Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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दुविधा में राम (प्रथम अंश )

 

दुविधा में राम

महाराज दशरथजी ने दर्पण में अपना मुखड़ा देखा| देखा कि कानों के पास के केश सफ़ेद हो गए है| समझ गए कि उन्होंने वृद्धावस्था में प्रवेश कर लिया है| तभी उन्हें अपने पिता रघु जी की याद हो आयी| वृद्धावस्था में प्रवेश करने के साथ ही उन्होंने मेरा राज्याभिषेक कर दिया था| मुझे भी अब अपने चारों पुत्रों में से किसी एक का चुनाव कर उसे राज्य का प्रभार सौंप देना चाहिए| उन्हें अब भी याद है कि कैकेई से विवाह करने से पूर्व, उन्होंने अपने स्वसुर अश्वपति को वचन दिया था कि कैकेई से उत्पन्न पुत्र ही अयोध्या का अधिपति होगा| लेकिन यह तब की बात है, जब वे निःसंतान थे| आज उनके एक नहीं, बल्कि चार-चार पुत्र हैं| सभी ने एक साथ जन्म लिया है| सभी ने एक साथ विद्या पायी है| सभी में राजा बनने के योग्यता है| चारों में से किसी एक को ही राजा बनाया जा सकता है?| यह सोचकर उन्होंने बारी-बारी से चारों पुत्रों के गुण-धर्मों की विवेचना करना प्रारंभ किया, सबसे पहले उन्होंने शत्रुघन, फ़िर लक्ष्मण, और भरत के गुणों की विवेचना की और अंत में राम की| राम को उन्होंने सर्वोत्तम पाया और निश्चय कर लिया कि महारानी कौसल्या के गर्भ से उत्पन्न राम का राज्याभिषेक कर दिया जाना चाहिए|ऐसा शुभ विचार मन में आते ही उन्होंने अपने सखा- मंत्री सुमन्त्र से कहा कि वे राम को सादर लिवा लाएं|
राजसिंहासन पर विराजमान महाराज दशरथ ने अपने प्रिय पुत्र राम, जो गंधर्वराज के समान तेजस्वी, चंद्रमा से भी अधिक कांतिमान, मन को मोहित कर देने वाले, किसी मतवाले हाथी-की-सी चाल में चलकर आते हुए देखा| अपने प्रिय पुत्र राम को देर तक टकटकी लगाए देखते रहने के बाद भी उन्हें तृप्ति नहीं हो रही थी| अपलक वे राम की छवि को लगातार निहारते रहे थे| अपने दिव्य रथ से उतरकर राम जी तथा सुमन्त्र जी ने महाराज के कक्ष में प्रवेश किया| तदनन्तर, अपने दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम निवेदित किया|
राम ने पुनः एक बार फ़िर विनीत भाव से अपने पिताश्री को प्रणाम किया| और अत्यन्त ही मधुर वचनों में कहा-- " पिताश्री, आपके श्रीचरणॊ में आपका पुत्र राम, अपना प्रणाम निवेदित करता है| मेरे लिए क्या आज्ञा है?, कृपया यथाशीघ्र कह सुनाएं, उसे शीघ्रता से पूरा करने के लिए मैं आपके सन्मुख उपस्थित हूँ| कृपया आदेश देने की कृपा करें|” ऐसा कहते हुए उनके दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में आपस में जुड़ आए थे|
उन्होंने राम के दोनों हाथ पकड़ लिए और पास खींचकर अपनी छाती से चिपका लिया| जिस परह समुद्र की लहरें उछाल मार कर आकाश को छूना चाहती है, उसी प्रकार महाराज के हृदय में प्रेम समाए नहीं समा रहा था| अपने प्रिय पुत्र को बाहों में भर कर छाती से लगाए रखने के बाद, उन्होंने राम को अपने पास बैठने का संकेत किया और स्नेह से सिर पर हाथ फ़िराते हुए कहा- " पुत्र, राम! तुम धन्य हो, धन्य है तुम्हारी माँ कौसल्या जिसके गर्भ से तुम्हारा जन्म हुआ है| तुम अपनी माता के अनुरूप ही उत्पन्न हुए हो| मुझसे भी बढ़कर तुममें अनेक उत्तम गुण है, तुम गुणॊं की खान हो राम|” बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने पुल्कित होते हुए कहा"- "राम!| मेरे चारों पुत्रों में तुम ज्येष्ठ हो| रघुकुल में सदा से यही रीति चली आई है कि ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य के संचालन का अधिकारी होता है| अतः मैंने निर्णय ले लिया है कि तुम्हें राजगद्दी सौंपकर निश्चिंतता से अपना शेष समय परिवार के साथ बिताऊँ| मैं राज कारणॊं से उनके लिए समय नहीं निकाल पाता था |”
