Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

काव्य संग्रह ------ हो न हो

 

 

ho na ho


कवि ----- सुधीर मौर्य सुधीर
प्रकाशक -- मांडवी प्रकाशन ,
गाजियाबाद
पृष्ठ ---- 128
मूल्य -- 100 रु
हो न हो - युवा कवि सुधीर मोर्य सुधीर का तीसरा काव्य संग्रह है । यह उनकी पांचवीं पुस्तक है । कवि के अनुसार वे गुप्त, पन्त, निराला और दिनकर जी से प्रभावित हैं । उनके खुद के अनुसार इस संग्रह की रचनाएं उनके पहले दो संग्रहों की रचनाओं से बेहतर हैं ।
हो न हो वास्तव में पठनीय काव्य संग्रह है जिसमें मुक्त छंद कविता, तुकान्तक कविता और गीत हैं । पहली नजर में यह प्रेम काव्य है जिसमें प्रेमिका की खूबसूरती का निरूपण है, प्रेमिका की याद है, प्रेमिका की बेवफाई है अर्थात संयोग वियोग दोनों में कवि ने कविता लिखी है । गरीबी और जाति प्रेम में बाधक है । कविताओं में इस स्थिति का वर्णन करके कवि समाज का कुरूप चेहरा दिखाता है ।
हो न हो शीर्षक को उन्होंने ने कई कविताओं में प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं-
हो न हो / चढने लगा है /
प्रीत का रंग / किसी का इन दिनों । ( पृ - 15)
प्रेम की अभिव्यक्ति न कर पाने वाली युवती का चित्रण वे यूं करते हैं -
हो न हो / करती थी वो
मूक प्रेम मुझसे । ( पृ - 16 )
कुम्हलाई सूरत और नीर से भरे नयन कह रहे हैं -
खाया था उसने / हो न हो / प्रेम में फरेब
किसी से इन दिनों । ( पृ - 17 )
नए प्रेमी की ओर झुकाव का वर्णन इस प्रकार है -
हो न हो / वो सवार है / प्रेम की
दो नाव में इन दिनों । ( पृ - 18 )
ऊँची जाति की लडकी जब नौकर के हाथों दिल की बाजी हार जाती है तब यही होता है -
कल शाम नहर के बाँध में / उसकी ही
लाश पाई गई / वो रो न सकी /
कुछ कह न सकी /उसकी आँखों की नदिया
हो न हो / शायद सूख गई ।
ऊसर में कांस फूलने को वे व्यंग्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं । गरीब कन्या की दशा पर वे कहते हैं -
वो बेबस चिड़िया / फडफड़ाती हुई /
दबंगों के हाथों में झूल रही थी / उस घड़ी गाँव में
ऊसर में / कांस फूल रही थी । ( पृ - 22 )
गरीब राम पर अमीर रावण भारी पड़ता है -
जब बाँहों में रावण के / एक सीता / राम की खातिर
झूल रही थी / तब उस कमरे के बिस्तर पर
ऊसर में कांस फूल रही थी ।
गाँव का लम्बरदार जब मनपसन्द शिकार पा जाता है तब -
खून टपकते बदन से / अपने/ जब वो /
झाड धूल रही थी / तब उसके कमरे के बिस्तर पे
ऊसर में कांस फूल रही थी ।
गरीबी और दलित होने का दुःख जगह-जगह बिखरा पड़ा है -
वो थी दलित / यही उसका अभिशाप था ।
जातिवाद का चित्रण वो यूं करते हैं -
एक था बेटा / जमींदार का /
और एक का बाप / हाय चमार ।
गरीब को सपने देखने का हक नहीं -
बिखरे ख्वाबों की किरचें हैं / संभाल कर रखो /
तुम्हें ये याद दिलाएँगे / कि मुफलिस
आँखों में ख़्वाब / सजाया नहीं करते । ( पृ - 47 )
गरीबी प्रेम में बाधक है -
न रक्स रहा, न ग़ज़ल रही / हाय जफा ही काम आई /
भूल के प्यार गरीबों का / अपनाया महल उसने । ( पृ - 31 )
ऐसा नहीं कि गरीबों को प्रेम नहीं मिलता लेकिन दुर्भाग्यवश ये मिलता थोड़े समय के लिए है । कवि कहता है-
यूं लगा की मुकम्मल मेरा अरमान हो गया
मेरे घर में दो घड़ी जो चाँद मेहमान हो गया ।
