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कवि भैया आदित्य तोमर के छंद और मेरी टिप्पणी

 
कवि भैया आदित्य तोमर के छंद और मेरी टिप्पणी-

    छंद - 

कभी सती हेतु योगी होकर वियोगी बनो,
कभी गिरिजा के भी पुजारी बनते हो शिव.
और कभी मदन के मान मद मर्दन को
क्रूर रविलोचनी कामारी बनते हो शिव.
कभी तीन पुरियों को एक बाण से ही बेध,
शत्रुभयकारी त्रिपुरारी बनते हो शिव.
और कभी दशरथजी के द्वार पर जाके,
राम के दरश को मदारी बनते हो शिव.
-
शिवजी, तुम्हारे भक्त भाजी जैसे कट रहे,
शव हुए, शक्ति के इकार की कमी है आज.
मुक्ति खोजते हैं धन में ये, चूड़ी, बेसरों में,
इन बे-सरों में ललकार की कमी है आज.
नार लटके परन्तु लटके न नार कभी,
इस हेतु आत्मदानी ज्वार की कमी है आज.
तलवों के चाटुकारों की है भरमार किन्तु,
बढ़ी स्वाभिमानी तलवार की कमी है आज.
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इनको जगाओ देव, इनको जगाओ देव,
सनातनियों को प्रभु चेतना दो, जाग दो.
ठण्डे रक्त में सशक्तता का बीज रोपने को,
भक्त को हलाहल से युक्त शेषनाग दो.
रुद्रदेव भीरुता का माथे से मिटाके दाग़,
शूल को थमा के बाँध बलिदानी पाग दो.
जल से भरे हुए निरीह नयनों में देव,
हमलावरों को हनने के हेतु आग दो.
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आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ.

     मेरी  टिप्पणी - 

प्रिय अनुज आदित्य, 
          सस्नेह आशीष ।
भगवान शिव पर लिखे हुए यह छंद तुम्हारी कवित्व प्रतिभा का सटीक उद्घाटन हैं। शिव का तो व्यक्तित्व ही निराला है तो उन पर लिखी हुई कविता क्यों न निराली होगी? वह एक ओर कालों के काल हैं, महाकाल ; दूसरी और 'भोले' भी हैं। वह 'आशु' 'तोष' हैं, शीघ्र प्रसन्न हो जाने वाले; परंतु क्रोधी भी ऐसे हैं कि पल में कामदेव को भस्म कर डालते हैं। वह योगी भी हैं और वियोगी भी। 

प्रथम छंद में उनके तमाम रूपों को व्यक्त करने का तुम्हारा प्रयास सराहनीय है। 
       'कभी तीन पुरियों को एक बाण से ही बेध'
यह पंक्ति इस बात का प्रमाण भी है कि पौराणिक आख्यानों की तुम्हें पर्याप्त जानकारी है, और इस जानकारी का कविता में निवेश पाठक की रुचि को विकसित और परिष्कृत करता है। साथ ही साथ जिज्ञासा भी बढ़ाता है।

 जब कविता रुचि को विकसित और परिष्कृत करने लग जाय, तभी वह सफल कविता है; जब वह जिज्ञासाओं का संवर्धन भी करने लगे तब वह सार्थक हो जाती है;और जब वह ईश्वर में हमारी निष्ठा को दृढ़ करने का प्रबंध भी करने लगे तब वह मनुष्य को अध्यात्म, तदनंतर मुक्ति के मार्ग पर भी ले जाती है।
 
शिव का नाम 'त्रिपुरारी' कैसे पड़ा, इसकी एक रोचक कथा है। प्रसंगवश मुझे भी इस घटना का उल्लेख करने का उत्साह हो रहा है। 
स्वामिकार्तिकेय द्वारा तारकासुर के वध के पश्चात तारकासुर के तीन पुत्र तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली ब्रह्मा जी की शरण में गए तथा कठोर कठोर तपस्या के द्वारा भगवान ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने तीनों के लिए आकाश में उड़ने योग्य तीन अलग-अलग पुरियों(नगरों) का निर्माण कराया। जिसमें एक सोने की, दूसरी चांदी की, तथा तीसरी लोहे की थी; और उन्हें यह वरदान भी दिया कि जब यह तीनों नगर कोई एक ही बाण से नष्ट करेगा तभी तुम तीनों की मृत्यु संभव होगी। 
इस वरदान ने उनका 'परम स्वतंत्र न सिर पर कोई' वाला हाल कर दिया। उनके अत्याचारों की बाढ़ आ गई। तब देवताओं ने भगवान शंकर के द्वार पर गुहार लगाई और असुरों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। आशुतोष प्रसन्न हुए तथा असुरों के विनाश का वचन दिया। कहते हैं, कि आकाश में उड़ते उड़ते जब यह तीनों नगर एक सीध में आए उसी क्षण भगवान शिव ने एक बाण चलाकर उन तीनों पुरियों और उसके साथ साथ उन तीनों दानवों को भी नष्ट कर दिया। 