"फ़िर तुम्हारे तीनों छॊटे भाई तुम्हें अपने प्राणॊ से भी ज्यादा स्नेह रखते हैं| उनके प्रति तुम्हारा अनुराग भी किसी से छिपा नहीं है| तुम एक पल भी अपने अनुजों से दूर नहीं रह पाते हो| तुमने अपने गुणों से प्रजाजनों को भी सम्मोहित कर रखा है| समस्त प्रजा तुम्हें राजा के रूप में राजसिंहासन पर बैठा देखना चाहती है| समस्त आर्यावृत्त में कोई भी ऐसा राजा नहीं है, जो तुमसे विरोध करता हो| उन सभी का एक ही मत है कि राम ही अयोध्या के राजा बनें |”
इतना कहकर महाराज अचानक चुप हो गए थे और कनखियों से राम के चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगे थे| प्रस्ताव पिताजी की ओर से आया था| जवाब राम को देना था| वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि पिताश्री को क्या जवाब दिया जाना चाहिए, जिससे वे संतुष्ट हो सकें, प्रसन्न हो सकें|
उन्होंने पिताश्री के एक-एक शब्द को ध्यान से सुना था| हर शब्द में मधु-सी मिठास थी| हर एक शब्द में गहरा प्रेम हिलोरे ले रहा था| बोलते समय उनका शरीर रोमांचित हो उठा था| आँखें सजल हो उठी थी| वे और भी बहुत कुछ कहना चाह रहे थे, लेकिन प्रेम के अतिरेक के चलते शायद शब्द तालु में आकर अटक गए थे|

दुविधा में राम

राम जी ने गहरी चुप्पी साध ली थी| और वे अपने भीतर गहरे उतरकर इसका उत्तर खोजने का प्रयास करने लगे थे|
पिताश्री का प्रस्ताव तो एक था, लेकिन उससे जुड़ने वाले अनेकों प्रश्न थे| राम के मन में एक नहीं बल्कि अनेकों प्रश्न उठ खड़े होने लगे थे| वे सोचने लगे थे- " कल तक तो सब ठीक-ठाक था| राजपाट को लेकर कोई चर्चा तक नहीं हुई थी और न ही किसी कोने से कोई ऐसी सुगबुगाहट तक सुनाई दी थी| फ़िर अचानक, रात भर में ऐसा क्या हो गया कि पिताश्री ने मुझे सुबह-सुबह बुला भेजा और राजकाल संभालने का आग्रह करने लगे| ऐसा तो नहीं कि राजमहल में कोई ‍षड़यंत्र रचा जा रहा हो?"
"कहीं ऐसा तो नहीं कि माता कैकेई ने भरत को राज प्रभार सौंप देने के लिए महाराज को विवश किया हो? यदि ऐसा भी है तो वे भरत के समर्थन में ही खड़े रहेंगे| उनके विरुद्ध अपना कोई दावा भी प्रस्तुत नहीं करेंगे| वे खुद चाहते हैं कि भरत ही राजगद्दी पर बैठें| वे इसके लायक भी हैं| फ़िर राजपाठ को लेकर, वैसे भी मेरे मन में कभी कोई विचार तक नहीं आया| शुरु से ही इसमें मेरी कभी कोई विशेष रुचि भी नहीं रही है |”
"फ़िर हम चार भाई हैं| भले ही हम अन्य माताओं के गर्भ से उत्पन्न हुए हों, भले ही शरीर से हम संख्या में चार हैं, लेकिन सभी में एक ही आत्मा है, हमारा एक-दूसरे के प्रति आपस में अनन्य प्रेम है, हमारा विशेष लगाव है| हम पल भर को भी अलग होने की कल्पना तक नहीं कर सकते, फ़िर तीन अन्य भाईय़ों के रहते, केवल मुझसे ही क्यों कहा जा रहा है कि मैं राजगद्दी पर आसीन हो होऊँ? यह उचित प्रतीत नहीं होता |”
"राम,! तुम चुप क्यों हो? तुमने अब तक मेरे प्रस्ताव पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है? क्या तुम्हें अपने पिता पर विश्वास नहीं है? क्या मेरा प्रस्ताव उचित नहीं है? क्या तुम इस प्रस्ताव से प्रसन्न नहीं हो ? आखिर तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, मैं भी तो जानूँ, मैं जानना चाहता हूँ कि वह कौन-सी दुविधा है, जो तुम्हें ऐसा करने से रोक रही है? जब तक मुझे बतलाओगे नहीं, तब तक उसका निराकरण कैसे किया जा सकता है?| मैं इस साम्राज्य का राजा होने के साथ ही तुम्हारा पिता भी हूँ| एक राजा यही चाहता है कि उसका उत्तराधिकारी एक सुयोग्य पात्र हो, जिसमें राजा बनने के सभी गुण विद्यमान हों, मैंने वे सारे गुणसूत्र तुममें ही देखें हैं, तुम ही राजगद्दी के सही उत्तराधिकारी हो, बोलो राम! बोलो, क्या तुम अपने पिता की एक छॊटी-सी प्रार्थना स्वीकार नहीं करोगे?|” कहते हुए उनके नेत्र रामजी के चेहरे पर जा टिके थे|
"पिता श्री,आप ये क्या कह रहे हैं?, पिता अपने बेटों से प्रार्थनाएँ नहीं किया करते, वे आज्ञा देते हैं और हर पुत्र को पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करना चाहिए| आपने एक राजा होने के नाते उचित निर्णय लिया है, एक पिता होने के नाते आपने अपने स्वधर्म का पालन ही किया है |”
