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Dr. Srimati Tara Singh
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"काशी के इतिहास में - शिव - राम नाम की महिमा "

 

"काशी के इतिहास में - शिव - राम नाम की महिमा "


काशी मात्र संस्कृत का केंद्र होने के नाते ही विश्व प्रसिद्ध नहीं है अपितु यहां का प्राकृतिक सौंदर्य तीनों लोगों से निहारी न्यारी बनाने में अपना विशेष स्थान रखता है।

इनका मान शतपथ ब्राह्मण के श्लोक १३५-४-१९ में मिलता है! धृतराष्ट्र नामक काशी का उल्लेख मिलता है!
बृहदारण्यक उपनिषद में श्लोक२,१,१ मैं अजातशत्रु काशी देश का है इस प्रकार वर्णन मिलता है!१,
 काशी में बंगाली, मद्रासी - गुजराती -महाराष्ट्र-तैलंग- द्रविण -कान्यकुब्ज्य सरयूपारीण आदि देसी विदेशी विद्वान संस्कृत विद्या के धुरंधर विद्वान रहकर दिग दिगंत में अपनी विद्वता की धवल ध्वजा दुनिया में फैला रहे हैं।
काशी के संबंध में दृष्टांत रूप में कहा गया है कि अयोध्या नरेश हरिश्चंद्र ने सारा राजपाट छोड़कर राजर्षि विश्वामित्र जी को दान में मांगने पर देने के उपरांत वचनबद्ध होकर अयोध्या से काशी चलते-चलते आए। महाराजा हरिश्चंद्र और रानी शैब्या के पुत्र राजकमार रोहताश्व काशी के गंगा तट पर गंगा के शीतल प्रवाह को देखकर तन्मय हो गए। और यही अपने धर्म संकट की भुक्ति और मुक्ति को प्राप्त किया।
अयोध्या नगरी -
सप्त ऋषि यों के क्रम में अयोध्या 'मस्तक ' है और काशी मध्य( हृदय) भाग में है। यथा -
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका।
पुरी द्वारावती चैन  सप्तैता मोक्ष दायिका।।
इस नगरी काशी में शिव और विष्णु कृष्ण भक्ति का समन्वय दृष्टिगोचर होती है। यहां के वैष्णव धर्म पालक  भी शिव साधक हैं। शिव विष्णु सूर्य दुर्गा गणेश आदि कि यहां प्रधानता है। २,
काशी का प्राकृतिक सौंदर्य तीनों लोगों से निहारी न्यारी बनाने में अपना विशेष स्थान रखता है। यही कारण है यहां देश-विदेश के विद्वान केवल विद्या जन्य जिज्ञासा शांत करने की अभिलाषा से एक बार यहां अवश्य पहुंचकर काशी का ही हो जाते हैं। ३,
 एक रचना -
चिरकाल तक रहे ये घर घाट हाट गलियां,
करते रहें जहां जन निर्द्वन्द रंग रलियां।
कल-कल निनाद द्वारा आशीष जानवी दें,
काशी अमर रहें ये तेरी रसिका अवलियां।४
- प्रौगैतिहास युग भी कहता कथा कलित है,
वर वीरता विभा से इतिवृत्त  प्रज्वलित है।
यदि विश्वबंधुता की भारत में ही परिधि है,
तो केंद्र बिंदु उसका वाराणसी ललित है।।५,
अष्टांग योग का काशी ने फल -
*काशी वास
*सज्जनों का संग
*गंगा स्नान
*पाप कर्म से सदा बिरत
*पुण्य कर्म में प्रीति
*स्वत:  प्राप्त वस्तु लाभ में ही सुख और संतोष
*यथाशक्ति दान
*प्रति - ग्रह( दान का ना लेना)
 प्रमुख ऑठ
 बातों को अष्टांग योग की संज्ञा दी गई है।प्रत्येक युग का अपने-अपने आसन पर विशेष महत्ता है।इसके एक के साधन का फल अनेक स्थान पर सुरक्षित हैं। ६,
आशी का पौराणिक साक्ष्य -
शतपथ ब्राह्मण में दशाश्वमेध यज्ञ के इच्छुक धृतराष्ट्र की चर्चा मिलती है। ७,
बृहदारण्यक, कौशीतकी हां जी उपनिषदों में भी इसके प्रमाण मिलते हैं।
कलयुग में नाम जप -
कलिकाल में नाम जप करने वालों को संज्ञान !
कलयुग केवल नाम अधारा।
सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा।।
कल काल में काल काल काल में राम नाम का जप का विशेष महत्व है जो संसार सागर से पार उतारने वाला है। बाजना से युक्त होकर नाम जप नहीं करना चाहिए। श्री राम नाम के जप करने से ही इसी जन्म में फल प्राप्त हो सकता है। राम नाम और श्री राम में कोई भेद नहीं है। नाम और नामी एक ही तत्व हैं। नाम में नामी से अधिक शक्ति है। भगवान शंकर और राम में कोई भेद नहीं है जो लोग राम का जप करते हैं उन्हें शंकर जी अति प्रिय हैं और जो शंकर जी की का की तपस्या करता है उसे श्रीराम अपनी शरण में रखते हैं।
धनवंतरी वैदिक युग में काशी के राजा थे -
आयुर्वेद के जनक धनवंतरी काशी के वैदिक युग के राजा थे। धन्वंतरि भगवान विष्णु के अवतार हैं। धनवंतरी का अवतरण धनतेरस त्रयोदशी को हुआ था। वे चार भुजा धारी शंख चक्र अमृत कलश और जरजूका लिए हुए आयुर्वेद चिकित्सा करने वाले आरोग्य के देवता कहे जाते हैं। महारुद्र भगवान शंकर ने विषपान किया। धानमंत्री ने अमृत प्रदान किया। आतिफ काशी कालजई नगरी कहलाने लगी। भगवान विष्णु के अनुसार तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन करोगे!
द्वापर युग में पुनः जन्म लोगे!
बर के अनुसार काशीराज '  धन्व ' की तपस्या से पुत्र रप में जन्म लेकर
 काश के पुत्र काशी के संस्थापक धनवंतरी हुए। धनवंतरी ऋषि महर्षि भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण करके बर के अनुसार शिष्यों - शिष्यों में अष्टांग  बांट दिया।८,
