकर शस्त्र चलाने की तैयारी के समय 'हृषिकेशम‌् 'जो शरीर के सर्वस्व ज्ञाता हैं उसे अर्जुन ने योगेश्वर कृष्ण से कहा -
' सेनयोरुभयोर्मध्ये रथंस्थापय मे‌‌ं च्युत ।'
हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच खड़ा करें।
यह आदेश नहीं है , ईष्ट से की गई प्रार्थना है। 
जब तक मैं स्थित हुए युद्ध की काम वालों को अच्छी प्रकार से हम देख न लूं। किन - किन के साथ युद्ध करना योग्य है, किस - किस के साथ युद्ध करना है।
  दुर्बुद्धि युक्त दुर्योधन का कल्याण चाहने वाले, इस सेना में शामिल योद्धा,को भी देख लूं, किन- किन से युद्ध करना है उन्हें भी देख लूं।
' धार्त राष्ट्रस्य दुर्बुद्धे र्युद्धे  प्रियचिकीर्षव: ।'
संजय ने कहा!
एवमुक्तो हृषी केशो गुडा केशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थाप यित्वा रथोत्तम म‌् ।
भीष्म द्रोण प्रमुखत: सर्वेषां च मही क्षिताम‌् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्सम वेतान्कुरूनिति।।
अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर ज्ञान के ज्ञाता श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच भीष्म द्रोणाचार्य और मही क्षिताम‌् के बीच उत्तम रथ खड़ करके अर्जुन से कहा -
पार्थ! इन इकट्ठे हुए कौरव को देखकर और पहचान करें !
' तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थ:'
पार्थिव शरीर को रथ बनाने वाले,
अचूक लच्छ वाले अर्जुन!
दोनों के सेनाओं के बीच स्थित ' पितृ नथ पिता महान को देखा।
पिता के भाइयों को, पिता महों को!
'आचार्यान्मातुलान् भ्रात्तृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।'
मामाओं को,भाइयों को,पुत्रों को,पौत्रों को भी देखा ! और -
'श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।'
श्वसुरों को और सुहृदों को देखा।
अर्जुन ने केवल अपने परिवार को ही  देखा उन्हें अपने ं सुहृद, गुरु जन, आदि ही दिखाई दिए।
जबकि कहा जाता है कि महाभारत काल की गणना के अनुसार 18 अक्षोहणी सेना, लगभग 6:30 अरब की थी। जो  आज की विश्व की जनसंख्या के समकक्ष!
बंधुबंधुवों को देखकर कुंती पुत्र अर्जुन मोह करूणा से घिरे, शोक करता हुआ बोला -
हे कृष्ण!
युद्ध क्षेत्र में , युद्ध की इच्छा रखने वाले, मेरे ही स्वजन समुदाय हैं ।
यह सब देख कर मेरे अंग सिथिल हुए जाते हैं। मुख सूख रहा है। मेरे शरीर में कंपन हो रही है और रोमांच भी हो रहा है। इतना ही नहीं माधव -
'गाण्डीव स्त्रंसते हस्तान्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुंभ्रमतीव च में मन:।।
हाथ से गाण्डीव गिर रहा --, त्वचा में जलन हो रही , ज्वर सा प्रतीत हो रहा, 
     इस प्रकार -अर्जुन को भ्रम हो गया       और कहता है कि -
मैं खड़ा रह पाने में भी अपने को असमर्थ  पा रहा हूं। आगे देखने का सामर्थ नहीं है।
जिद, युद्ध में, मुहाने पर संपूर्ण परिवार खड़ा है। युद्ध में इन्हें मारकर विजय, विजय से मिलने वाला राज्य, राज्य से मिलने वाला सुख, अर्जुन को नहीं चाहिए!
मैं विजय नहीं चाहता? राज्य तथा सुख भी नहीं चाहता? गोविंद! हमें राज से अथवा भोग और  जीवन से भी क्या प्रयोजन है? 
'न काड्:क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा।। (श्लो३२)
अर्जुन और कहता है -
जब इस क्षेत्र में सब के सब प्राणों की आशा छोड़कर खड़े हैं तो मुझे सुख राज्य अथवा  योग नहीं चाहिए। 
    जब तक तैयार परिवार रहता है          तभी तक ये वासनाएं भी रहती हैं।
इस युद्ध में आचार्य, चाचा, ताऊ, लड़के और दादा,मामा, श्वसुर,पोते,साले और समस्त सम्बंधित ही हैं।
हे मधुसूदन!
