Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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इतिहास के आईने में हड़प्पा

 
हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों से साक्ष्य प्राप्त होते हैं कि पुरातन काल से शिवलिंग की उपासना होती रही है। अथर्ववेद में शिव को भव, शर्व, पशुपति एवं भूपति कहा गया है। अथर्व वेद की रचना अथर्वा ऋषि द्वारा किया गया है जिसनें रोग निवारण, तंत्र मंत्र, जादू टोना, शाप, वशीकरण आशीर्वाद स्तुति, प्रायश्चित, औषधि अनुसंधान ,विवाह, प्रेम, राज कर्म, मातृभूमि - महात्म आदि विविध विषयों पर मंत्र की रचना की है।
लिंग पूजन का भी  स्पष्ट विवरण मत्स्य पुराण में लिखा गया है। अगर हम वामन पुराण की बात करते हैं तो उसमें शैव संप्रदाय की संख्या 4 बताई गई है। यथा- पाशुपत, कापालिक, कालामुंख और लिंगायत। 
 पाशुपत संप्रदाय, ही सर्वाधिक प्राचीन संप्रदाय है। इसके संस्थापक लकुलीश थे। जिनको भगवान शिव के 18 अवतारों में माना जाता है।
कापालिक संप्रदाय, का प्रमुख केंद्र श्रीशैल नामक  स्थान था। इस संप्रदाय के इष्ट देवता भैरव जी हैं।
काला मुख संप्रदाय, कहा जाता है कि इस संप्रदाय के लोग नर कपाल में ही भोजन करते हैं यह लोग सुरा पान भी करते हैं और शरीर पर चिता भस्म को मलते हैं।
लिंगायत संप्रदाय, इस संप्रदाय के लोग दक्षिण भारत में भी रहते हैं । इस संप्रदाय के लोग शिवलिंग की उपासना करते हैं।
अनादिकाल से शैव  और वैष्णो धर्म सनातन संस्कृति में रहा है। वैष्णो धर्म की जानकारी उपनिषदों से भी मिलती है।
नारायण पूजक वैष्णो धर्म के पूजक कहे जाते हैं। इसका विकास भगवत धर्म से हुआ है। विष्णु के 10 अवतारों का उल्लेख मत्स्य पुराण में मिलता है। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सर्वाधिक महत्व भक्ति को दिया गया है।
इसके प्रमुख संप्रदायों का अगर जिक्र करें तो वैष्णव संप्रदाय, ब्रह्म संप्रदाय, रुद्र संप्रदाय और सनक संप्रदाय का जिक्र मिलता है। जिनके आचार्य क्रमश: रामानुज, आनंद तीर्थ, वल्लभाचार्य और निंबार्क हैं।
मगध, राज्य -मगध राज्य की प्राचीन वंश के संस्थापक बृहद्रथ को माना जाता है। बृहद दत्त ने अपनी राजधानी राजगृह अर्थात गिरी ब्रज को बनाया था। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बिंबिसार मगध की गद्दी पर 544 ईसवी पूर्व आसीन हुआ। कहां जाता है कि वह राजा बौद्ध धर्म का अनुयाई था। बिंबिसार ने लगभग 52 वर्षों तक मगध पर शासन किया। उसने ब्रह्म दत्त को हराकर 'अंग ' राज्य को अपने में मिला लिया था । दुर्भाग्यवश बिंबिसार की हत्या अजातशत्रु ने 493 ईसवी पूर्व में करके स्वयं ही गद्दी पर बैठ गया।
अजातशत्रु जिसका उपनाम कु डिक था। उसने भी मगध पर 32 वर्षों तक राज्य किया, जबकि वह जैन धर्म का अनुयाई था।  हर् यक वंश के अंतिम राजा के रूप में नाग दशक का नाम आता है। 'नाग दशक 'को शिशुनाग ने 412 ईसवी पूर्व में सत्ता से अपदस्थ करके मगध पर शिशुनाग वंश की स्थापना कर दिया। शिशुनाग ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से हटाकर वैशाली में स्थापित किया। कालांतर में शिशुनाग का पुत्र उत्तराधिकारी काला शोक पुनः अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में ले गया। शिशुनाग वंश का अंतिम राजा नंदी वर्धन को माना जाता है। नंद वंश का संस्थापक महापद्मनंद था। नंद वंश का अंतिम शासक धनानंद था।जिसे चंद्रगुप्त मौर्य ने पराजित किया और मगध पर नए सिरे से ' मौर्य वंश 'की स्थापना की। 
जबकि चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्म का अनुयाई था।बताया जाता है कि उसने अपना अंतिम समय कर्नाटक के श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर बिताया।  इसने गुरु भद्रबाहु नामक था उसनें जैन से जैन धर्म की दीक्षा ली। उस समय पाटलिपुत्र एक विशाल प्राचीर से घिरा हुआ था, जिसमें 570 बुर्ज और 64 द्वार थे। दो तीन मंजिले घर को कच्ची ईंटों और लकड़ी से बनाया गया था।
          राजा का महल भी कार्ड्स से             ही बना था पत्थरों की नक्काशी से अलंकृत किया गया था इसके चारों तरफ बगीचा और चिड़िया को रहने का बसेरा से गिरा हुआ था। प्लू टार्क/जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त की सेना में 50,000 आरोही सैनिक, नव हजार हाथी और 8000 रथ था । सैनीक विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी सेनापति होता था।