"मैं आपसे क्षमा चाहते हुए कुछ कहना चाहता हूँ| मेरे मन में केवल एक ही दुविधा है| हम चार भाई हैं, हम चारों ने एक ही दिन जन्म लिया है| सभी की उम्र लगभग एक-सी ही है| अन्य तीन भाईयों को छॊड़कर, केवल मुझे ही राज्य का उत्तराधिकारी क्यों बनाया जा रहा है?| भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न भी तो उतने ही योग्य और राज्य के कुशल संचालक हैं| फ़िर समझ में नहीं आ रहा है, कि मुझ अकेले का चुनाव क्यों किया गया?| शायद यही कारण है कि मेरा मन आपके इस प्रस्ताव को मानने से मना कर रहा है| क्या यह संभव नहीं है कि हम चारों भाईय़ों को चार दिशाओं का प्रभार देकर, राज्य का प्रभारी बना दिया जाए? यदि ऐसा किया गया तो, किसी के भी मन में कोई पछतावा जैसी चीज नहीं रह जाएगी| सभी अपने-अपने क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व कर, प्रजाजनों की यथाशक्ति देख-रेख कर सकेगा|” राम ने अपने पिताश्री से कहा|
"पुत्र राम! मैं तुम्हारी मनोदशा को अच्छी तरह से समझ रहा हूँ| तुम्हारा भातृ-प्रेम भी मुझसे छिपा नहीं है| तुम्हें राजपाट से तनिक भी मोह भी नहीं है, यह भी मैं जानता हूँ, लेकिन केवल बड़े पुत्र को ही राजगद्दी पर बिठाए जाने की परम्परा हमारे कुल की रही है| एक राजा होने के नाते, तुम अपने अनुजों से उन सभी कार्यों को सुचारु रुप से संचालित करवा सकते हो, वे भी एक राजा के प्रतिनिधि के रूप में अपने को राजा ही समझेंगे| ऐसा मेरा विश्वास है|”
"जहाँ तक भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के बारे में जो तुम जो सोच रहे हो, वह सोच उचित ही है| मुझे विश्वास है कि वे कभी भी तुम्हारे युवराजपद पर बैठने का विरोध नहीं करेंगे| शत्रुघ्न जैसा उसका नाम है, अपने नाम के अनुरूप वह शत्रुओं का पल भर में विनाश कर सकता है| लक्ष्मण में भी इतनी शक्ति है कि वह पल भर में समूची पृथ्वी को किसी चंडुक (गेंद) की भांति उछालकर, आकाश में फ़ेंक सकता है| रही बात भरत की, तो वह शुरु से ही ठहरा साधु प्रवृत्ति का| उसे तनिक भी राजपाठ से कोई मोह नहीं है| सभी तीनों भाईयों का आपस में उत्कट प्रेम है, और वह प्रेम तुममें आकर समाहित हो जाता है| मुझे तीनों पर पक्का भरोसा है कि| वे तीनों ही तुम्हारे अनुशासन में रहकर राजकाज में सहयोग ही करेंगे| मुझे कहीं से कहीं तक नहीं लगता कि वे तुम्हारे विरोध में उठ खड़े होंगे| अतः एक ज्येष्ट पुत्र होने के नाते, तुम मेरे इस प्रस्वाव को सहर्ष स्वीकार करो| इसी में हम सबकी भलाई है|”
"सभी मंत्री, महामंत्री तथा सभी सभासदों ने भी एक ही स्वर में तुम्हें राज्यप्रभार सौंप देने के लिए मुझसे निवेदन किया है| वे तुम्हें ही राजा के रूप में देखना चाहते हैं| रही बात प्रजा की, तो समस्त अयोध्यापुरी के प्रजाजन भी केवल और केवल तुम्हें ही राज्यप्रभार सौंप देने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं|”
"तुम्हें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि राजकाज करते हुए मेरी उम्र हो चली है| एक तरह से मैं अब थक-सा भी गया हूँ| तुम्हें राजगद्दी सौंपकर मैं निश्चिन्तता से अपना सारा समय परिवार को देना चाहता हूँ| काम की अधिकता से मैं उन्हें कभी ज्यादा समय नहीं दे पाया| फ़िर मेरी एक नहीं, चार-चार पुत्रवधुयें है, उनसे उत्पन्न पोतों के साथ खेलते हुए मैं समय बिताना चाहता हूँ| एक राजा बनने के सारे गुण तुममें विद्यमान हैं|कि प्रजा को कैसे प्रसन्न रखा जाता है,यह तुम भली-भांति जानते हो| तुम बलशाली होने के साथ ही, उतने ही विनीत भी हो| कल पुष्य नक्षत्र है, अतः कल तुम युवराज का पद ग्रहण करो और राजगद्दी पर बैठकर सुखपूर्वक प्रजा का पालन करो|”
"मैंने वशिष्ठ जी से प्रार्थना की है कि वे तुम्हे उचित परामर्श देंगे| उनकी हर बात तो ध्यान लगाकर सुनना और उसी के अनुसार तुम और बहू सीता को उपवास-व्रतादि करना होगा|” महाराज दशरथजी ने कहा|
