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सांध्यपथिक की समीक्षा

 

पुस्तक समिक्षा सांध्यपथिकलेखक-सूरज सिंह नेगीप्रकाशक प्रकाशन वर्ष 2022
पृष्ठ संख्या-234
मुल्य रूपै 450
विषय- वृद्ध विर्मश
सूरजसिंह नेगी जी की पुस्तक सांध्य पथिक समाज की ज्वलन्त समस्या (वृद्धों की समाज में स्थिती और समाज की सोच) ’’ को लेकर लिखा एक सार्थक प्रमाणित दस्तावेज है। जो भले एक उपन्यास रूप में घटनाओं को जोड़ते हुए निरूपित किया गया हो। इसकी कड़ी दर कड़ी घटनायें वास्तविकता का अहसास कराते हुए पाठको में इसकी रोचकता बनाये रखने में सहायक हैं।
इस पुस्तक को पढते समय....समाज का एक प्रचलित लोक गीत
’’मुबारक हो मुबारक हो कि घर में लाल जायें हैं कि दादा दान बहुत किन्हा कि दादी पुन्य बहुत किन्हा’’।
इस मधुर गीत का एक एक शब्द झूठा भ्रम प्रतीत होता है।
उपन्यास के मुख्य पात्र सोम बाबु जिनके हाथ में कथा की बाग ड़ोर है। वह अपनी सोच, संवाद और विचारों से कथा को जिवंत बनाये रखते हैं। उनकी पत्नी श्रद्धा उनकी सहधर्मिणी हैं और वहीं है जो सोमबाबु का उनकी ही तीन पीढियों के साथ तारतम्य स्थापित रखें हुए है। गोपाल, त्रिवेदी जी, गिरीश नन्दलाल आदि ये इस उपन्यास के पात्र नहीं हैं वरन घटनाओं का ताना बाना हैं, इस पीठी व समाज की सोच के चैहरे हैं।
लेखक श्रीमान नेगीजी ने समाज में दोनो पीढी की सोच को निश्पक्षता से रखा है।समस्या को बताते समाधान सुझाते कथानक अग्रसर है।
कथा के तारतम्य के दौरान जीवन में अपनी सेवानिवृति की बेला में अपने आगत से भयभीत सोम बाबु के द्धारा सरकारी कर्मचारियों की सोच, प्राईवेट कर्मचारियों की नौकरी की अनिष्चित का सुन्दर चित्रण। सरकार अधिकारियों की सीमाएं। इसको निश्पक्ष वही लिख सकता है जो स्वयं इस तरह की परिस्थिीतियों को नजदीक से देख चुका हो।
असमय नौकरी का जाना,और जिम्मेदारियों का पूरा न कर पाना। यह दौनो ही एक कर्तव्य निष्ठ कर्मचारी और एक सदगृहस्थ मुखिया के लिये डरावने विषय हैं ।वहीं एक कडुआ सच भी है। गोपाल जैसे पात्र हैं जो समाज की संवेदनशील छवी बनाये रखने हेतु ही अभी मैाजूद हैं जो बताते हैं कि अंधेरे के बीच उजाले की किरण अभी बाकी है।बेबस हुऐ वृद्ध त्रिवेदी जी जैसे लोगो के निरूत्तर प्रश्न ’’क्या वृद्धों के लिए समाज में कोई जगह नहीं जहाँ वह मान सम्मान से रह सकें? क्योंकि वह अपने ही घर में अपनों के मीठे बोल सुनने के लिये तरस रहे हैं।
कुछ मन को झकझोरते सच। इस उम्र में वृद्धों के पास समझोता करने के अलावा कोई उपाय है ही कहाँ। वृद्धाश्रम में अपनों को एक नजर देखने को तरसती आँखें। आत्मा राम जैसे वृद्ध जो समाज की नजरों से पुत्र रत्न पाने के सपने का भ्रम मिटाते नजर आते हैं।
पूरे कथानक का सटीक वाक्य जब तक आप काम के हैं, तभी तक रिश्ते नाते हैं बे कामके होते ही समाज परिवार का असली चैहरा सामने आ जाता है।
उम्र के उस दौर में जब संवेदनाये अधिक असर करने लगती हैं। छोटी छोटी बातें दिल पर असर करती हैं। तभी समाज में सोमबाबु जैसे कर्तव्यनिष्ठ लोग मिलेंगे जो दूसरों की दशा देखकर स्वयं का भी आंकलन करने पर मजबूर हो जाते हैं।
नन्दलाल जैसे लोग जो असमय नौकरी से हाथ धो बैठे उनकी जिम्मेदारियों का क्या, सपनो का क्या, बच्चों के बिगड़ते भविष्य के लिये चिन्ता में बिमार होते माता पिता।
गिरीश प्रसाद जी जैसे लोग जो पेन्शन के लिये चक्कर काटते नजर आ ही जायेंगे। सरकार की सेवा करने के पश्चात पेन्शन जैसी प्रक्रिया स्वतः ही हो जानी चाहिए। उसकी प्रकिया में इतनी जटिलतायें सोचने का विषय है।
अपनी थोडी सी पूंजी को भी सरकारी आँफिस के बाबुओं को रिश्वत की भेट चढाने जैसे अनेक उदाहरण दिख जायेंगे।
सेवा निवृत के पश्चात अपनी जमा पूंजी को अपनो पर ही खतम कर घर से अपनों से प्रताडित जब शांति के लिये वृद्धाश्रम में प्रवेश करते हैं तब मानसिक तौर पर सभी के हालात एक जैसे होते है। उस दौरान वहाँ रह रहे लोगों के साथ नये सिरे से समझोत और तालमेले बिठाने जितना धैर्य जिसका नितान्त अभाव और उसके कारण उपजी समस्यायें। और थोडे घर्षण के पश्चात बनते आत्मिक रिश्ते।
