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" धर्म क्षेत्र और कुरु क्षेत्र, संजय के नेत्रों से "

 


" धर्म क्षेत्र और कुरु क्षेत्र, संजय के नेत्रों से "

कौरव राजा धृतराष्ट्र संजय से धर्म क्षेत्र - कुरुक्षेत्र में युद्ध में अपनों को पूछा,

संयम रुपी संजय जन्मांक राजा को मोह रुपी दुर्योधन जीवित दिखाया।
यथा - 
धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:
मायका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।
तत्क्षण धृतराष्ट्र राष्ट्र पुत्र दुर्योधन व्यूह - रचना में पाण्डवों की सेना देख कर द्रोणाचार्य के पास जाता है और यह वचन सुनाकता है -
द्वैत के आचरण ही द्रोणाचार्य हैं,
हम परमात्मा से अलग हैं जान कर!
जब उसके प्राप्ति के लिए तड़प होती,
तभी हम गुरु की तलाश में निकलते ।
राजा  दुर्योधन आचार्य के पास जाता है और पाण्डवों की सेना द्वारा युद्ध रचना की सुनाया - 
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम‌् !
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।
आचार्य! बुद्धिमान शिष्य द्रुपद - पुत्र द्वारा व्युहु की  रचना हुई। पांडवों की भारी सेना को देखिए।
सेना का विस्तृत विस्तार देखिए -
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि,
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ:।
सेना में महेष्वासा अर्थात महान ईश में वास दिलाने वाले,भाव रुपी भीम अनुराग रुपी अर्जुन के समान अन्य शूरवीर सात्विकता रुपी सात्विक, सर्वत्र ईश्वरीय प्रवाह की धारणा,
 *महारथी द्रुपद यानी अचल स्थित है!
 *धृष्टकेतु:- दृढ़ कर्तव्य,चेकितान: जहां भी जाय,वहां से चित्त को खींचकर इष्ट में स्थिर करना,
  *काशी राज:- कायारुपी काशी में ही साम्राज्य स्थापित है।
 *पुरुजित‌् - स्थूल,सूक्ष्म और कारण शरीर पर विजयश्री दिलाने वाले,पुरुजित‌् !
 *कुन्तिभोज: - कर्तव्य से भव के ऊपर विजय,
 *नरों में श्रेष्ठ शैव्य - सत्य व्यवहार वाला।
* पराक्रमी युधामन्यु - युद्ध के अनुसार मन धारण करने वाला।
*उत्तमौजा: - यह समय शुभ आधार आ जाता है तो मन भाव से रहित हो जाता है। शुभद्रा पुत्र अभिमन्यु अर्थात शुभ की मस्ती!
ऐसा शुभ मंगल से उत्पन्न अभय  मन,
ध्यान रुपी द्रोपदी के पांचों पुत्र वात्सल्य, लावण्य, सहृदयता, सौम्यता, स्थिरता सभी महारथी । उनके अंदर साधन पथ पर संपूर्ण योग्यता के साथ चलने की छमता हैं। 
राजा दुर्योधन पाण्डव  पक्ष यह सेना का विस्तृत ब्यौरा अपनी योग्यता के अनुसार आचार्य को सुनाया।
युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यदान‌्।
सौभद्रो द्रोपदेयाश्च सर्व एव महाराजा:।।
दुर्योधन और आपको संक्षेप में बताते हुए कहता है कि -
यदि कोई बाह्य युद्ध होता तो, अपनी फौज को बढा चढाकर बताता! उन पर विजय पाना है, वेनाशवान हैं।
संपूर्ण बहिर्मुखी प्र वृत्तियां विद्यमान गिनाते  हुए -
अकस्मात तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम‌।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तानब्रवीमि ते।।