"जी,जैसी आपकी आज्ञा" कहते हुए राम ने अपने पिता को प्रणाम किया और अपने महल की ओर चल दिए|
सभी पुरवासियों के चले जाने के बाद महाराज दशरथ ने पुनः मंत्रियों को बुलाकर अपने निश्चय को दोहराते हुए कहा- "कल पुष्य नक्षत्र है, कल प्रातः मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र राम का राज्याभिषेक करने जा रहा हूँ| कृपया एक बार फ़िर ध्वनिमत से मेरे प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति दें| अब भी कुछ बना-बिगड़ा नहीं है| अब भी समय है, मेरे इस प्रस्ताव को लेकर यदि किसी के मन में कोई शंका-कुशंका या असहमति हो हो तो कृपया मुझसे निःसंकोच कहें|”
सभी मंत्रियों ने एक स्वर में अपने महाराज के प्रस्ताव पर अपनी सहमति व्यक्त की और कहा-"महाराज, राम को भला कौन नहीं चाहता?| सभी उनसे अनन्य प्रेम रखते हैं| एक राजा बनने के सारे गुण राम में विद्यमान हैं| वे केवल हमारे ही नहीं बल्कि समस्त प्रजाजनों सहित संपूर्ण आर्यावृत्त को स्वीकार हैं| अतः आप निश्चिंतता से उनका राज्याभिषेक कीजिएगा|”
सभी मंत्रियों की सहमति पाकर महाराज ने अपने सुयोग्य मंत्री सुमन्त्र से कहा कि वे राम को पुनः सादर दरबार में लेकर आएं|
द्वार पर उपस्थित द्वारपाल ने राम को सुमन्त्र के पुनरागमन की सूचना दी| सुमन्त्र का दुबारा आना, उनके मन में संदेह का बीज बो गया| वे समझ नहीं पा रहे थे, आखिर पिताश्री मुझसे और क्या चाहते हैं?| कोई न कोई ऐसी बात जरुर है, जिसे वे अब भी खुलकर नहीं कह पा रहे हैं?| आखिर वह कौन-सी बात है, जिसे न तो वे सार्वजनिक ही कर पा रहे हैं और न ही मुझसे खुलकर कह पा रहे हैं?| जरुर कोई न कोई ऐसी बात अवश्य है जो उनके मन में काँटॆं की तरह चुभ रही है;मुझे उस बात की तह तक जाना होगा, जिसको लेकर वे अब तक व्यथित हो रहे हैं|
रामजी ने सुमन्त्र जी का स्वागत करते हुए कहा- "मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आपको पुनः आना पड़ रहा है| पिताश्री ने तो प्रायः सभी बातें मुझसे कह दी हैं, जो राज्याभिषेक से संबंधित थी| मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि अब और कौन-सी बात वे कहना चाहते है, जिसे वे शायद नहीं कह पाए हों? आप तो उनके परम सखा भी हैं और मंत्री भी| आपको सब ज्ञात होगा ही, कृपा कर शीघ्रता से कह सुनाएं|” रामजी ने सुमन्त्र से कहा|
"राम!महाराज ने केवल इतना भर मुझसे कहा है कि वे आपसे पुनः मिलना चाहते हैं| उनके मन में क्या है, क्या नहीं, यह मुझे नहीं मालुम, लेकिन उन्होंने मुझे आज्ञा दी है कि मैं तुम्हें लेकर उनके समक्ष उपस्थित होऊँ|” सुमन्त्र ने रामजी से कहा|
"जी चलिए"- कहते हुए राम उनके साथ पिता के महल की ओर चल दिए|
महाराज दशरथ ने राम को आता देखा| राम ने अपने पिता के चरणॊं में प्रणाम किया और अत्यन्त ही मधुर स्वर में कहा- "मैं, राम,आपकी सेवा में पुनः उपस्थित हूँ| “मेरे लिए क्या आज्ञा है पिता श्री?” राम उसे यथा शीघ्र पूरा करने का वचन देता है|”
झुककर प्रणाम करते हुए राम को महाराज ने अपनी दोनों बाहें फ़ैलाते हुए छाती से लगा लिया| देर तक अपनी छाती से लगाए रखने के बाद उन्होंने राम को अपने कक्ष में चलने को कहा, जहाँ उन दो के अतिरिक्त तीसरा कोई नहीं था|
पिता की सीख
एक आसन पर विराजमान होते हुए उन्होंने राम को भी आसन ग्रहण करने को कहा| जब राम आसन पर विराजमान हो चुके तब उन्होंने कहना शुरु किया| "राम! मैंने संसार के सारे अभीष्ट सुखों को भोग लिया है| मन में उन सुखों को लेकर अब कोई लालसा मेरे मन में नहीं रह गई है| मैंने अपने जीते जी देवताओं, ऋषियों, माता-पिता और ब्राहमणॊ के ऋणॊं से भी उऋण हो गया हूँ| तुम्हें युवराज पद पर अभिषेक करने के सिवाय अब और कोई कर्तव्य बाकी नहीं रह गया है| मैं ही नहीं सारी प्रजा तुम्हें युवराज पद पर प्रतिष्ठित होते हुए देखना चाहती हैअतः तुम्हें मेरी आज्ञा का पालन करते हुए युवराज पद स्वीकार करना ही होगा|”
