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महान सौदेबाज़ ट्रंप की कूटनीति

 

महान सौदेबाज़ ट्रंप की कूटनीति या प्रचारवादी आत्ममुग्धता?

[कश्मीर पर अमेरिकी दखल: ना मुमकिन, ना स्वीकार्य]



जब कोई नेता अपनी समझ और संवेदनशीलता की सीमाओं को लांघकर जटिल वैश्विक मुद्दों में हस्तक्षेप करता है, तो वह केवल भ्रम और अस्थिरता का जाल बुनता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का हालिया दावा कि वे भारत और पाकिस्तान को एक मंच पर लाकर कश्मीर विवाद का समाधान कर सकते हैं, न केवल तथ्यहीन और अव्यवहारिक है, बल्कि भारत की संप्रभुता, कूटनीतिक दृढ़ता और ऐतिहासिक संवेदनशीलता का घोर अपमान है। यह बयान ट्रंप की उस स्वघोषित ‘महान सौदेबाज’ छवि को उजागर करता है, जिसमें वे वैश्विक मंच को अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं और प्रचार के अखाड़े के रूप में इस्तेमाल करते हैं। कश्मीर कोई मनोरंजन कार्यक्रम, चुनावी नारा या अंतरराष्ट्रीय सौदेबाजी का मंच नहीं है। यह एक जटिल, ऐतिहासिक और गहरे जड़ों वाला मसला है, जिसका समाधान केवल भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय संवाद से संभव है। भारत ने बार-बार स्पष्ट किया है कि कश्मीर उसका आंतरिक मामला है, और किसी भी तीसरे पक्ष की दखलंदाजी अस्वीकार्य है। फिर भी, ट्रंप का यह दावा कि वे दोनों देशों को ‘एक साथ लाएंगे’, उनकी कूटनीतिक अपरिपक्वता और भारत की नीति के प्रति उनकी अवहेलना को उजागर करता है।

कश्मीर भारत की संप्रभुता और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। यह कोई ऐसा विषय नहीं है, जिसे किसी विदेशी नेता की तथाकथित ‘मध्यस्थता’ से हल किया जा सके। भारत की विदेश नीति और कूटनीति दशकों से इस रुख पर अडिग रही है कि कश्मीर पर कोई भी चर्चा केवल भारत और पाकिस्तान के बीच होगी, बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के। ट्रंप का यह बयान न केवल भारत की इस स्पष्ट नीति की अनदेखी करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि वे दक्षिण एशिया की जटिल भू-राजनीति को समझने में पूरी तरह विफल रहे हैं। उनकी यह टिप्पणी एक ऐसे नेता की हताश कोशिश है, जो वैश्विक मंच पर चर्चा में बने रहने और अपनी छवि को चमकाने के लिए किसी भी संवेदनशील मुद्दे का इस्तेमाल करने से नहीं चूकता। भारत ने ट्रंप के मध्यस्थता प्रस्ताव को ठुकराते हुए साफ कर दिया है कि कश्मीर एक द्विपक्षीय मुद्दा है, और इसमें किसी तीसरे पक्ष की कोई भूमिका नहीं है।

इस घटनाक्रम की पृष्ठभूमि को और पेचीदा बनाता है पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर का प्रस्तावित अमेरिका दौरा। 14 जून, 2025 को वाशिंगटन में आयोजित अमेरिकी सेना की 250वीं वर्षगांठ के समारोह में मुनीर के शामिल होने की संभावना की खबरें कई सवाल खड़े करती हैं। यह तारीख संयोगवश ट्रंप के 79वें जन्मदिन के साथ मेल खाती है। जिस समय ट्रंप भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर पर ‘शांति’ की बात कर रहे हैं, उसी समय भारत के कट्टर विरोधी देश का सैन्य प्रमुख अमेरिका के राष्ट्रीय समारोह में शिरकत करने की तैयारी कर रहा है। यह महज एक संयोग नहीं, बल्कि अमेरिका की दोहरी विदेश नीति का स्पष्ट संकेत है।
 जनरल असीम मुनीर की अगवाइ में पाकिस्तानी सेना भारत के खिलाफ सीमा पर आतंकवाद को बढ़ावा देती है, युद्धविराम का उल्लंघन करती है, और कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उछालने की साजिश रचती है। हाल ही में 22 अप्रैल, 2025 को पहलगाम में हुए आतंकी हमले, जिसमें 26 लोग मारे गए, को भारत ने मुनीर की भड़काऊ बयानबाजी से जोड़ा है। ऐसे व्यक्ति को अमेरिका द्वारा निमंत्रण देना भारत के लिए एक गंभीर चेतावनी है। यह दर्शाता है कि मित्रता का दावा करने वाला अमेरिका अपनी रणनीतिक प्राथमिकताओं के लिए पाकिस्तान को फिर से गले लगा रहा है। भारत को यह समझना होगा कि जो देश हमारे कंधे से कंधा मिलाकर चलने का दावा करता है, वह हमेशा हमारे हितों का सच्चा साथी नहीं हो सकता।