चलते ही ठंडी हवा फिर हाय तूफ़ान हो गया
ऐ मुफलिसी ये क्या हुआ / ऐ बेबसी ये क्या हुआ । ( पृ - 56 )
गरीबी के अतिरिक्त प्रेम की विफलता के ओर भी कई कारण हैं । खुद की नाकाबिलियत भी इनमें एक है -
सच इतनी प्यारी चीज / बेनसीबों के लिए /
नहीं होती । ( पृ - 74 )
भगवान की नाराजगी भी एक कारण हो सकती है -
हे कपिलेश्वर - दोष क्या है मेरा / क्या आपके दर पे आकर
उन्हें मुहब्बत की नजर से देखना / क्या यही है
आपकी नारजगी का सबब है । ( पृ - 84 )
बेवफाई सबसे बड़ा कारण है और यह कारण अनेक कविताओं का वर्ण्य विषय है -
रकीबों का थाम के दामन हंसे तुम
मेरे प्यार की बेबसी पर हंसे तुम । ( पृ - 57 )
बेवफा की बेवफाई आग लगाती है -
वो डोली तेरी वो सजना तेरा
वो मय्यत मेरी वो मरना मेरा
कैसे आग लगाई / अल्लाह-अल्लाह । ( पृ - 80 )
कवि खुद के और अपनी प्रेमिका के प्यार की तुलना करता है -
मैंने अपना तुझे माना / तूने सपना मुझे समझा
बस इतना-सा फर्क था / तेरी मेरी मुहब्बत में । ( पृ - 127 )
बेवफा प्रेमिका की याद प्रेमी को दिलाने के बहुत से कारण कवि को दिखते हैं -
जब कोई लडकी / प्रेम में फरेब /
निभाती है / तू मुझे याद आती है ।
तितली भी कवि को बेवफा लगती है -
देखकर तितली / मुझे न जाने क्यों
तेरी याद आ गई ।
बेवफा को देखकर वो कहते हैं -
काश वो भी / पैदा होता कीचड़ में ।
टूटा प्रेम कवि को निराश करता है । यह निराशा मोमबत्ती के माध्यम से झलकती है -
अँधेरे दूर करने की कोशिशें / बेकार ही हैं । ( पृ - 81 )
टूटे प्रेम ने कवि को इतना सिखा दिया है की वह किसी हसीन को अब तवज्जो नहीं देता । हाँ, इतना उसे जरूर लगता है कि यदि ऐसा कुछ वर्ष पहले हो जाता तो -
शायद तब / ये शफक ये शब
मेरे तन्हा न होते । ( पृ - 82 )
मुहब्बत की हार ने उसे जीवन में भी हरा दिया है -
अगर हम मुहब्बत के मारे न होते
तो गर्दिश में अपने सितारे न होते । ( पृ - 58 )
वो खुद भले प्रेमिका को याद करते हैं मगर प्रियतमा को यही कहते हैं -
कभी दिन में याद आये जो हम
तब तस्वीर मेरी जला देना तुम । ( पृ - 87 )
प्रेमिका की याद कई रूप में उन्हें सताती है -
शाम / जब कभी / छाँव-धूप से
छिपयाती है / तू मुझे याद आती है ।
याद के डर से जाम पकड़ने से भी कवि डरता है -
अब तो हाथ में / जाम लेने से भी / डर लगता है
न जाने क्यों / तेरा अक्स / मुझे अब
उसमें नजर आता है ।
चीजें नहीं बदली लेकिन सब कुछ बदला बदला लगता है जब -
तभी एहसास हुआ / कुछ तो बदल गया
क्योंकि / मुझे चाउमीन / यह आवाज सुनाई न दी । ( पृ - 76 )
याद आने पर कवि अपनी दशा का यूं ब्यान करता है -
दिन गुजरा जब रो रो के / और आँखों से बरसात हुई । ( पृ - 20 )
कवि अपने अतीत को भुला नहीं पाटा और वही गीत बन जाता है -
मैं गीत लिख रहा हूँ अपने सुनहरे कल के
लगते थे तुम गले जब मेरे सीने से मचल के । ( पृ - 67 )
कवि की पुकार कोई नहीं सुनता -
लो बादलों के पार गई दिल की मेरी आह
फिर भी बेखबर है वो मेरा हमराह । ( पृ - 59 )
प्रेम दुष्कर है और प्रेमी को पाना और भी दुष्कर । कवि के सपने भी यही बताते हैं -
कल रात ख़्वाब में / जब मैंने पहाड़ पे चढ़ के
सूरज को हाथ में पकड़ा / यूं लगा तुम्हें पा लिया ( पृ - 43 )
तभी तो प्रेमी प्रेमिका को पाकर उससे दूर नहीं होना चाहता -