अपने मन की व्यथा-कथा सुनाते हुए उन्होंने आगे कहना शुरु किया- "राम!| कितने आश्चर्य की बात है कि जिसने देवताओं के आव्हान पर, अनेकों बार दानवों से घनघोर युद्ध कर उन्हें पराजित किया हो, जो स्वयं दस रथों का संचालक हो, जो धर्म के दस लक्षणों- धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, विद्या, सत्य और अक्रोध से युक्त हो, जो बल, बुद्धि और शौर्य में पारंगत हो, जिसने इक्ष्वाकु कुल में जन्म लिया हो, ऐसे धीर- वीर पुरुष को आजकल बहुत बुरे-बुरे सपने आते हैं जो मुझे अन्दर तक हिलाकर रख देते हैं| ज्योतिष्यों का कहना है कि मेरे जन्म नक्षत्र में सूर्य, मंगल और राहु का प्रवेश हो चुका है| उनका यह भी मानना है कि इन दुष्ट ग्रहों की उपस्थिति से मुझ पर घोर आपत्ति आ सकती है या फ़िर मेरी मृत्यु भी हो सकती है| राम! मैंने लंबा जीवन जी लिया है,सारे सुखों को भी जी भर के भोग लिया है| मुझे मरने से डर नहीं लगता, लेकिन मरने से पहले मेरे मन में एक ही अभिलाषा है और वह यह कि मैं तुम्हे युवराज पद सौंप कर निश्चिंतता के साथ स्वर्गारोहण करुँ|"
"आज चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र से एक नक्षत्र पहले पुनर्वसु नक्षत्र में विराजमान है| निश्चित ही कल चन्द्रमा पूर्ण रूप से पुष्य नक्षत्र पर रहेंगे| अतः तुम इस शुभ नक्षत्र में युवराज पद ग्रहण करो| मुझे विश्वास है कि तुम मेरी इस इच्छा को अवश्य पूरा करोगे| मैं चाहता हूँ कि तुम और बहू सीता, सारी रात इन्द्रीय संयम पूर्वक रहते हुए उपवास करो और कुश की शय्या पर सोओ|”
"भरत इस समय अपने मामा के यहाँ गए हुए हैं| मैं चाहता हूँ कि उसके आने से पूर्व तुम युवराज पद पर प्रतिष्ठित हो जाओ| अक्सर शुभ कामों के संपन्न होने से पहले, काफ़ी विघ्नबाधा भी उपस्थित हो जाया करती हैं| जहाँ तक भरत की बात है तो मुझे तनिक भी संदेह नहीं है कि वह आचार-विचार और व्यवहार में कुशल तो है ही, साथ ही वह धर्मात्मा, दयालु, और जितेन्द्रीय हैं| तुम्हारे प्रति गहन अनुराग भी वह रखता है| तुम्हारे बगैर वह एक पल भी चैन से बैठ नहीं पाता है| अतः भरत को लेकर मेरे मन में कोई संदेह नहीं हैं| फ़िर धर्मात्मा, जितेन्द्रीय लोगों के मन में भी कभी-कभी राग-द्वेश और लोभ जैसे दुष्ट विचार अचानक प्रवेश कर जाते हैं| वे कब और कैसे मन-मस्तिष्क पर हावी हो जाते हैं, वे खुद भी नहीं जान पाते हैं| अतः राम! आज की रात तुम्हें काफ़ी सावधानी से बितानी होगी| मेरी मानो, तुम अपने अंगरक्षकों की संख्या बढ़ा दो और अपने महल के चारों ओर सैनिकों को तैनाती भी कर दो|”
पिता की एक-एक बात को वे ध्यानस्थ होकर सुन रहे थे राम| सुन रहे थे कि भरत की अनुपस्थिति में मुझे राज्य का प्रभार स्वीकार कर लेना चाहिए| क्या पिताजी यह नहीं जानते कि भरत और मेरे भले ही दो अलग-अलग शरीर हैं, लेकिन हममें एक ही हृदय धड़कता है?| मेरी हर आती-जाती सांस में भरत होता है| उसकी अनुपस्थिति मात्र से ही मैं बेचैन हो जाता हूँ| पल भर को भी मैं उससे विलग नहीं हो पाता हूँ| भरत केवल मेरा अनुज ही नहीं है, बल्कि मेरी दो आँखे हैं, जिनके माध्यम से मैं संसार देखता हूँ| भरत मेरी दो बाहें है, दो पैर हैं, जिनसे मैं अपने दैनिक कार्य संपादित करता हूँ| इतना सब कुछ जानने और समझने के पश्चात भी पिताश्री के मन में, भरत को लेकर आखिर इतना गहरा संदेह क्यों है?|”
"यह ठीक है कि पिताश्री बूढ़े हो चले है और शारीरिक रूप से कमजोर भी| फ़िर ज्योतिषियों की काल-गणणा के अनुसार जो विपदाएं भविष्य में उन पर आ सकती हैं, उनको लेकर भी उनके मन में एक भय-सा समाया हुआ है, शायद तभी उन्होंने शीघ्रता से यह निर्णय लिया है कि मुझे राज्य का प्रभार सौंपकर, वे निश्चिंतता से अपना शेष जीवन जी सकें| यह उनका अपना निर्णय है कि उन्होंने मेरा चुनाव किया है| लेकिन मेरा राज्याभिषेक भरत की अनुपस्थिति में ही हो, यह बात मेरे मन को गहराई से कचोट रही है|”