'एतान्न हन्तुमिच्छामि ध्नतो पि मधुसूदन।
कपि त्रैलोक्य राज्यस्यहेतो: किन नु महीकृते।।
इन सब को मैं राज्य के लिए भी मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए क्या !
इतने अधिक स्वजन, अपना परिवार, बुर्जग , गुरुजनों को मारने से अच्छा समझा!‌ अर्जुन परम सत्य को पाने को लालायित लालायित हो रहा है। अर्जुन कहता है कि -
यह लोग भले ही ना समझे परंतु हम आप समझदार हैं। 
कुल नाश के दोष पर हमें विचार करना चाहिए?
कुल के नाश होने पर सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाता है।
धर्म का नाश होने पर संपूर्ण कुल को पाप भी बहुत दबा लेता है।
यहां अर्जुन कुल और कुलाचार को ही सनातन धर्म समझ रहा था। यथा -
' कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना: ।
धर्मनष्टे कुल कृत्स्नमधर्मा भिभवत्युत।।
हे कृष्ण! 
पाप के अधिक बढ़ने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं।
हे वार्ष्णेय!
स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्ण शंकर उत्पन्न होता है।
वर्णशंकर ने दोषों पर अर्जुन प्रकाश डालता है-
' सड्;करो नरकायैव कुलध्नानां कुलस्य च।
पतिन्त पितरों हृवेषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया:।।
वर्णसंकर कुलघातियों और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। पिण्ड क्रिया वाले पितर भी गिर जाते हैं। वर्तमान नष्ट हो जाता है और भविष्य वाले भी गिरने लगते हैं। वर्णसंकर सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट कर देता है।
श्री कृष्ण कहते हैं कि हे जनार्दन!
नष्ट हुए कुल धर्म वाले मनुष्यों का अंत काल तक नरक में वास होता है। ऐसा हमने सुना है कि जब धर्म ही नष्ट हो गया तो ऐसे पुरुष का अंतकाल तक नरक में वास होता है। 
कुल धर्म ही नष्ट नहीं होता अपितु सारस्वत सनातन धर्म भी नष्ट हो जाता है।
श्री कृष्ण साथ में हैं परंतु अभी भी अर्जुन अपने को कम बुद्धिमान नहीं समझता है। कहां जाता है कि प्रारंभ में प्रत्येक साधक इसी प्रकार से बोलता है।
अधकचरे ज्ञाता निज को ही ज्ञानी समझता है।
ज्यों आगे बढ़ता जाता है खुद को मूर्ख कहलाने लगता।।
अंत में अपना अर्जुन रहता है -
' यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रंपाणय:,
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत‌्।।
अर्जुन कहता है कि शस्त्र धारी  घृत राष्ट्र के पुत्र रण में मुझे मार दें, तब भी वह मेरे लिए कल्याणकारी होगा। ताकि लड़के सुखी रहें।
संजय घृत राष्ट्र  से कहता है कि - रणभूमि में शोक में डूबा मतवाला अर्जुन इस प्रकार कह कर बाण सहित धनुष को त्याग कर रख दिया। रथ के पिछले भाग में जाकर बैठ गया। वह संघर्ष में भाग लेने से पीछे हट गया।
पारिवारिक मोह प्रथम चरण में अर्जुन के लिए बाधक बनता है। उसे घबराहट होने लगती है। अपने लोगों को मारने में, कहीं से भी उसे कल्याण नहीं दिखाई देता। वह समझता है कि कुल ही सनातन धर्म है। युद्ध करने से सनातन धर्म नष्ट हो जाएगा। कुल दीप, कुल की स्त्रियां दूषित होंगी। वर्ण संकर पैदा होगा। जो कुल और कुल और कुल घातियों को अनंत काल तक नरक में ले जाने के लिए ही होता है।
     अर्जुन सनातन धर्म की रक्षा के लिए अपनी समझ से विकल हो रहा है। श्री कृष्ण से अनुरोध करता है कहता है हम और आप दोनों लोग समझदार होकर भी यह महान पाप क्यों करें!
विषाद ग्रस्त होकर अर्जुन यह निर्णय लेता है वह अपने लोगों से युद्ध नहीं करेगा। मनुष्य संसार में संशय पड़कर ही विषाद ग्रस्त होता है।
आपसे बचने के लिए अंततः अर्जुन हताश और निराश होकर युद्ध क्षेत्र में ही रथ के पिछले भाग में बैठ गया और वह छेत्र और क्षेत्रज्ञ के संघर्ष से पीछे हट गया।
- सुख मंगल सिंह 


Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