Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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"पश्चाताप"

 

अधजल मन बुझ कर जलता,

भटकता अभिशापित उपवन!
भाव लाख उठते हृदय के बाद,
योग साधना बेकार नहीं आते।।

भूतकाल पे पछताना जी हुजूरी,
बुरा सपने देखने से बनाओ दूरी।
अधिकारों पर नहीं हो कंजूसी,
कर्तव्य करने में न हो ठूसा ठूसी।।

प्रयोजन सिद्धियों की प्राप्ति के,
भावों के भाव की अनुभूति कीजिए!
आये हो इस जगत में अगर तुम,
समाज के लिए कुछ अच्छा दीजिए।।

गर की हो गलत तो पश्चाताप कीजिए,
आये जो भी मजबूरी ध्यान दीजिए।
अपनी से बड़ों की बात मान लीजिए,
जिनके अनुभव का ख्याल कीजिए।।

लोहे की भांति मनुष्य तपाया जाता,
बनकर स्टील वह निखार दे जाता।
यही तो कुदरती करिश्मा कहलाता,
वही आक्षेप किसी पर नहीं लगाता।।

किस्मत में जो कुछ लिखा होता,
बुद्धि - मन वैसा ही करता रहता।
भोगती है यह शरीर बन बेचारी,
माथा पर झलकती परेशानी सारी।।

सोच विचार कर खुश करना चाहिए,
गुजरेे हुए समय को समझना चाहिए।
बर्तमान में अपने को सुधारना चाहिए,
भविष्य की योजना में निखार चाहिए।।

 बीता हुआ समय वापस नहीं आता,
निशानी बराबर धरा पर छोड़ जाता।
इतिहास लिखता है उनकी कुर्बानी,
अच्छी बुरी आई चाहे जो परेशानी।।

त्याग बलिदान होता है खानदानी,
त्याग और तपस्या में लीन सनातनी।
बरसो तक बातों पर विचार होता,
चूल चूल में प्रकाशित झांसी की रानी।।

चर्चा चलती रहेंगी हजारों साल रहेंगी,
चमक चट्टान सी सदा चमकती रहेगी।
धरा पर त्याग गाथाएं लिखी मिलेगी,
बहस की बहती हवाएं चलती रहेंगी।।

बहसी चलता मलता रहता है चाव से,
बदबूदार डगर पर भी चलता ताव से!
अच्छाई और बुराई को दबाता आपसे,
करता रहता है बहस अपने आप से!!

घर अंदर घर से ही सजाता है सभाएं,
रात दिन लगातार करता वह लीलाएं!
घूम के पौधों से साझा बनी अप्सराएं,
यद्यपि हिला देती है उसको बलायें।।

- सुख मंगल सिंह

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