Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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इस धरा से उस गगन तक

 
इस धरा से उस गगन तक 


 इस धरा से उस गगन तक, मैं उपेक्षित 
जिंदगी में, सार अपनी खोजता हूँ। 
                     (1)
लग गया है कौन सा अभिशाप मुझको? 
त्रास देता कौन पल-पल पाप मुझको? 
 छोड़ कर के जा चुके हैं मित्र सारे, 
हो गए खंडित सजाए चित्र सारे। 

चिर तृषा से व्याप्त अंतर को लिए मैं, 
तृप्ति का आधार अपनी खोजता हूँ। 

इस धरा से उस गगन तक, मैं उपेक्षित 
जिंदगी में, सार अपनी खोजता हूँ। 
                  (2)
कौन ठोकर है जिसे खाया न मैंने? 
घाव भी वह कौन जो पाया न मैंने? 
वेदना मुझको मिली उपहार में है, 
 दीखता संताप कुल संसार में है। 

इस निराशा के उदधि में मैं मुमूर्षित, 
शक्ति का उपचार अपनी, खोजता हूँ।

इस धरा से उस गगन तक, मैं उपेक्षित 
जिंदगी में, सार अपनी खोजता हूँ। 
                      (3)      
भार सारे लादकर भी चल रहा मैं,
 हर तरफ से हारकर भी चल रहा मैं ।
भाग्य की प्रतिकूलता से युद्ध मेरा,
 हर विपर्यय कर रहा पथ शुद्ध मेरा।

 ढेर सा जीवन अभी है शेष मुझमें ,
मृत्यु का संहार अपनी खोजता हूँ।

इस धरा से उस गगन तक, मैं उपेक्षित 
जिंदगी में, सार अपनी खोजता हूँ।'' 
                - - - - - - - -
-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी

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