Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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ममतामयी माँ

 

हे ममतामयी माँ!!!
तुमने मेरी ऊँगली छोड़ दी
मैं आ गिरा अज्ञानियों के बीच
जहाँ चारों ओर अंधकार
उत्युच्च गगन चूमते पर्वत
नीचे बहुत गहरी खाई जो
मुँह ही फैलाये की कब वो
जीव को निगल ले।
माँ ये सिर्फ स्वार्थ के रिश्ते
धर्मांध लोग,खून के प्यासे
इनके बीच तेरा बेटा डरा है
सहमा है।
माँ वो तेरा स्पर्श ,ममता
सब को बस याद करता हूँ
रक्तिम रक्तांचल ओढ़े सूर्य
कहता है की आज अंत है
इस अग्नि में तुम्हारी मुक्ति।
पत्ते जैसे हल्के हो गए हो
ब्रह्म से दूर होकर,,,,,
और डोल रहे मायावी हवा में
भरोसा नही कब टूट गिरो और
अंत हो जाये तुम्हारी जीवन लीला।
एक नई सुबह के साथ फिर
आओ बन के नई कोपल
और फंसते ही रहो कल्पांत तक।
माँ वो चिड़ा उड़ कर कहता है
उड़ जाओ अपने सामर्थ्य से
उस अनन्त शून्य की ओर।
माँ क्या यह सच है???????
माँ गोद उठा लो अपनी और
दो अपने गर्म पल्लू की शांति
जहाँ सो जाऊँ मैं मुक्ति तक।

 

 

 

प्रणव मिश्र'तेजस'

 

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