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माँ की ममता

 


माँ की ममता                ---डा० श्रीमती तारा सिंह



माँ मुझको  धरापर  छोडकर आज  अकेला

तुम तो चली गई पिताश्री के पास , स्वर्ग को

अब  तो तुम  नीचे, धरा पर उतर नहीं सकती

मैं आ रही हूँ स्वयं तुम्हारे पास, तुम वहीं रुको


तुमने जो  लगाया  था रंग-विरंगे  फूल  उद्यानों में

कुछ तो शिशिर में झड़ गये,कुछ झुलस गये अरुण -

ताप  में, कुछ  मूर्च्छित  होकर, हैं बचे हुए धरा पर 

उस पर आंचल की छाया  अब कौन करेगा सोचो

कौन  आँखों  से बरसायेगीहरियाली,कैसे बचेगा 

सृष्टि -संताप से अबवह ,  जरा तुम्हीं कहो


माँ यह लोक-परीक्षा,मनुज के लिए बड़ा ही दारुण क्षण होता

इसमें दृष्टि-ज्योति हत, लक्ष्य-भ्रष्ट मन भाव-स्तब्ध निर्वाक 

होकर भू पर  छायाएँ - सा चलता, परागों से भरे फूलों का

मुख , अंगारे से भरा  कटोरे -सा दीखता, सागर जल -सा

दुख ,  हृदय - सिंधु को मथकरफेनाकार बनादेता 


माँ ,  तुम्हारी  ममता  की  घूँट जो  आज  तक मुझको जीवित 

रखी थी ,अब वही ममता बन गई है मेरे कलेजे को चीरनेवाली

तुम्हारीपहलेवाली ममताकहाँगईजो मेरे  प्राण– डोरको

अपनी पुतली से बाँधकर रखा करती थी

इच्छाओं कीमूर्तियाँ ,   जो मेरे मनमें घूमती  थीं

उन्हें उतारकर , धरापर,  मेरे हाथॉं  मेंपकड़ादेती थी

                                     



कल गंगा किनारे बालुका  पर जब तुम्हारा अंतिम संस्कार हुआ

मुझे लगा तुम कह रही हो मुझसे, यही है जीवन का सच , तारा

आदमी का स्पर्श पत्थर की मूर्तियों में उतरकर हजारों साल  तक 

जिन्दा रहता,   मगर खुद आदमीपानी  पड़तेगल जाता

मनुजमुट्ठी भरसिकता के कण परछितर- छितरकर

मंद – मंदवायु संगउड़  जाता, इसलिए पलों को मीचकर

मत बंद करो लोचन , मेरी  ममता  तुम पर चौकसी रखेगी


डरो मत रवि  की किरणें , तुम्हारी  पलकों को भेदकर

तुम्हारी आँखों में चुभन  नहीं पहुँचायेगीं, न  ही हवाएँ 

तुम्हारे भौं के केशों को क्लेश पहुँचायेगींबस तुम अपने 

हृदय के ज्वलित  अंगार  की जलन कोसमेटे बैठी रहो

इसकी  दीप्तिही  तुम्हारे  जीवन  की सौन्दर्यताहोग़ी


तुम नहीं जानती, चिंता रुधिर में जब खौलती है

तब  उससे उठे धुएँ से देह पर दाग पड़ जाते हैं

हूदय की चेतनाएँ  दो टूक हो जाती हैं, इसलिए

अपने प्राण में उमर रही  पीड़ा  की व्यथा को

और अधिक मत उबलने दो,    इसे रोको

यही लोक-परीक्षा है,इसे ही जिंदगी कही जाती है





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