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बुंदेलखंड का अंतर्साक्ष्य

 

प्रभुदयाल मिश्र

 

 

 

जिस प्रकार आत्मसाक्षात्कार, स्वयं की इयत्ता अथवा अपनी क्रांतिकारिता में कभी कबीर ने काशी को छोड़ मगही में अंतिम संस्कार की कामना की थी ठीक उसी प्रकार बुंदेलखंड के प्रसिद्ध लोक सिद्ध कवि ईसुरी ने भी कहा –
‘गंगा जी लों मरे ईसुरी दाग बगौरा दीजो’
अर्थात ‘मेरी मृत्यु भले ही गंगा तट पर हो किन्तु मेरा अंतिम संस्कार मेरे जन्म स्थान बगौरा (बुंदेलखंड) में ही किया जाय .’
यह स्वाभाविक ही है कि प्रख्यात समीक्षक- साहित्यकार डा. गंगाप्रसाद गुप्त ‘बरसैयाँ अपनी मिट्टी के ऋण को बखूबी समझते हैं. उनकी सद्य संसृष्टि ‘बुंदेलखंड का साहित्यिक एवं सान्स्कृतिक परिदृश्य इसी संदृष्टि का परिचय देती है.
सबसे पहले इस कृति के शीर्षक से ध्वनित संकेत पर ही विचार कर चलते हैं. इस कुछ बड़े से नाम-धाम को लेकर यह संकेत लेना उचित नहीं होगा कि यह बुंदेलखंड- समग्र- संधान है. जैसाकि कृति के अनुशीलन से प्रकट होता है , यह प्रधानतया लेखक के समय-समय पर लिखे आलेखों, शोध सन्दर्भों का एक सुचिंतित संग्रह है. यूं तो इसमें बुदेलखंड के इतिहास, भूगोल, समाज, कला और लोक जीवन की झांकी भी विद्यमान देखी जा सकती है किन्तु यह कोई इस भूखंड के सम्पूर्ण साहित्य और संस्कृति का समाहार नहीं है. मैं इस प्रकार स्वयं भी अपने इस संशय का समाधान कर चल रहा हूँ कि इसमें मैथिलीशरण और सियाराम शरण गुप्त हैं तो तुलसी क्यों नहीं हैं और केशव हैं तो उनके राजदरबार (हरदौल, राय प्रवीण सहित) की झलक क्योंकर नहीं है.
यह एक विडम्बना ही है कि एक हजार वर्ष से भी अधिक पुरातन भारतीय सनातन और लोक संस्कृति का प्रतिनिधि परिक्षेत्र इतिहास, साहित्य, कला और संस्कृति के पहरेदारों की इतनी बड़ी उपेक्षा का शिकार बना रहा. स्वयं इस समीक्ष्य कृति के लेखक श्री बरसैंयां जी ने अनेक रचनाकारों (उदाहरणार्थ तुलसी के समकालीन विक्रम कवि पुस्तक प्रष्ठ ४१) की खोज की है जिन्होंने अनेक उत्कृष्ट कविता साहित्य का संसर्जन किया. जगनिक के आल्हा के साहित्यिक प्रमाणांकन और दीवान प्रतिपालसिंह के १२ खण्डों के बुंदेलखंड के इतिहास की जानकारी भी ऐसा ही दुर्लभ कोटि का अभिदाय है जिसके लिए लेखक अनेकशः साधुवाद का पात्र है.
पुस्तक के अध्यायों को अनुशीलन की दृष्टि से निम्न पांच श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
१, बुंदेलखंड का लोक साहित्य और इतिहास – इस शीर्षक के अंतर्गत मुख्यरूप से निम्न दो अध्याय रखे जा सकते हैं- १. आल्हागाथा के रचयिता कवि जगनिक और परमाल रासो २. लोक ईसुरी का धार्मिक एवं दार्शनिक चिंतन. आल्हागाथा बुंदेलखंड के लोक जीवन में इतनी भीतर तक पैठ करती है कि यदि उसे भुलाया जाता है तो इस क्षेत्र की सही पहचान असंभव है. किन्तु इतिहास और साहित्य दोनों ने इसकी उपेक्षा की है. इतिहासकार इसे अतिरंजित लोक कल्पना कहते हैं तो साहित्यकार के लिए कवि जगनिक की प्रमाणिकता का प्रश्न शेष रहता है. डा. बरसैंया जी ने अपने अध्ययन और शोध के आधार पर इसकी एतिहासिकता और साहित्यिक पुनर्मूल्यांकन कर अपनी क्षमता का सदुपयोग तो किया ही है, अपनी जन्मभूमि का भी ऋण चुकाया है. वस्तुतः पृथिवीराज रासो और आल्हाखंड दोनों का इतिहास और साहित्य में महत्व समान ठहरता है तथा यदि इसकी पूर्व में उपेक्षा हुई है तो अब समय की धारा इस अन्याय का प्रतिकार भी करे.
इसी शीर्षक में ईसुरी को उनकी लोक- संवेदना के संस्पर्श की क्षमता के कारण रखा गया है. जैसा कि लेखक ने भी प्रतिपादित किया है, ईसुरी अपने दर्शन में कबीर और तुलसी तथा भक्तिरस में सूरदास से तुलना किये जाने योग्य हैं. उनके द्वारा शरीर को ‘किराए के मकान’ की संज्ञा देना जितना मौलिक है उससे अधिक उसकी वह सनातन भारतीय दार्शनिकता है जो उसे जीवन के मिथ्यात्व से परिचित कराती है. लेखक के अनुसार-
‘ ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या’ सूत्र की पुष्टि इन पंक्तियों ( बखरी रैयत है भारे की, दई पिया प्यारे की ) से होती है. माता-पिता, भाई-बंधु, बेटा-बेटी-पत्नी, धन-दौलत कुछ भी और कोई भी साथ जाने वाला नहीं है....इस संसार से पार लगानेवाला केवल ईश्वर है.’ (प्रष्ट ६७)
