Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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खेत भी नहीं

 
खेत भी नहीं,
हल भी नहीं 
और न ही बैल है
जो उगा सकें अन्न ।
कविता मशीन भी नहीं
जो बटन दवाते ही
शुरू कर दे उत्पादन ।
कविता
न ताँगा है,
न मोटर है,
न रेल है ।
कविता नहीं है 
कोई वस्त्र
जिससे छिपाई जा सके शर्म 
और बचा जा सके
सर्दी या गर्मी से ।
कविता 
नहीं है मकान या महल
जिसमें रहकर
भोगे जा सकें भौतिक सुख ।
कविता 
न माँ है, न बाप, 
न पत्नी है न प्रेयसी,
न बेटा न बेटी,
न दोस्त, न रिश्तेदार ।
कविता
हाथ, पाँव, नाक, कान
और आँख भी नहीं ।
कविता
न अक्षर है, न शब्द,
न वाक्य ।
कविता तो है 
झरनों की कल - कल
नदियों का प्रवाह,
पक्षियों की उड़ान,
कोयल की कूक,
पपीहे की हूक,
भ्रमरों का गुंजार,
फूलों की सुवास,
सागर की गहराई,
आकाश की ऊँचाई,
भूखे की क्षुधा,
तृषित की तृषा,
लाचार की लाचारी,
सताये हुए का क्रोध,
उपकृत का आभार,
माँ की ममता,
पिता का प्यार,
प्रिय का अनुराग
और मित्र की मित्रता ।
यही नहीं
और भी बहुत कुछ है कविता ।
और कविता नहीं है
बहुत बहुत बहुत कुछ ।
क्योंकि कविता
स्थूल में नहीं
सूक्ष्म है,
आकार में नहीं,
चेतना में है ।
कविता 
एक अनुभूति है,
भावना है ।
कविता
देह नहीं आत्मा है ।
© डाॅ. राम वल्लभ आचार्य


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