सुशीला के बच्चे इतने निष्ठुुर कैसे?यह प्रसंग हमें बताता है. कि अपनी उम्र के जोश मे, अपने हीं भविष्य से अन्जान इस पीढी के पास वर्तमान में कोई आदर्श न होने के कारण यह पीढ़ी अपने मार्ग से डिगती नजर आ रही है। उनका असंतुलित वर्तन व व्यवहार, अमानविय सोच समाज के प्रति एक जटील समस्या बनता जा रहा है।
यजुर्वेन्द्र शा़स्त्री जैसे अपनी करनी पर पछतावा करते हैं। फिर बार बार समाज के चलन को देख कर मन को मनाते हैं। उनको अपने परिवार का प्रेम जिसे वह समझ न पाये रह रह कर याद आता है। कभी कभी सही गलत की पहचान न कर पाने के कारण समस्यायें उत्पन्न होती हैं।
सरकारी दफतरों में जीवन प्रमाण पत्र जैसे सरल काम को जटिल करते बाबु । और सोमबाबु के मन में उमडते प्रश्न ’’सेवा निवृति के समय को नजदीक पा कर बार बार मन में उठते सवाल ’’क्या अब वैसी आजादी नहीं रहेगी निर्भर रहना होगा। सोम बाबु द्धारा विदाई समारोह पर दिया गया उदबोधन....।
यूं देखा जाये तो आज की इस पीठी के पास अनेक समस्यायें हैं। जिनका कारण उनकी अपनी बदली जीवन शैली और प्राथमिकताओं में भिन्नता। यह समस्या का एक कारण भी है।
दस अध्यायों में सिमेटा हुआ यह उपन्यास वृद्धों को लेकर समस्याओं और समाधान की बात भी करता है।
मां बाप का उपकार उनका फर्ज है या हम पर कर्ज यह बहस का विषय नहीं है। आज हम विचार करें तो हम घर में लगे पेड़ पौधों, पालतु जानवरों तक से प्रेम करते हैं तो वृद्ध माता पिता से क्यो नही ंकर पाते ।
यह सच है कि धनी और सुविधा सम्पन्न हमारी युवा पीठी अन्दर से भावनात्क रूप से खेाखली होने लगी है ।
सेामबाबु का अपने गांव की ओर प्रयाण वहाँ के सकून भरे जीवन को समझाना, इस उम्र में अपना बचपन याद आना बचपन के साथियों से मिलना। माता पिता को याद करना अपनी भूलों पर पछताना बहुत कुछ है जो मेरे मन को विचलित करता रहा। रात को सोते समय भी याद आता रहा । मेरा मानना है कि रामचरित मानस में रूचि और उससे जुड़कर भी समाधान को खोजा जा सकता हे।
शहरों में गांवो की अपेक्षा यह समस्या अधिक नजर आती है। संभवतः इसका कारण गांवों के घर माता पिता द्वारा निर्मित हैं । मात पिता की गृहस्थि है। घरों के आकर बडें हैं । पास पडौस के लोगों का अभी डर बाकी है। घर में बडी महिलाओं का सम्मान बाकी है ।
बात जो समझने योग्य है वह ये है कि वक्त ही तो मां बाप का एक दूसरा रूप है जो सब कुछ सिखा देता है।
पुस्तक पढ़ कर आने वाली पीढ़ी को अपनी भूलों का अहसास हो अथवा थोड़ा विचार करे । अपने संस्कारों पर अपना ध्यान केन्द्रित भी करे तो पुस्तक की सार्थकता होगी।
अंत में, यह केवल एक वाक्य नहीं है कडवी सच्चाई है कि अनेक धर एैसे होंगे जहाँ पर अपनी जीवन संध्या की और बढ रहे माता पिता अपने जीवन के उस क्षण को कोसते हुये मिट जायेंगे जब उन्होने इन नालायक बेटों को जन्म दिया।
इस भौतिकवाद का सबसे अधिक प्रभाव मानविय रिश्तों पर पड रहा है।बुुढ़ मां बाप संतान के रहते बेहद जिल्लत भरी जिन्दगी जीने को मजबूर हैं। यह नहीं है कि इन एकल परिवारों में बड़ो़ं केा घर में न रखकर युवा पीढी स्वयं सुखी है। बल्कि पति पत्नी के बीच कलह, बच्चों का उग्र व्यवहार और तलाक ये सभी इस समस्या से जुडे हैं।
क्योंकि भारतीय परिवारों में परम्परा, परिवेश और आधुनिकता में जंग छिडी है।
पुस्तक सांध्य पथिक एक सुगठित सोच के साथ घटनाओं की क्रमबद्ध रचना है। समाज के सामने इस समस्या को नये ठंग से उठाने का सुन्दर प्रयास है। अभी भी बहुत कुछ है जो पुस्तक के लिये लिखा जा सकता है।
वास्तव में पुस्तक को पढ कर कहीं कहीं मैं समिक्षक के स्थान पर अपने विचारों को वयक्त करने लगी हुँ क्योंकि यह विषय बहुत विस्तृत है।
 समिक्षक प्रभा पारीक




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