यह कथा स्वयं में एक लघु काव्य का विषय हो सकती है। बल्कि इस छंद की प्रत्येक पंक्ति में एक कथा है, यथा राम के दर्शन के लिए मदारी बनाने की, कामदेव के मद मर्दन की, देवी सती की तथा माता पार्वती की। इन तमाम कथाओं को एक सूत्र में पिरोने वाला यह छंद मुग्धकारी है। 

दूसरे छंद में तुम्हारे द्वारा शिवजी के ब्याज, समाज के वर्तमान  परिदृश्य का चित्र खींचा गया है। भक्तों पर अत्याचार हो रहे हैं, भोली भाली जनता को सताया जा रहा है, परंतु प्रतिकार की क्षमता समाप्तप्राय है। शिव का इकार लुप्त होकर वह शव रूप में परिवर्तित हो गया है। शव को शिव बनाने के लिए इ कार की आवश्यकता है। 
आज मनुष्य मुक्ति का मार्ग धन में खोज रहा है। बेसर (नाक की नथ) में चूड़ी के दर्शन कर रहा है, अर्थात यथार्थ और वास्तविकता से भटक गया है। है कुछ और, पर समझ कुछ और रहा है। भ्रम और विडंबना की इस स्थिति से त्राण पाने के लिए इन्हें एक ललकार, एक सच्चे संदेश की आवश्यकता है। 
नार (माता के गर्भ से शिशु को जोड़े रखने वाली नली) भले ही लटकती रहे परंतु नार यानी ग्रीवा सदैव उन्नत रहे, स्वाभिमान को इस स्तर तक ले जाने के लिए जिस ज्वार की, जिस शक्ति और जिस विश्वास की, कामना है उसकी शून्यता से कवि विचलित और दुखित है। 
पतन के गर्त में गिर कर भी अपने सुख और सुविधा की इच्छा रखने वालों की बहुतायत तो है किंतु अपने पौरुष और अपने साहस के बल पर अपना दायभाग सुरक्षित रख सकने या अर्जित कर सकने की चेष्टाओं ने विदा ले ली है। 
'नार' और 'बेसर' शब्दों के द्वित्व प्रयोग से जो यमक उत्पन्न हुआ है वह छंद के सौंदर्य में चार चाँद लगाता है। इसके अतिरिक्त भक्त भाजी का अनुप्रास, शिव और शव के मात्रा भेद वाली तुम्हारी यह मौलिक उद्भावना भी मनोहर है। 

जहां दूसरे छंद में समस्या है, वहीं तीसरे छंद में उस समस्या के परिहार के लिए भगवान शंकर की कृपा दृष्टि की कामना करके इसका उपाय खोजा जा रहा है। 
सोते हुओं को जगाना है, इनमें चेतना और जागरण का मंत्र फूँकना है, कौन फूँकेगा? भगवान शिव से उत्तम विकल्प और क्या हो सकता है? 
रक्त, जो शीतल हो गया है, अकर्म की जो स्थिति बन गई है, प्रयत्नों का जो अकाल आ गया है; उसमें प्राण डालना है, कौन डालेगा? इस महत् दायित्व का निर्वाह शेषनाग से अधिक उचित ढंग से कौन कर सकता है? 
शेषनाग की एक अनन्य विशेषता है, वह कभी सोते नहीं। वह प्रतिपल जाग्रत देवता हैं। यह गुण देवताओं में से भी किसी के पास नहीं है। तभी वह मेघनाद की मृत्यु का कारण बन पाते हैं। शेषनाग अवतार न लेते तो मेघनाद आज भी जीवित होता। 
ऐसे शेषनाग जो कभी सुप्तावस्था को प्राप्त नहीं होते; तब शक्ति के बीज के रोपण, उसके अंकुरण और फिर उसके पोषण पल्लवन तक की निगरानी के लिए उनसे उपयुक्त पात्र खोजने कवि और कहाँ जाना चाहेगा। 
भीरुता का कलंक मिटाने के लिए त्रिशूल से सुसज्जित शिव के रुद्र रूप का तथा दीनता के विनाश के लिए अग्नि देवता का स्मरण सर्वथा उचित ही है। 

तीनों छंदों में वीर रस का बड़ा विमोहक परिपाक हुआ है। रस के अनुरूप भाषा ऐसी है मानो चतुरंगिणी सेना सजकर खड़ी हो ;शब्द ऐसे हैं मानो सेना के योद्धा ही वीर वेश धारण कर उपस्थित हो गये हों; और ध्वनियाँ ऐसी हैं मानो उन योद्धाओं के अस्त्रों शस्त्रों के खनकने की आवाजें आ रही हों। 
कुल मिलाकर हर एक दृष्टिकोण से रचना अति उत्तम है और इसके लिए तुम बधाई के पात्र हो। 
भगवान शिव तुम्हें चिरंजीवी और यशवंत करें। ???? 

-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी

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