अमेरिका की यह दोहरी नीति कोई नई बात नहीं है। शीत युद्ध के दौर से लेकर आज तक, अमेरिका ने अपने भू-राजनैतिक हितों के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच संतुलन साधने की कोशिश की है। चाहे वह पाकिस्तान को सैन्य सहायता देना हो या फिर आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में उसका साथ देना, अमेरिका ने बार-बार साबित किया है कि उसके लिए अपने हित सर्वोपरि हैं। जनरल मुनीर का प्रस्तावित दौरा और ट्रंप का कश्मीर पर बयान इस नीति की ताज़ा मिसाल है। यह भारत के लिए एक सबक है कि उसे अपनी विदेश नीति को किसी भी विदेशी शक्ति के इशारों पर नहीं, बल्कि स्वतंत्र और आत्मनिर्भरता के आधार पर संचालित करना चाहिए। खासकर तब, जब अमेरिका अपने सामरिक हितों के लिए पाकिस्तान के साथ निकटता बढ़ाने की कोशिश कर रहा है, विशेष रूप से चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने के लिए।

ट्रंप की कथनी और करनी का यह विरोधाभास उनकी राजनीति का पुराना ढर्रा है। कभी वे उत्तर कोरिया के साथ शांति की बात करते हैं, तो कभी परमाणु धमकी देते हैं। कभी चीन को शत्रु बताते हैं, तो कभी व्यापारिक समझौतों की मेज पर बैठ जाते हैं। उनकी यह कश्मीर ‘शांति योजना’ भी उसी प्रचारवादी ढोंग का हिस्सा है। लेकिन भारत को न उनकी मध्यस्थता की जरूरत है, न ही किसी विदेशी ‘मसला सुलझाने’ वाले की। भारत का लोकतंत्र, उसकी कूटनीति और उसकी साख इतनी मजबूत है कि वह अपने मसलों को स्वयं सुलझा सकता है—बिना किसी बाहरी दबाव या हस्तक्षेप के। यह समय है कि भारत अमेरिका की इस दोहरी नीति को स्पष्ट रूप से खारिज करे और दुनिया को बता दे कि हमारी विदेश नीति किसी समारोह, जन्मदिन या पत्रकार सम्मेलन से प्रभावित नहीं होती। जो राष्ट्र हमारे विरोधी के सैन्य नेतृत्व को निमंत्रण देता है, उसे भारत की संप्रभुता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता कर्मों से साबित करनी होगी, न कि खोखले वादों से।

ट्रंप को यह समझ लेना चाहिए कि भारत कोई सौदा नहीं है, जिसे उनकी ‘सौदेबाजी’ कला से निपटाया जा सके। यह एक अडिग, आत्मनिर्भर और गौरवशाली राष्ट्र है, जिसकी नीति, गरिमा और आत्मबल किसी भी प्रचारवादी मंच से कहीं ऊपर है। भारत न झुकता है, न बिकता है—वह केवल सत्य, सम्मान और संप्रभुता के पथ पर चलता है, अजेय और अभेद्य। भारत को अपनी कूटनीति को और मजबूत करते हुए यह स्पष्ट करना होगा कि हमारी एकता, हमारी संप्रभुता और हमारा भविष्य किसी भी विदेशी दबाव या हस्तक्षेप से समझौता नहीं करेगा। यह समय है विश्व को यह दिखाने का कि भारत केवल अपने दम पर ही नहीं, बल्कि अपने सिद्धांतों और आत्मसम्मान के साथ विश्व मंच पर अग्रणी है।



प्रो. आरके जैन अरिजीत, बड़वानी (मप्र)

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