द्विजोत्तम! हमारे पक्ष में जो प्रधान हैं उन्हें भी आप जान लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो नायक है उन्हें बताता हूं।
कहा जाता है कि जब हम लेस मात्र भी आराध्य देव से अलग होते हैं तब तक रवि यहां विद्यमान है, द्वैत बना है। इस' द्वैत' में 'द्वि 'पर विजय पाने के लिए प्रथम प्रेरणा गुरु द्रोणाचार्य से मिलती है।
अधूरी शिक्षा ही उड़ जानकारी के लिए प्रेरणा प्रदान करती है।
कौरव सेना, विजातीय प्रवृति के नायक कौन? -
* द्वैत के आचरण रुपी द्रोणाचार्य हैं।
*भ्रम रुपी पितामह भीष्म हैं।-
भ्रम ही इन विकारों का उद्गम है, जो अंत तक जीवित रहता है। इसीलिए उसे पितामह कहते हैं। सारी सेना मर गई, यह जीवित रहता है। सर सैया पर अचेत अवस्था में है। यह ही भ्रम रुपी भीष्म है।
*कर्ण!  विजातीय कर्मरुपी कर्ण ।
* कृपाचार्य ! संग्राम विजय कृपा चार्य हैं। साधना अवस्था में साधक द्वारा कृपा का आचरण ही कृपाचार्य है। मोह के घेरे में, परमात्मा से अलग ,   विजातीय प्रभु के प्रभाव में साधक यदि कृपा का आचरण करता है तो वह नष्ट हो जाता है। जैसे -
 *सीता ने दया कीं, तो उन्हें लंका में प्रायस्चित करना पड़ा।
*विश्वामित्र! की दयार्द्र होने से उन्हें पतित होना पड़ा।
योग सूत्रकार महर्षि पतंजलि जी का के हैं कि
' ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धय:'
अर्थात व्युत्थान काल में सिद्धियां उत्पन्न होती हैं वे वास्तव में सिद्धियां हैं,
जितना काम क्रोध लोभ और उत्पन्न य होने पर प्राप्त होता है उसी तरह की यह सिद्धियां हैं। 
साधक को पूर्ति पर्यटक सतर्क रहना चाहिए। यथा -
'दया बिनु संत कसाई, गया करी तो आफत आई।'
आगे दुर्योधन कहता है कि -
अपर्याप्त तदस्कमाकं बलं भीष्माभिरक्षितम‌् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम‌् ।।
भीष्म द्वारा रचित सेना सब प्रकार से अजेय है। भीम द्वारा आरक्षित इन लोगों की सेना जितने में सुगम है।
दुर्योधन कैसा है कि अपनी-अपनी जगह से सीधा स्थिर रहकर सभी लोग भीष्म की ही सब ओर से रक्षा करें। इस प्रकार भीष्म यदि जीवित हे तो हम अजेय हैं। इसलिए आप पांडवों सेना लड़कर केवल भीष्म की ही रक्षा करें।
अर्थात जब तक भ्रम जी बीच रहता है तभी तक विजातीय प्रवृत्ति अर्थात कौरव अजेय है।
अजी का अर्थ होता है कि जिसे कठिनाई से जीता जा सके इसका कर तैयार नहीं होता है जिसे जिता न जा सके।
रामचरित्र मानस के श्लोक ६/८० में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं
'महा अजय संसार रिपु, जीति सकै सो बीर।'
भ्रम के समाप्त होने पर अविद्या स्तित्व  हीन हो जाती है।मोह आदि समाप्त हो जाता है।
भीष्म को इच्छा अनुसार मृत्यु का वरदान प्राप्त था। जबकि इच्छा ही भ्रम है। इच्छा का अंत और भ्रम का मिटना यह कहीं बात मानते हुए कबीर ने लिखा है कि -
इच्छा काया इच्छा माया, इच्छा जग उपजाया।
कह कबीर जे इच्छा विवर्जित, ताका पार न पाया।।
