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Dr. Srimati Tara Singh
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​खाली मन और भरे फोन - समाधान भीतर है

 

खाली मन और भरे फोन - समाधान भीतर है

[परिग्रह से अपरिग्रह तक - स्मार्टफोन युग में जैन दर्शन की सार्थकता]

 

हर सुबह, सूरज की सुनहरी किरणों से पहले, स्क्रीन की नीली रोशनी हमारे चेहरों को छूती है। उंगलियां बेकाबू होकर स्क्रॉल करती हैं, और रातें नोटिफिकेशन्स की बाढ़ में डूब जाती हैं। यह महज आदत नहीं, यह डिजिटल लत का वह जाल है, जो मन को धीरे-धीरे खोखला कर देता है। हमने तकनीक के दम पर दुनिया को तो अपने हाथों में थाम लिया, मगर अपने मन की शांति को खो दिया। फोन भरे हैं—अनगिनत ऐप्स, रील्स, और संदेशों की भीड़ से—लेकिन मन? वह खाली, बेचैन, और एक ऐसी तृष्णा से भरा है, जो स्क्रीन की चकाचौंध में कभी शांत नहीं होती। इस डिजिटल अंधेरे में, जैन धर्म का ध्यान एक जगमगाते दीपक की तरह चमकता है, जो हमें न सिर्फ़ आंतरिक शांति की राह दिखाता है, बल्कि हमें हमारे असली स्वरूप से जोड़ता है—वह स्वरूप, जो हर स्क्रॉल और नोटिफिकेशन से परे है।

डिजिटल लत कोई मामूली व्यसन नहीं है। यह केवल तकनीक का अतिरेक नहीं, बल्कि मन और आत्मा के गहरे खालीपन का दर्पण है। लोग फोन को इसलिए थामे रहते हैं, क्योंकि उनके पास मन को समृद्ध करने का कोई सार्थक रास्ता नहीं। सोशल मीडिया पर लाइक्स की भूख, रील्स में खो जाना, या गेम्स की आभासी दुनिया में डूबना—यह सब उस भीतरी अशांति को छिपाने की नाकाम कोशिश है, जो चुपके से बढ़ रही है। जैन धर्म हमें बताता है कि सच्ची तृप्ति बाहरी चमक-दमक में नहीं, बल्कि आत्मा की गहराइयों में बसती है। जैन ध्यान की विधियाँ, जैसे समायिक और कायोत्सर्ग, मन को गहन शांति से सराबोर करती हैं और आत्मा से सतही जुड़ाव के बजाय एक गहरा आत्मसाक्षात्कार—आत्मिक एकीकरण—का मार्ग प्रशस्त करती हैं। समायिक में, जब व्यक्ति फोन को किनारे रखकर अपने विचारों का साक्षी बनता है, तब उसे वह शांति मिलती है, जो कोई नोटिफिकेशन नहीं दे सकता। कायोत्सर्ग में “मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ” का चिंतन व्यक्ति को भौतिकता के बंधनों से आज़ाद करता है। यह वह क्षण है, जहाँ स्क्रीन की चमक धुंधली हो जाती है, और आत्मा का प्रकाश देदीप्यमान हो उठता है।

जैन धर्म का अपरिग्रह सिद्धांत डिजिटल लत से मुक्ति का एक व्यावहारिक और गहन रास्ता दिखाता है। अपरिग्रह केवल भौतिक वस्तुओं का परित्याग नहीं, बल्कि मन की अतृप्त लालसाओं और संग्रह की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की कला है। आज के स्मार्टफोन, टैबलेट और लैपटॉप आधुनिक परिग्रह के प्रतीक बन चुके हैं। हमारी आवश्यकताएँ सीमित हैं, मगर इच्छाएँ अनंत। हर नया ऐप, हर अपडेट हमें डिजिटल भंवर में और गहरे डुबोता है। अपरिग्रह हमें सिखाता है कि तकनीक का उपयोग संयमित और विवेकपूर्ण हो। जैन संतों का जीवन इसका साक्षात उदाहरण है—न्यूनतम साधनों में अधिकतम संतुष्टि। एक जैन मुनि के पास न गैजेट, न स्क्रीन, फिर भी उनके चेहरे की शांति डिजिटल युग के अरबपतियों को भी मात देती है। यह संयम ही हमें तकनीक का गुलाम बनने से बचाता है और सच्ची स्वतंत्रता की ओर ले जाता है।