धनवंतरी का अवतरण किन परिस्थितियों में -
देवता और असुरों के युद्ध में देवताओं की मृत्यु अधिक होती थी। इसका कारण यह था कि दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या ग्रहण की थी। उन्हीं संजीवनी विद्या के बल पर असुरों को संग्राम में मृत्यु के उपरांत जीवित कर दिया करते थे।
वंश वृद्धि की अधिकता देखकर जबकि देव और असुर कश्यप ऋषि के पुत्र गण ही थे। संपत्ति के बंटवारे के लिए असुर और देवता आपस में लड़ते रहते थे। अधिकारों की लड़ाई तीनों लोगों के राज्य पर आधिपत्य की आकांक्षा में होती थी।दैत्य मांस भक्षण करते थे जिसकी वजह से वह हृस्ट पुष्ट हुआ करते थे।
इसी को ध्यान में रखकर समुद्र मंथन हुआ और समुंद्र मंथन  किया।
और धनवंतरी का "आवश्यक हो गया। ९,
एक रचना प्रस्तुत किया -
जहां सब पदार्थ सरलता से सुलभ हो जाते,
संसार ताप संताप का भय भी न पास आते।
आयुष परमानंद संस्थान आनंद कानन जो,
ऐसी मुफ्ती क्षेत्र को मंगल बोलो कैसे त्यागे।
विष्णु ने ध्रूव को जहां अपने साथ काशी मिलाया,
वाराणसी में पहुंचकर मणिकर्णिका में स्नान कराया।
यहां लिंगा स्थापना करने को भगवान ने परामर्श दिया,
गंगा स्नान उपरांत विशेश्वर जी का पूजन-अर्चन किया।।
विष्णु ने ध्रुव से कहा वत्स!
यह अविमुक्त क्षेत्र है इस क्षेत्र में लिंग स्थापना करो।काशी क्षेत्र में दे वालयों का जीर्णोद्धार करने से
 असंख्य पूर्ण प्राप्त होता है। काशी में एक लिंग की स्थापना मात्र से ही 10,00,000 शिवलिंग स्थापना करने का पुण्य मिलता है। यहां लिंग पूजन आरती रमणीय बालिकाओं का निर्माण कर उसे ब्राह्मण को दान देना मठ बनाकर तपस्या और योगियों सन्यासियों को प्रदान करना विशेष फलदाई होता है।विश्वेश्वर भगवान को अपनी पुणे का अर्पण करने पर पुनर्जन्म की चिंता नहीं रह जाती।
आगे विष्णु ने फिर कहा ध्रुव!
जगत में मैं अनंत होकर भी काशी की महिमा का अंत नहीं जान पाता हूं। १०,
विष्णु को सारो श्रृंगार महेश को सागर को सुख लक्ष्यि को भाई।
तारण को पति देवन को धन लोगन को है महा सुखदाई।
भीषम राहु ग्रसो जब आय सको क्षण एक न ओए बचाई।
जो दिन है दुख के सुन रे मना दिन होत न कोऊ सहाई।।
राम वही जामें राम बसें अरु ध्यान वही जु धनी के घरे को।
प्रीति वही जो सदा निबहै अरु प्रेम वही जिमि दाग  जरे को।
काहे को आदम सोजत है अब नाहिंन है कोई दु:आ परे को।
संपत में तो करोर मिले परम मित्र वही जो बिपत्ति परे को।।११,
वेद शास्त्र में स्वामी नारायण का स्तवन -
जितना प्राचीन वैदिक साहित्य है। उतनी ही प्राचीन विष्णु स्तवन की परंपरा  भी है। वेदों में अनेक स्थानों पर ऋषि के रूप में नारायण की चर्चा की गई है।वैदिक देवता विष्णु तथा बेदी कृषि नारायणी 18 काका रहस्य प्रमाण उपलब्ध है। पाशा कि मैं आकर विष्णु नारायण बासुदेव कृष्ण तथा जनार्दन आड देवता वाचक शब्द एका अर्थ को गए थे।
विष्णु पुराण की प्रविष्टियां पैखानसों की भांति सॉन्ग है।विष्णु पुराण विष्णु और सी की एकता में भी अपना योगदान प्रस्तुत करता है।इस पुरानी शिव और पार्वती को विष्णु और लक्ष्मी से अभिन्न कहा गया है।१२,
विष्णु पुराण में ही एक स्थान पर विष्णु को पिनाकघृक ही कहा गया है जूस यू की एक विशिष्ट पारिधि है।१३,
इसी पुगा यह एक स्थल पर विष्णु और शिव दोनों को यह कहीं का गया है। १४,
जैन और बौद्ध धर्म के प्रति अपनी  का  सहिष्णुता निभाते हुए प्रस्तुत करते हैं यह पुराण मयूर पिच्छ दिगंबर और मुण्यडित केश वाले माया मोह हो भी विष्णु के ही  अंग से उत्पन्न बताया जाता है।,15,
रचना प्रस्तुत किया -
श्रद्धा बस से ना सही रतनेश्वर जी की जो करे परिक्रमा,
काशी आकर रत्नेश्वर सेवन से जो शिव की करे आराधना!
महादेववैभव! लज्जा से छोड़ै, शिव उसे रत्न का रत्नेश्वर बनाया।
जिन रत्नों को शिव को शैल राज  ने देना चाहा।१६,
काशी दर्शन को आने वाले भक्तों को वही रत्न ईश्वर,
लिंग के केवल दर्शन पूजन से संपूर्ण फल प्राप्त होता।।१७,
और -
स्कंद ने महर्षि अगस्त और विष्णु ने अग्नि से जैसा कहा,
मणिकर्णिका काशी में सभी तीर्थ स्नान करने जाते हैं।१८,
ब्रमां, इंद्रा लय, लोकपाल, मरीचि आदि देव गण,
मणिकर्णिका तीर्थ में स्नान करने महर्षि गण आते हैं।
बासुकीनाथ भी यहां दर्शन को जाते रहते हैं,
नाग लोक के शेषगण सहमत मध्यान में नहाते हैं।
जहां तक गंगा केशव से हरिश्चंद्र मंडप विद्यमान है,
आधी गंगा से स्वर्गद्वार तक विस्तार मणिकर्णिका का है।
सीमा विनायक की पूजा कर लोग मणिकर्णिका जाते हैं,
पर्वत तीर्थ !  महा पापों का नाश करता है।
मोक्ष कामना लिए भक्त मणिकर्णिका का ध्यान करें,
अक्षय ऐश्वर्य मिलें, विशेश्वर जी का ध्यान करें।
- सुख मंगल सिंह अवध निवासी