अर्थात जहां भ्रम नहीं होता, वह अपार  और अव्यक्त है। इस शरीर के जन्म का कारण इच्छा है। इच्छा ही माया है और इच्छा ही जगत की उत्पत्ति का कारण है।
कबीरदास जी छान्दोग्य उपनिषद में कहते हैं कि जो इच्छा से सर्वदा रहित है, तिनका पार न पाया।
यानी अपार, अनंत, असीम तत्व में प्रवेश पा जाते हैं।
बृहदारण्यक में वर्णन किया गया है कि - कामनाओं से रहित आत्मा में स्थिर आत्मा स्वरूप!
उसका कभी पतन नहीं होता। वह ब्रह्म के साथ एक हो जाता है। यद्यपि आरंभ में इच्छाएं अनंत होती है और अंत तो बता परमात्मा प्राप्ति की इच्छा शेष रहती है। जिस समय यह इच्छा पूरी हो जाती है तभी इच्छा मिट जाती है।
 *काया रुपी काशी ! -
काश्यश्च परमेष्वास: शिखण्डी च महारथ:।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजित: ।।
जिस समय पुरुष चारों तरफ से मन सहित इंद्रियों को समेट कर काया में ही केंद्रित करता है तो परम ईश में वास का अधिकारी हो जाता है। उसे ही परमेष्वास: कहते हैं।
परम ईश में वास दिलाने में सहायक काया ही काशी  है। काया में ही परम ईश का निवास है।
' परमेष्वास '
का तात्पर्य श्रेष्ठ धन वाला नहीं होता अपितु -
परम + ईश + वास होता है।
* शिखण्डी ! - शिखा - सूत्र का त्याग ही शिखण्डी है।
 प्राय: देखा गया  कि आजकल लोग सिर का पूरा बाल कटवा देते हैं। और सनातन संस्कृति में गले की जनेऊ को भी हटा लेते हैं। आग का  जलाना छोड़ देते हैं। कहते हैं कि हमने संयास ले लिया।
शिखण्डी चिंतन पथ की विशिष्ट योग्यता है। वह महारथी हैं। शिखा लक्ष्य का प्रतीक है। जिसको सभी को पाना है। संस्कार सूत्र है। परमात्मा को पाने के लिए संस्कारों का सूत्र लगा हुआ है।
* धृष्टद्युम्न! अचल मन, दृढ विश्वास, तथा विराट, ईश्वर का प्रसार देखने की छमता इत्यादि दैवी सम्यक के प्रमुख गुण हैं। सत्य के चिंतन की प्रवृति सात्विकता यदि बनी हुई है तो गिरावट नहीं आने पायेगी। वह संघर्ष में पराजित नहीं होने देती।
द्रुपद अचल फलदायक तथा द्रोपदी की द्रोपदी के पांचों पुत्र इत्यादि महान सहायक महारथी हैं। बड़ी भुजा वाला अभिमन्यु - इंसानी पृथक पृथक शंख बजाए।
जिस समय मन भय से रहित हो जाता है तब उसकी पहुंच दूर तक फैले जाती है।
संजय ने कहा - राजन! इन सभी ने अलग अलग शंख बजाये। उस घोर शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी शब्दायमान कर दिया।  इसके अतिरिक्त कुछ दूरी ऐसी भी है जो मन और बुद्धि से परे है। भगवान स्वयं ही अंत: करण में विराजमान होकर कहकर आते हैं। इधर दृष्टि बनाकर आत्मा से खड़े हो जाते हैं और अध्यक्ष खड़े होकर अपना परिचय करा देते हैं।
राजन सेना तो पांडव की ओर भी थी, हृदय विदीर्ण हुए धृतराष्ट्र - पुत्रों के।
संजय ने कौरव राजा धृतराष्ट्र को धर्म क्षेत्र - कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध करने वाले इकट्ठा हुए बलशाली वीरों की स्थिति , अपने  दिव्य दृष्टि से ज्ञात कराया।
 - सुख मंगल सिंह

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