जैन परंपरा में मौन और स्वाध्याय की साधना डिजिटल लत से मुक्ति की एक शक्तिशाली और प्रेरक औषधि है। मौन में व्यक्ति अपने विचारों का साक्षी बनता है, उन्हें गहराई से समझता है और धीरे-धीरे उन पर संयम स्थापित करता है। स्वाध्याय के माध्यम से आत्मा और कर्मों के सूक्ष्म संबंधों की खोज व्यक्ति को अपने अंतर्मन की गहराइयों तक ले जाती है। आज की युवा पीढ़ी, जो डिजिटल मायाजाल में सबसे अधिक उलझी है, के लिए ये साधन न केवल लाभकारी, बल्कि अपरिहार्य हैं। युवा अपने जीवन का अमूल्य समय स्क्रीन पर खर्च करते हैं, पर क्या वह समय उन्हें सच्चा सुख देता है? नहीं, यह मात्र एक क्षणिक भटकाव है। जैन ध्यान उन्हें यह सिखाता है कि सच्चा सुख स्क्रीन की चमक में नहीं, बल्कि भीतर की शांति में छिपा है। यह कोई पुरातन रिवाज नहीं, बल्कि एक कालजयी मार्ग है, जो वर्तमान को संवारता है और भविष्य को प्रदीप्त करता है।

आज का युग “डिजिटल डिटॉक्स” से आगे बढ़कर “आत्मिक शुद्धिकरण” की मांग करता है। इसके लिए कुछ सरल मगर शक्तिशाली कदम जीवन को रूपांतरित कर सकते हैं। प्रतिदिन 20 मिनट का समायिक अभ्यास मन को गहन स्थिरता और स्पष्टता प्रदान करता है। सप्ताह में एक दिन डिजिटल उपवास—स्क्रीन से पूर्ण विराम—आत्मा से गहरा जुड़ाव स्थापित करता है। सोने से पहले फोन की चमक को छोड़कर आत्मचिंतन या जैन ग्रंथों का स्वाध्याय करने से नींद सुकूनभरी और मन शांत होता है। परिवार के साथ सामूहिक ध्यान का अभ्यास न केवल व्यक्तिगत शांति को बढ़ाता है, बल्कि आपसी रिश्तों को भी प्रगाढ़ करता है। ये छोटे कदम जीवन को एक नई, सार्थक दिशा की ओर ले जाते हैं।

डिजिटल लत के इस दौर में जैन धर्म का ध्यान न केवल एक समाधान, बल्कि एक सशक्त क्रांति है। यह हमें जागृत करता है कि हमारी सच्ची पहचान स्क्रीन की क्षणिक चमक में नहीं, बल्कि आत्मा की अनंत गहराई में निहित है। जब हम मोबाइल को किनारे रखकर अपनी सांसों के लयबद्ध प्रवाह पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जब हम मौन में अपने विचारों का साक्षी बनते हैं, तब हम उस असीम शक्ति से एकाकार होते हैं जो हमारे भीतर ही सदा विद्यमान है। यही वह पल है जब मन का खालीपन संतुष्टि से भरने लगता है, और स्क्रीन की चकाचौंध धीरे-धीरे अपनी चमक खो देती है।

 

जैन दर्शन की गहन उक्ति है: “जो बाहर देखता है, वह स्वप्न में भटकता है; जो भीतर झांकता है, वह सत्य में जागता है।” अब समय है स्क्रीन की निद्रा से जागने और आत्मा की सैर पर निकलने का। डिजिटल लत का जाल भले ही गहरा प्रतीत हो, जैन ध्यान का प्रकाश उससे कहीं अधिक प्रखर और गहन है। यह वह दीप्ति है, जो हमें न केवल बंधनों से मुक्ति दिलाती है, बल्कि हमें हमारी अंतर्निहित असीम शक्ति से जोड़ती है। अब कोई ऐप अपडेट नहीं, आत्मा का गहन पुनर्जागरण चाहिए। यही वह प्रदीप्ति है, जो हमें  सच्ची स्वतंत्रता के पथ पर ले जाएगा।

 

प्रो. आरके जैन अरिजीत, बड़वानी (मप्र)

 

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