"अभी तक मैंने अपनी स्वीकृति नहीं दी है, बावजूद इसके, मंत्रियों से कह दिया गया है कि वे शीघ्रता-शीघ्र आयोजन की तैयारी शुरु कर दें| पुरी को नववधु की तरह सजाया-संवारा जाए| सभासदों से भी यह भी कह दिया गया है कि समस्त पुरी के निवासियों को, इसकी सूचना तत्काल दे दी जाए, कि कल मेरा राज्याभिषेक होने जा रहा है|"
"जैसा की मुझे विश्वस्तसूत्रों से ज्ञात हुआ है कि महाराज ने समस्त आर्यावृत्त के राजाओं को, विशेष दूतों के माध्यम से निमंत्रण भी भिजवा दिया है| लेकिन जानबूझ या फ़िर किसी विशेष कारणों के चलते उन्होंने भरत के मामा जी और मेरी ससुराल जनकपुरी में निमंत्रण नहीं भिजवाया है| इन दो राज्यों को निमंत्रण नहीं भेजे जाने के पीछे महाराज की क्या मंशा है?, इसे भी जानना मेरे लिए बहुत जरुरी है|”
विचारों की श्रृँखला टूटने का नाम ही नहीं ले रही थीं| सवाल बहुतेरे मन में उठ खड़े हो रहे थे, लेकिन कोई भी सूत्र अब तक उनकी पकड़ में नहीं आया था| वे सोचने लगे थे:- "क्या मेरा भरत की अनुपस्थिति में अयोध्या पुरी की राजगद्दी पर बैठ जाना उचित होगा?| माँ कैकेई क्या सोचेगीं मेरे बारे में? क्या वह यह नहीं कहेंगी कि राम तू तो बड़ा स्वार्थी निकला, “तू भरत को प्राणॊं से भी ज्यादा प्रिय है, कहते नहीं थकता था, राजगद्दी के लोभ में तुने अपने साधु सरीखे भाई भरत के साथ छल किया है? जानता हूँ माँ कौसल्या मेरी जननी है| उनके गर्भ से ही मेरा जन्म हुआ है| लेकिन मेरा बचपन तो माँ कैकेई की गोद में सोते-खेलते बीता है| सारा लाड़-दुलार तो मुझे उन्होंने ही दिया है| उनके आगे-पीछे ही तो मैं ठुमुक-ठुमुक कर चलता रहा हूँ| मेरी कितनी ही रातें उनके गोद में बीती हैं| क्या मैं उनकी ममता के साथ छल नहीं कर रहा हूँ? क्या मेरा भरत की अनुपस्थिति में राजगद्दी पर बैठना उचित होगा? नहीं-नही, राम से ये नहीं हो सकेगा| ऐसा होता हुआ मैं सपने में भी नहीं देख सकता||”
"माँ कौशल्या मेरे बारे में क्या सोचेंगी?| वे भी कहेंगी कि राम, राजगद्दी के प्रलोभन में तूने भरत जैसे धर्मात्मा के साथ छल किया है, कपट किया है, विश्वासघात किया है?| तरह-तरह के लांछन वे मुझे पर लगाएँगी, राम!तू ये सब कैसे सुन पाएगा;इतना साहस कैसे जुटा पाएगा?|”
"माँ सुमित्रा भी चुप क्यों कर रहेगीं?| वे भी कुछ न कुछ तो कहेंगी ही| वे भी मुझे, स्वार्थी, लोभी, धोखेबाज कहने से नहीं चुकेंगी| फ़िर लक्ष्मण, शत्रुघ्न भी तो कुछ न कुछ कहेंगे ही|"अपने आपसे प्रश्न कर रहे थे राम|
प्रश्नों के चक्रव्यूह में घिरे राम को बाहर निकलने का कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था| वे सोच रहे थे- " एक तरफ़ पूरा परिवार है और दूसरी तरफ़ हैं पिताजी| पिता की हर आज्ञा को, हर हाल में मानने वाला राम, अवज्ञा कैसे कर सकेगा? पिता का कहा नहीं मानने पर पिता को मर्मांतक पीड़ा तो होगी ही होगी और अगर वे इस पीड़ा को लेकर चल बसे, तो स्वर्ग में बैठी उनकी आत्मा कलपेगी| मुझे धिक्कारेगी, सारा संसार मुझे पितृहंता कहेगा|”
"अब तक मैं अपने पिता की हर-छोटी बड़ी आज्ञा का पालन करते आया हूँ| उनकी कोई भी आज्ञा का उल्लंघन मैंने कभी नहीं किया है| उसे सहर्ष स्वीकार करते हुए पूरा ही किया है| परिवारिक उलझनों में न पड़ते हुए मुझे हर हाल में उनकी आज्ञा का पालन करना ही होगा|"
सारी उलझनों को परे हटाते हुए राम वर्तमान में लौट आए थे| वे इस समाचार से सीता को अवगत कराने के लिए अपने महल की ओर चल दिए|
अपने महल के भीतर प्रवेश करते हुए उन्होंने अत्यन्त ही मधुर स्वर में पुकारा- “ सीते-सीते|”उनकी आवाज पूरे कक्ष का चक्कर लगाकर वापिस लौट आयी थी| फ़िर उन्होंने बारी-बारी से हर एक कक्ष में जाकर देखा| सीता वहाँ कहीं नहीं मिलीं|
द्वार पर उपस्थित सेविका ने प्रणाम निवेदित करते हुए कहा:- “ क्षमा करें प्रभु, महारानी सीताजी, माता कौसल्याजी के महल की ओर गई हुई हैं|”
वहाँ से निकलकर वे माता कौसल्या जी के अन्तःपुर में चले आए| उन्होंने ने देखा- सीता और माता कौसल्या ने रेशमी वस्त्र पहन रखे हैं और वे देवमन्दिर में बैठकर देवताओं की आराधना करने में निमग्न हैं| राज्याभिषेक का समाचार सुनकर माता सुमित्रा, लक्ष्मण को संग लिए पहले से ही वहाँ उपस्थित हो चुकी थीं|