संदर्भ ग्रंथ -
१ -गीता धर्म काशी गौरांक पेज दस
२- वही पृष्ठ 4
३- गीता धर्म काशी गौरांक पेज 3
४-कविवर पंडित कमला प्रसाद अवस्थी 'अशोक' की रचना से
५, वही पृष्ठ 78 पंडित कमला प्रसाद अवस्थी की रचना!
६ -  गीता धर्म काशी गौरांक पेज ५,६ स्वामी सदानंद महाराज जी की वाणी
७ -गीता धर्म गौरांक पृष्ठ ७
८ -हरिवंश पुराण/हिंदी विकीपीडिया
९ - विष्णु पुराण,अग्नि पुराण,श्री मद्भागवत पुराण
१० -गीता धर्म गौरांक काशी 
११ - काव्य प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसाद भानु कवि पृष्ठ 560 व 561 
१२ - विष्णु पुराण १,८,२३/ प्राची संपूर्णानंद वि विद्या लय वाराणसी
 १३  - विष्णु पुराण १,९,६९/ और वही 
१४ - विष्णु पुराण ७,३३,४७ - ४८/ वही पेज 134
15-वही पेज 134
16- १७ - गीता धर्म गौरांक 254 पृष्ठ  साभार स्वरचित रचना
१८ - गीता धर्म गौरांक से साभार

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