रुक जाओ कुछ पल अभी अरमान अधूरा है
गुजरने वाला वो हद से तूफ़ान अधूरा है । ( पृ - 49 )
कवि का मानना है कि प्रेम एक जादू है और इसमें डूबे रहने को मन करता है , प्रियतमा भाग्य बदलने का सामर्थ्य रखती है -
उनके कदमों का लम्स
मेरी झोंपडी को महल कर गया । ( पृ - 94 )
प्रियतमा की सुन्दरता का वर्णन करने में कवि का मन खूब रमा है -
तेरी ये मरमरी बाहें, तेरे ये चाँद से पाँव
कि अब्र से भी बढकर है तेरे जुल्फ की छाँव
कमर, चोटी और बोल यूं लगते हैं -
तेरी पतली कमर लचकती डालियाँ / तू बोले तो लगता बजे घंटियां
वो कमर पे तेरे झूलती चोटियाँ । ( पृ - 105 )
आँखें, अधर और यौवन -
वही सुरमई आँखें / वही मदिर अधर
और वही / खिलता यौवन ( पृ - 124 )
होंठ रस के सोते हैं -
तेरे होंठों से / रस के सोते बहते हैं ( पृ - 32 )
कवि इस सुन्दरता को देखकर इतना मचल उठता है की वह कह उठता है -
बिना रुखसार के बोसे, ये तेरा मेहमान अधूरा है ( पृ - 49 )
कवि को सुन्दरता का वर्णन करते हुए दुविधा भी होती है-
तुझे शमा कहूं या शबनम कहूं
प्रकृति का चित्रण कवि ने विभिन्न रूपों में किया है । यहाँ वे प्रकृति से पूछते है कि मेरी प्रियतमा कैसी है तो प्रकृति से ही वे ये भी पूछते हैं कि मेरी कौन हो तुम । कवि का प्रेमी मन बड़ी सहज ख्वाहिश रखता है -
कुछ फूल हैं / मेरे दामन में / मैं सोचता हूँ
इस सावन में / इनको तुम्हें अर्पित कर दूं
अरमान यही बस है मन में
वह खुद को साधारण आदमी मानता है और प्यार उसकी मंजिल है -
हाँ मैं आदमी हूँ / जो तुमसे इश्क करेगा सादगी भरा
तुम भूले न होगे कविता में कवि भारतीय परम्परा के भी दर्शन करवाता है -
वो गली जहां/ तुमने अपने कोमल हाथों से
पहली बार मेरे / पैरों को स्पर्श किया था
हालांकि इस कविता संग्रह का मूल विषय प्रेम है लेकिन कवि निराला की कुकुरमुत्ता कविता की तरह कैक्टस को धन्य मानता है , कमल को उच्च वर्ग का प्रतीक और पोखर को मजदूर वर्ग का प्रतीक मानता है । वह यह भी कहता है -
इस मुहब्बत के सिवा जहां गम और भी हैं ।
कवि ने ग्रामीण जीवन के सटीक चित्र प्रस्तुत किए हैं -
गाँव के पनघट पर ये कलरव / खन खन खन खन बजे चूड़ियाँ
दे दे झूंक भरे सब पानी / टन टन टन टन बजे बाल्टियां ।
पछुवा शीर्षक इस गीत में कवि ने ध्वन्यात्मक शब्दों से कमाल किया है । कहीं कहीं नीरस वर्णन भी है -
वो छवि जे के टेम्पल की / वो पी पी एन का कैम्पस
वो कल्यानपुर की बगिया ।
कुछ कविताओं को उर्दू शब्दावली बोझिल बना रही है । लेकिन उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास जैसे अलंकारों का प्रयोग बड़ी खूबसूरती के साथ हुआ है । एकावली अलंकार का सुंदर उदाहरण देखिए -
नदी पे / तैरते अंगारे / उन अंगारों से निकलती
धुंए की स्याह लकीर / उन लकीरों में /
दफन होते मेरे ख़्वाब / उन दफन ख़्वाबों में
भटकती मेरी रूह ।
सामन्यत कविताएँ मध्यम आकार की हैं , लेकिन सितारों की रात एक लम्बी कविता है और बदहाल कानपुर में तीन क्षणिकाएं हैं । कवि मध्यम आकार की कविताओं में ज्यादा सफल रहा है ।
संक्षेप में कहें तो हो न हो संग्रह सुधीर जी का सुंदर प्रयास है । साहित्य जगत को उनसे ढेरों आशाएं हैं ।
--------- दिलबाग विर्क

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