राम ने माता कौसल्या जी के चरण स्पर्ष कर प्रणाम करते हुए कहा- "माते, पिताश्री ने मुझे प्रजापालन कर्म में नियुक्त किया है| कल प्रातः मेरा राज्याभिषेक होगा| जैसा कि उनका आदेश है कि सीता को भी मेरे साथ इस रात्रि में उपवास आदि करना होगा| अतः कल होने वाले अभिषेक के निमित्त आप मेरे और सीता के लिए जो-जो भी मंगलकार्य करने आवश्यक हों, कृपया उन्हें करवाइए”
माता कौसल्या चिरकाल से ही राम के शीघ्र युवा होने और राजा बनने के सुहाने सपने देखती रही हैं| जैसे ही उन्होंने सुना कि कल प्रातः राम का राज्याभिषेक होगा, खुशी के मारे उनकी आँखें छलछला आयीं थीं| उन्होंने राम को अपने हृदय से लगाते हुए आशीर्वचन कहे:- "मेरे प्रिय पुत्र राम, तुम्हारा कल्याण हो| तुम चिरंजीवी होओ| तुम्हारे मार्ग में विघ्न डालने वाले शत्रुओं का नाश हो| तुम राजलक्ष्मी से युक्त होकर मेरे और बहन सुमित्रा सहित सभी बंधु-बांधवों को आनन्दित करो|”
"बेटा राम! तुम्हारा जब जन्म हुआ था तब पवित्र चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी थी, अभिजित नक्षत्र था| तुमने दिन के बारह बजे जन्म लिया था, तब न तो अधिक शीत थी और न ही सूर्य की तपन, बल्कि संपूर्ण संसार को सुख देने वाला शुभ समय था| तब शीतल मंद और सुवासित हवा बह रही थी| नदियों में अमृत सदृष्य धारा बह रही थी| ऐसे सुहावने समय काल में तुमने जन्म लिया था"
स्नेह से सिर पर हाथ फ़ेरते हुए माता ने आशीर्वाद देते हुए कहा:- "कल पावन पुष्य नक्षत्र में तुम्हारा राज्याभिषेक होगा| इस उत्तम घड़ी में तुम राज सिंहासन पर बैठकर हम माताओं, पिताश्री और सारे प्रजाजनों को सुख प्रदान करोगे| उनकी हर छोटी-बड़ी समस्याओं को हल करोगे| फ़िर तुम अकेले कहाँ हो, तुम्हारे तीन भाई भी तुम्हारे सहयोगी होंगे| वे तुम्हारी हर आज्ञा का पालन करते हुए तुम्हारा सहयोग करेंगे|”
अपनी माता से शुभाषिश लेते हुए राम ने अपने अनुज लक्ष्मण की ओर देखा| प्रसन्नता के चलते उनके चेहरे की दमकती आभा अलग ही देखी जा सकती थी| राम ने लक्ष्मण से कहा:- "भ्राता, तुम मेरी द्वितीय अन्तरात्मा हो| हम सब मिलकर राज्य-प्रभार के उत्तरदायित्वों का अच्छे से निर्वहन करेंगे|”
ऐसा कहते हुए उन्होंने दोनों माताओं को प्रणाम किया और बिदा मांगी| अपनी धर्मपत्नी सीता को लेकर वे अपने महल की ओर चल पड़े|
महल में पहुँचकर राम ने स्नान किया| और विशाललोचना पत्नी के साथ श्रीरंगनाथ जी की पूजा-अर्चना की| तत्पश्चात उन्होंने हविष्य-पात्र को सिर झुकाकर नमस्कार किया और प्रज्जवलित अग्नि में श्रीरंगनाथ ( यह मूर्ति पूर्वजों के समय से ही दीर्घकाल तक अयोध्या में उपास्य देवता के रूप में रही| बाद में श्रीराम जी ने यह मूर्ति विभिषण को दे दी थी, वर्तमान में यह श्रीरंगक्षेत्र में पहुँची- पद्मपुराण में यह कथा मिलती है ) की प्रसन्नता के लिए विधिपूर्वक हविष्य की आहुति दी| तत्पश्चात अपने मनोरथ की सिद्धि का संकल्प लेकर यज्ञ शेष हविष्य का भक्षण किया और मन पर संयम रखते हुए विदेहनन्दिनी सीता के साथ श्रीनारायणदेव का ध्यान करते हुए बिछी हुई कुश की चटाई पर विश्राम करने लगे|
अग्नि को समर्पित हविष्य से भीनी-भीनी सुगंध से समूचा कक्ष गमगमा उठा था| देर रात तक सीता से अनेक विषयों पर बार्तालाप होता रहा| राम की मीठी-मीठी बातें सुनते हुए वे कब नींद के आगोश में चली गईं, राम को पता ही नहीं चल पाया और राम उन्हें जाग रही है, इस भ्रम में बातें करते रहे थे, जब हाँ-हूँ की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली, तो उन्होंने सीता सोता हुआ पाया|
विचारों की श्रृँखलाएँ थमने का नाम ही नहीं ले रही थी| वे उठ खड़े हुए और महल की छत पर चले आए|
