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डिजिटल 'फॉलोअर्स' के पीछे भागते युवा

 

डिजिटल 'फॉलोअर्सके पीछे भागते युवा — असली पहचान कहाँ है?

[सोशल मीडिया की जंजीरों में जकड़ी पीढ़ी: आत्म-सम्मान की मृत्यु]

 

डिजिटल युग की चकाचौंध में खोया हुआ युवा आज एक अनजानी दौड़ का हिस्सा बन चुका है। यह दौड़ न तो मैराथन है, न ही कोई रचनात्मक यात्रा। यह फॉलोअर्स, लाइक्स और रीपोस्ट्स की भूख है, जो स्क्रीन की चमक में उसे अपनी असल पहचान से दूर ले जा रही है। एक समय था जब पहचान का आधार व्यक्ति के विचार, उसकी मेहनत और उसकी नैतिकता होती थी। आज वह आधार डिजिटल आंकड़ों की रेत पर टिका है — एक ऐसी नींव जो हर नए ट्रेंड के साथ हिल जाती है। यह सिर्फ सोशल मीडिया की कहानी नहीं, बल्कि एक पीढ़ी की आत्मा की खोज की कहानी है, जो अपनी सच्चाई को स्क्रॉल करने में भूल चुकी है।

सोशल मीडिया ने दुनिया को जोड़ा, लेकिन इसने व्यक्तिगत पहचान को एक बाजार में तब्दील कर दिया। इंस्टाग्राम की रील्स, टिकटॉक के वीडियो और ट्विटर के 280 अक्षरों में युवा अपनी कहानी को समेटने की कोशिश करते हैं। लेकिन यह कहानी उनकी नहीं, बल्कि उस छवि की होती है, जो दूसरों को प्रभावित करने के लिए गढ़ी जाती है। एक 18 साल का लड़का अपनी कविता की गहराई से नहीं, बल्कि अपनी प्रोफाइल की 'एस्थेटिक' से आंका जाता है। एक युवती की प्रतिभा उसके डांस मूव्स की वायरलिटी से मापी जाती है। यह दौड़ फॉलोअर्स की संख्या बढ़ाने की नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान को खोने की है। विश्वसनीय अध्ययनों, जैसे कि जर्नल ऑफ सोशल एंड क्लिनिकल साइकोलॉजी (2023) में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, सोशल मीडिया के अत्यधिक उपयोग से युवाओं में आत्म-संदेह और चिंता के मामले 30% तक बढ़े हैं। यह आंकड़ा सिर्फ एक संख्या नहीं, बल्कि उस खोखलेपन की गवाही है, जो डिजिटल स्वीकार्यता की चाह में उपजता है।

इस दौड़ का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि यह वास्तविक उपलब्धियों को हाशिए पर धकेल देता है। एक युवा वैज्ञानिक, जिसने अपनी मेहनत से कोई नया आविष्कार किया, अगर वह सोशल मीडिया पर 'वायरल' नहीं हुआ, तो उसकी उपलब्धि को नजरअंदाज कर दिया जाता है। वहीं, एक मेडियोकर कंटेंट क्रिएटर, जिसने सही समय पर सही हैशटैग का इस्तेमाल किया, रातोंरात स्टार बन जाता है। यह प्रक्रिया न केवल प्रतिभा को कमतर करती है, बल्कि युवाओं को यह संदेश देती है कि सतही चमक ही असली कामयाबी है। प्यू रिसर्च सेंटर (2024) की एक रिपोर्ट बताती है कि 65% युवा मानते हैं कि सोशल मीडिया पर उनकी मौजूदगी उनकी सामाजिक स्थिति का सबसे बड़ा पैमाना है। यह एक खतरनाक सोच है, जो उन्हें अपनी आंतरिक शक्ति और मौलिकता से दूर कर रही है।