 अर्थशास्त्र में गुप्तचर को गूढ़ पुरुष कहा जाता था । उस समय सरकारी भूमि को' सीता भूमि ' के नाम से जाना जाता था। राजा ने अनेक समितियां गठित की थी जिसमें जल सेना की व्यवस्था, यातायात और रसद की व्यवस्था, पैदल सैनिकों की देख रेख , गज सेना की देख रेख, आशा रोगियों की सेना की देख रेख औरत सेना की देख रेख की जिम्मेदारी सैन्य समिति को दी गई थी। चंद्रगुप्त मौर्य ने नंद वंश के विनाश के लिए कश्मीर के राजा पर्वतक से सहायता ली थी । 
   अशोक के राज्य में जनपदीय न्यायालय के न्यायाधीश को राजुक कहा जाता था। मौर्य का उत्तराधिकारी बिंदुसार हुआ। बिंदुसार ने अपने पिता के संप्रदाय को बदलकर आजीवक संप्रदाय का अनुयाई बना।  पुराणों के अनुसार बिंबिसार को ' भद्र सार 'कहा जाता है। बिंदुसार के बारे में बहुत बड़ा विद्वान तारा नाथ ने लिखा है कि - जैन ग्रंथों के अनुसार बिंबिसार को सिंह सेन कहा गया था। तारा नाथ जी के नुसार - यह राजा सोलह राज्यों का विजेता हुआ था! बिंबिसार का उत्तराधिकारी अशोक हुआ। जो मगध की राज गद्दी पर 269 ईसवी पूर्व में बैठा। पुराणों के अनुसार अशोक को अशोक वर्धन कहा गया हैं। अशोक को ' उप गुप्त ' नामक बौद्ध भिक्षु ने बौद्ध धर्म की दीक्षा दी। अशोक ने धर्म प्रचार के लिए अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा था। अशोक की माता का नाम ' शुभ द्रांगी '! अशोक के शासनकाल से ही शिलालेख का प्रचलन सर्वप्रथम भारत में शुरू हुआ।
तीसरी शताब्दी के अंत में गुप्त साम्राज्य का उदय प्रयाग के निकट कौशांबी में हुआ। गुप्त वंश का संस्थापक श्री गुप्त 240 से 280 ईसवी में माना जाता है। श्री गुप्त का उत्तराधिकारी घटोत्कच 280 से 320 ईसवी में माना गया। गुप्त वंश का प्रथम महान सम्राट चंद्रगुप्त प्रथम था जो 320b में गद्दी पर बैठा और उसने व्हिच वी राजकुमारी कुमार देवी से विवाह किया। इसमें महा राजाधिराज की उपाधि धारण की। तदुपरांत उसका उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त हुआ जो 335 ईसवी में गद्दी पर बैठा। समुद्रगुप्त विष्णु का उपासक था। इसका दरबारी कवि हरि शेन था जिसने इलाहाबाद प्रशस्ति ले ख की रचना की। समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी चंद्रगुप्त द्वितीय हुआ। चंद्रगुप्त द्वितीय का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त प्रथम वा गोविंद गुप्ता हुआ।कहा जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना कुमार गुप्त ने की थी। और कुमारगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी स्कंद गुप्त हुआ। स्कंद गुप्त ने गिरनार पर्वत पर सुदर्शन झील का पुनरुद्धार कराया। स्कंद गुप्त के शासनकाल में ही फूलों का आक्रमण शुरू हो गया अंतिम गुप्त शासक विष्णु गुप्त था। गुप्त काल में प्रसिद्ध मंदिर विष्णु मंदिर जबलपुर मध्य प्रदेश में, शिव मंदिर भू मरा नागदा मध्यप्रदेश में, पार्वती मंदिर नैना कोठार मध्य प्रदेश में, दशावतार मंदिर देवगढ़ ललितपुर उत्तर प्रदेश में, शिव मंदिर खोह नागौद मध्यप्रदेश में, भीतरगांव मंदिर - भीतरगांव,
लक्ष्मण मंदिर कानपुर उत्तर प्रदेश में निर्मित कराया था।
चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में संस्कृत भाषा का सबसे प्रसिद्ध कवि कालिदास को कहा जाता था। इनके दरबार में आयुर्वेदाचार्य धनवंतरी थे।
    गुप्त वंश के पतन के बाद राजवंशों का उदय हुआ इन राजवंशों में शासकों ने सबसे विशाल साम्राज्य स्थापित किया। पुष्प भूति वंश के संस्थापक पुष्य भूति ने अपनी राजधानी थानेश्वर हरियाणा प्रांत के कुरुक्षेत्र मैं स्थित थानेसर नामक स्थान पर बनाई। इस वंश के श्री प्रभाकर वर्धन ने महा राजाधिराज जैसी सम्मानजनक उपाधियां धारण की। प्रभाकर वर्धन की पत्नी यशोमती से 2 पुत्र राजवर्धन और हर्षवर्धन हुआ तथा एक कन्या जिसका नाम राजश्री है उत्पन्न हुई। राजश्री का विवाह कन्नौज के मौख रि राजा ग्रह वर्मा के साथ हुआ। मालवा के राजा देव गुप्ता ने ग्रह वर्मा की हत्या कर दी और राजश्री को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया। राजवर्धन देव गुप्त को मार डाला परंतु देव गुप्त का मित्र शशांक ने धोखा देकर राजवर्धन की हत्या कर दी। राजवर्धन की मृत्यु के बाद 16 वर्ष की अवस्था में ही हर्ष वर्धन थानेश्वर की गद्दी पर बैठा हर्षवर्धन को शिलादित्य के नाम से भी जाना जाता है। हर्ष ने शशांक को पराजित करके कन्नौज का अधिकार अपने हाथ में ले लिया।
- सुख मंगल सिंह


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