२. बुन्देली साहित्य का इतिहास – इस शीर्षक के अंतर्गत तीन अध्याय लिए जा सकते हैं-१ बुन्देली के प्रमुख प्राचीन कवि २. बुन्देली का प्राचीन साहित्य और इतिहास ३ . बुन्देली के रचनाकार ग्रन्थ : बुन्देली रचनाकारों का विश्वकोश. इस प्रसंग में लेखक ने अपने मूल प्रबंध ‘बुंदेलखंड के अज्ञात रचनाकार’ का उल्लेख कर यह प्रकट कर दिया है कि इस दिशा में उसका अपना मूल अभिदाय कितना है. यहाँ यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि बुंदेलखंड में साहित्य सृजन केवल बुन्देली भाषा में ही नहीं खड़ी बोली में भी प्रचुर पैमाने में हुआ है तथा वह अपनी रचनाशीलता, गति और परिमाण के आधार पर हिन्दी साहित्य में विशेष स्थान प्राप्त करने की क्षमता रखता है.
३. बुंदेलखंड का इतिहास – १. दीवान प्रतिपाल सिंह और उनका बुंदेलखंड का इतिहास. लेखक के अनुसार- ’९० वर्ष पूर्व इतिहास का लिखा जाना जितनी बड़ी ऐतिहासिक घटना थी अब सन् २०१० में उसका समग्र प्रकाशन भी उतनी ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है’. (प्रष्ट ५२ )
४. बुन्देली का लोक साहित्य – साहित्य के विद्यार्थी यह प्रश्न उठा सकते हैं कि लोक गीत, लोक व्यंग्य और लोक गाथा में कितना साहित्य है. इसके लिए उन्हें इस पुस्तक के इन तीन अध्यायों - १. लोककवि ईसुरी की फागों में सराबोर राधा-कृष्ण २. बुन्देली गीतों में रामकथा ३. बुन्देली कविता में व्यंग्य. को पढ़ना चाहिए. वास्तव में ईसुरी की सामर्थ्य अपार है. यहाँ इस पुस्तक से एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा-
‘मनुआ को सम्मन है आयो, बूडे बार दिखायो
दूजो सम्मन है जवानगी, दांत हिलत जब पायो
तीजो सम्मन लाठी लेके, कम्मर दर्द करायो
कात ईसुरी तऊ न चेते, सोई वारंट पठायो’ (प्रष्ट ६८)
यह एक चमत्कार ही है कि लोक जीवनी भी प्रशाकीय शब्दावली को इतना पैना कर जीवन-सन्देश में ढाल सकती है!
५. क्षेत्रीय पुरातत्व और सांस्कृतिक समाहार – इस श्रेणी में १. डोलते-बोलते पाषाण –खजुराहो २. अहार और खजुराहो के मंदिरों में गहोहियों का योगदान ३. क्या गहोई और जैन कभी एक थे? आयेंगे. खजुराहो पर कला, संस्कृति, इतिहास, तंत्र और सौंदर्य आदि अनेक दृष्टियों से बहुत लिखा गया है. इस पुस्तक के लेखक द्वारा प्रस्तुत एक झांकी बहुधा द्रष्टव्य है-
‘ विविध मुद्राओं वाली अलौकिक नर्तकियां देवताओं की अनुचरियों के रूप में अंजलि में पद्म, दर्पण, घट, वस्त्रालंकार, आदि भेंट लिए अपने को विवस्त्र करती, अंगड़ाई लेती, प्रष्ट भाग को नखों से खरोंचती, पयोधरों का स्पर्श करती, बहती वेणी से जल निचोड़ती, पैरों से काँटा निकलवाती, पालित पशु पक्षी से क्रीडा करती, पत्र लिखती, वीणा अथवा बंशी बजाती, दीवार पर चित्रांकन करती, पैरों में महावर रचाती, नूपुर बंधवाती, नेत्रों में सुरमा अथा काजल लगाती, कंदुक क्रीडा करती कमनीय और संपुष्ट युवतियों का चित्रांकन देखते ही बनता है.’ (प्रष्ट ९७)
६. परिशिष्ट – १. मैथिलीशरण गुप्त और उनकी ‘भारत भारती’ २. श्री सियारामशरण गुप्त . इन दो आलेखों को मैंने इसलिए परिशिष्ट भाग माना है क्योंकि ये दोनों कवि बंधु मूलतः खड़ी बोली के साहित्य सिद्ध कवि हैं. क्षेत्र की दृष्टि से इनका चयन करते हुए क्या बाबू वृंदावनलाल वर्मा तथा विजावर के कविराज बिहारीलाल का स्मरण योग्य न होता ? किन्तु यह भी स्पष्ट ही है कि यह कोई प्रबंध ग्रन्थ नहीं है.
पुस्तक में कुछ पुनरावृत्तियाँ और मुद्रण त्रुटियाँ अवश्य शेष रह गयी हैं जिनका आगामी संस्करण में परिष्कार कर लेना उचित होगा.

 


पुस्तक शोध, इतिहास दर्शन और हिन्दी साहित्य में बुन्देलखंड अंचल के उचित समाहार की दृष्टि से अपरिहार्य है. ३५ ईडन गार्डन, कोलार रोड भोपाल १६

 

 

 

कृति- बुंदेलखंड का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य
कृतिकार- डा. गंगाप्रसाद गुप्त ‘बरसैंया
प्रकाशन- सन्दर्भ प्रकाशन, अलोपीबाग, इलाहाबाद
मूल्य- रुपए- २५०/ मात्र

 

 

 

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