इस सबके बीच मानसिक स्वास्थ्य की कीमत सबसे भारी पड़ रही है। डिजिटल दुनिया में हर कोई एक परफेक्ट जिंदगी का दिखावा करता है। इंस्टाग्राम की चमचमाती तस्वीरें, लक्जरी लाइफस्टाइल और परफेक्ट बॉडी वाली प्रोफाइल्स युवाओं को एक असंभव मानक की ओर धकेलती हैं। तुलना की यह आग फोमो (FOMO - Fear of Missing Out) को जन्म देती है, जो धीरे-धीरे डिप्रेशन और चिंता में बदल जाता है। लैंसेट साइकियाट्री (2022) के एक अध्ययन के अनुसार, 16-25 आयु वर्ग के 40% युवा सोशल मीडिया के कारण आत्म-मूल्य की कमी से जूझ रहे हैं। यह आंकड़े सिर्फ एक चेतावनी नहीं, बल्कि एक समाज के रूप में हमारी असफलता का सबूत हैं, जो युवाओं को उनकी असल पहचान से जोड़ने में नाकाम रहा है।

सोशल मीडिया ने संवाद को भी बदल दिया है। पहले लोग अपनी भावनाओं को पत्रों, कविताओं या लंबी बातचीत में व्यक्त करते थे। आज एक इमोजी, एक स्टिकर या एक 'सीन (seen)' ही भावनाओं का जवाब बन गया है। गहराई खो गई है, और उसकी जगह ले ली है सतही ट्रेंड्स ने। वाइरल, ट्रेंडिंग जैसे हेशटैग्स अब विचारों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं। यह बदलाव सिर्फ तकनीकी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक भी है। हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं, जो अपनी कीमत लाइक्स में तलाशती है, न कि अपने विचारों की गहराई में।

लेकिन क्या यह सब अपरिवर्तनीय है? क्या युवा इस डिजिटल भंवर से बाहर निकल सकता है? जवाब हां में है, बशर्ते वह साहस दिखाए। असली पहचान को खोजने के लिए सबसे पहले उस नकली मुखौटे को उतारना होगा, जो सोशल मीडिया ने चढ़ाया है। यह मुखौटा फॉलोअर्स की संख्या, परफेक्ट सेल्फी और वायरल स्टोरीज़ का है। युवाओं को यह समझना होगा कि उनकी असल ताकत उनकी प्रोफाइल की चमक में नहीं, बल्कि उनके विचारों, मूल्यों और कर्म में है। एक साधारण सा कदम, जैसे कि सोशल मीडिया से कुछ समय के लिए दूरी बनाना, उनकी आंतरिक शांति को लौटा सकता है। यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया (2023) के एक प्रयोग में पाया गया कि सोशल मीडिया का उपयोग सीमित करने वाले युवाओं में तनाव और आत्म-संदेह में 25% की कमी आई। यह छोटा-सा बदलाव उनकी असल पहचान को फिर से जीवंत कर सकता है।

इसके साथ ही, समाज और शिक्षा प्रणाली को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। स्कूलों और कॉलेजों को चाहिए कि वे युवाओं को सिर्फ डिग्री या नौकरी के लिए तैयार न करें, बल्कि उन्हें आत्म-मूल्य और आत्म-विश्वास की शिक्षा दें। परिवारों को चाहिए कि वे बच्चों को स्क्रीन टाइम से ज्यादा उनके सपनों और विचारों को समय दें। हमें यह सिखाना होगा कि असली प्रभाव वह नहीं, जो लाइक्स से मिलता है, बल्कि वह जो किसी के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाता है।

यह सवाल हम सबके सामने है — क्या हम उस रोशनी की तलाश में हैं, जो स्क्रीन की चमक से नहीं, बल्कि आत्मा की सच्चाई से आती है? यह यात्रा आसान नहीं, लेकिन जरूरी है। युवा को खुद से यह पूछना होगा कि वह कौन है — एक डिजिटल छवि, जो हर नई पोस्ट के साथ बदल जाती है, या वह आत्मा, जो अपने विचारों और कर्मों से दुनिया को बदल सकती है। जब वह इस सवाल का जवाब ढूंढ लेगा, तब उसे फॉलोअर्स की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्योंकि असली पहचान वह है, जो भीतर से चमकती है, बिना किसी फिल्टर के, बिना किसी हैशटैग के। और यही वह चमक है, जो न केवल उसे, बल्कि पूरे समाज को रोशन कर सकती है।

 

प्रो. आरके जैन अरिजीत, बड़वानी (मप्र)

 



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