देर तक यहाँ-वहाँ टहलते रहने के बाद वे एक आसन पर बैठ गए| शीतल हवा मंदगति से प्रवाहित हो रही थी| हवा की पीठ पर सवार होकर, जुही, चमेली की मादक गंध उनके नथुनों से आकर टकराने लगी थी| सुगंध को पाकर उनका मन प्रसन्नता से खिल उठा था| उन्होंने सिर उठाकर आसमान की ओर ताका| चन्द्रदेव अपनी चांदी-सी चमक लिए हुए आसमान पर विराजमान थे| देर तक वे टिमटिमाते तारों को निहारते रहे| कल क्या कुछ होगा?, उसको लेकर विचार मंथन करने लगे थे|
अचानक सीता की नींद खुल गई| उन्होंने कनखियों से देखा| राम अपनी शैय्या पर नहीं थे| इतनी रात अचानक वे कहाँ चले गए?| व्यग्रता से ढूँढते हुए वे भी छत पर चली आयीं| देखा, राम एक आसन पर विराजमान होकर, आकाश की ओर ध्यानस्थ होकर ताक रहे हैं|
"स्वामी, आप और यहाँ अकेले? मुझे जगा दिया होता;अचानक मेरी नींद खुली और मैंने आपको अपनी शैय्या पर न पाकर, मेरा मन व्याकुल होने लगा| मैंने भवन के हर कक्ष में आपको तलाशा| जब आप कहीं नहीं मिले तो आपको ढूँढते हुए मैं छत पर चली आई| क्षमा करें नाथ! मेरी उपस्थिति से आपको कोई कष्ट तो नहीं हुआ|” सीताजी ने रामजी से कहा|
"नही सीते, नहीं;अच्छा हुआ जो तुम यहाँ चली आयीं| मैं तुम्हें अपने साथ लेकर आने वाला था, परन्तु तुम निद्रा-देवी की गोद में चली गईं थीं, अतः मैंने तुम्हें जगाना उचित नहीं समझा|" राम ने सीताजी से कहा|
"आपको नींद क्यों नहीं आ रही है, इसका कारण तो मैं समझ सकती हूँ, लेकिन यह ज्ञात नहीं है कि आखिर किस बात को लेकर आप इतने बेचैन और परेशान हैं? अब ऐसी कौन-सी बात शेष रह गई है, जो आपकी व्यथा को बढ़ा रही है| क्षमा करें नाथ! मैं उस कारण को जानना चाहती हूँ|” सीता ने राम से जानना चाहा|
"सीते, तुम मेरे स्वभाव से भली-भांति परिचित हो, तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है| फ़िर बातों को छिपाकर रखना मेरे स्वभाव में ही नहीं है| सच कहूँ, पिताश्री का चेहरा जब-तब मेरी आँखों के सामने प्रकट होता है, तो उनकी लाचारी, बेचारगी देखकर मैं अन्दर तक सिहर उठता हूँ| एक धीर-वीर-गंभीर व्यक्ति इतना लाचार, इतना अवश कैसे हो सकता है? |राज्याभिषेक को लेकर उन्होंने जो निर्णय लिया है, यह उनका अपना नीजि निर्णय है, और उन्होंने उसे कह सुनाया भी है, लेकिन दूसरी ओर वे भरत को लेकर इतने चिंतित है कि उसकी उपस्थिति मात्र से उन्हें कोई खतरा दिखाई देता है| शायद यही कारण रहा हो कि उन्होंने भरत के मामाजी को, न तो कोई संदेशा भिजवाया और न ही निमंत्रण और तो और उन्होंने अब तक माता कैकेई के भवन में जाना तक उचित नहीं समझा, जबकि वे सबसे ज्यादा स्नेह उन्हीं से करते हैं माता कैकेई के अनुमति के बिना अयोध्या का पत्ता तक नहीं हिलता है| उनसे न तो कोई परामर्श लिया गया और न ही उन्हें सूचित किया गया है| संभव है, राजपाठ को लेकर माता कैकेई ने पहले से ही कोई ‌षड़यंत्र रच रखा हो जिसकी भनक पिताश्री को लग चुकी हो| उस ‍षड़यंत्र का रहस्योघाटन हो, इससे पूर्व वे मेरा राज्याभिषेक कर देना चाहते हैं"
"खैर, राजमहलों में इस तरह के ‍षड़यंत्र तो होते ही रहते हैं| पिताश्री को ही ले लीजिए, तीन-तीन पत्नियों के रहते हुए वे स्वतंत्रतापूर्वक कोई निर्णय नहीं ले पाते है |सभी को एक साथ प्रसन्न रख पाना भी उतना ही कठिन कार्य है, जैसे किसी पर्वत को ऊँगली पर उठा लेने की कोशिश करना| अतः मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि मैं आजीवन एक पत्नी धर्म का निर्वहन करुँगा| उन्होंने हौले से सीता का हाथ अपने हाथ में लेते हुए अपने वचनों को दोहराया-"सीते,!|मैं राम, ईश्वर को साक्षी मानकर दृढ़ प्रतीज्ञा करता हूँ कि मैं आजीवन एक पत्नीव्रत का पालन करुँगा|” कहते हुए राम रोमांचित हो उठे थे| उन्होंने सीता को अपनी विशाल बाहोँ के घेरे में लेकर आलिंगनबद्ध कर लिया था| ऐसा करते हुए राम और सीता को अलौकिक सुख की प्रतीती हो रही थी| दोनों के शरीरों में रोमांच हो आया था| हृदय तेजी से धड़कने लगे थे| एक अपूर्व आनन्द के अतिरेक के चलते दोनों के नयन सजल हो उठे थे|

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