Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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क्या यह वही शाम है?

 

क्या यह वही शाम है?

            जिंदगी भर धर्म की अलौकिक वीरता के साथ, चट्टान की तरह अटल खड़े, अविचलित जीते आ रहे बीरजू चाचा, आज पहली बार कमजोर, निरीह शाम की चोट को सँभाल न सके, और अपने ही रास्ते से विचलित हो, अपने मित्र बंसीधर से बोले---- बंसीधर, क्या यही है वह शाम, जिसके निर्मम साये की याद, मुझे जीवन भर रह-रहकर डराती आई| इसके सामने आज मेरी योग्यता और विद्वता, दोनों हार गई, ह्रदय के संकुचित पात्र में इसे सँभालकर रखना अब और संभव नहीं, हालाँकि मेरी जेबों में धर्म, और अच्छे कर्मों के कुबेर का धन भरा हुआ है; जिसे देखता तो हूँ, पर गिन नहीं सकता| न्याय और नीति की शक्ति मिटटी बन चुकी है, मगर दूसरी ओर इस कमजोर शाम को देखो, यह इतनी घातक और अजेय कैसे है, जो शेर के ऊपर चढ़कर उसके गर्दन को मरोड़ देती है, जिससे उसकी आँखें निकल आती हैं| फिर खुद की ओर इशारा कर चाचा बोले---- मेरी तरफ देखो बंसीधर, वह किस तरह धीमे कदम, आहिस्ता-आहिस्ता स्वर्गलोक से मृत्युलोक, मेरी तरफ बढ़ती आ रही है!

बंसीधर, अपने मित्र को परेशान देख, व्यग्र हो पूछा---- बीरजू, लेकिन हुआ क्या, यह क्यों नहीं बतलाते; किसी से मारपीट हुई, तो चलो, उसके नाम थाने में रपट लिखवायें और अगर भाग्य-आक्रोश है, तो किसी मंदिर में चलकर भगवान के चरणों में बैठकर दीये जलायें; उनसे विनती करें| भगवान बड़े ही भक्त-वत्सल होते हैं| सुना है, भगवान अपने भक्तों की रक्षा के लिए क्षीर सागर से दौड़े और गज को ग्राह के मुँह से बचाये!

बीरजू खिसियाकर और तालियाँ बजाकर कहा---- यह सब कहने की बात है बंसीधर कि, किसी योद्धा को जितना घमंड अपनी तलवार पर होता है, उतना ही घमंड एक भक्त को अपनी भक्ति पर होता है; लेकिन क्या हुआ, जीवन भर उस शक्ति से मैं जिसे दूर रखने की भीख माँगता रहा, देखो आज वह मुझसे लिपटी मेरे साथ तुम्हारी आँखों के सामने खड़ी है; अभी तो संकोची बन खड़ी है, दिन बीतने दो, ज्यादा नहीं, एक दो साल, देखना मुझ संग लिपटी-सोई मिलेगी; तुमको घर से श्मशान तक| इस संसार में आकर, किसी दिन भी मैं सुखी नहीं रहा, मनुष्य योनि में जनम पाकर भी तिरस्कृत रहा, जवानी ऋषि अभिशाप की भाँति, मेरे जीवन के दूने सुख को गरीबनवाई ने आकर, मेरी सारी अभिलाषाओं को बटोरकर एक जगह जमा कर उसमें आग लगा दी| अब तो मेरे चारो तरफ, दुःख-अग्नि की राख का अम्बार ही अम्बार है| फिर मन ही मन बुदबुदाते हुए बोल–पहले गरीबनवाई, अब संध्या देवी|

बंसीधर कुछ देर तक स्तंभित सा खड़ा, बीरजू की बातों को सुनता रहा| फिर एक अपराधी की तरह परिवर्तित स्वर में बोला---- बीरजू, क्या याद है, तुमको वह कुसुम कानन, जिसमें मोर, शुक और पिक फूलों से लदी झारियों में विहार करते थे, और उस गहन-वन के एक कोने में एक पर्णकुटी हुआ करती थी, जहाँ हम सभी गाँव के बच्चे एक साथ खेलने जाया करते थे| उस पर्णकुटी में एक विधवा ताई, और एक बच्चा (जो हम लोगों के साथ खेलता था) रहा करता था|

बीरजू, बंसीधर के ह्रदय में घुस जाने वाली नजर, उसकी ओर डालते हुए पूछा---- हाँ, तो क्या हुआ? वे लोग सभी ठीक तो हैं, तुम्हारी कब मुलाक़ात हुई? ताई क्या बता रही थी? क्या आज भी मेरी शिकायत पहले की तरह तुमसे की, कही होगी, बीरजू बहुत नटखट है, जंगली इलाका है, यहाँ शेर-बाघ रहते हैं, लेकिन वह, सुनता कहाँ है ? मकरंद मुँह में भरे नील-भ्रमर, जो गुलाब से उड़ने में असमर्थ थे, उनके पीछे भागता-फिरता था, कंटीली झाड़ियों की भी परवाह नहीं करता|

बंसीधर, अपने आँसुओं से यादों की घाव को धोता हुआ बोला---- बीरजू, नियति किसी को नहीं छोड़ती! क्रोध और शोक की गति-वेग सी बहती नियति-नदी की धारा, कभी नहीं सूखती, वह सदा बहती रहती है| यहाँ नित्य बसंत को भी धरती पर रहने की आज्ञा नहीं है|

बंसीधर की बातों से बीरजू का ह्रदय-प्राण सूख गया| उसने अपने हिलते-डुलते कलेवर को किसी तरह संभाला और कांपते हुए कहा---- बंसीधर, तुमने मेरे ढह कर विलुप्त हो जा रहे प्राण को अपनी बातों का अवलम्ब देकर कुछ देर जो ढाढस बंधाया, उसके लिए जब तक ज़िंदा रहूँगा, तुम्हारा कर्जदार बनकर जीऊँगा|

बंसीधर ने कहा---- बीरजू, सत्य की पहचान बहुत दुर्लभ है, क्योंकि उसे प्रकट करने के साधन असत हैं| ‘सत्य और झूठ’ का पुतला अपने ही सत्य की छाया को नहीं छू सकता; कारण ये दोनों ही सदैव अंधकार में रहते हैं| फिर संध्या तो सत्य है, तो उसे अपनी ओर बढ़ते देख इतना डरते क्यों हो? क्यों खुद को एक रोगी समझकर, संध्या के हाथों उसके पाथ्य का गुलाम  बनकर जीना चाहते हो?

बीरजू, कमीज के पाकेट से रूमाल निकालकर अपने आँसू पोंछते हुए बोला---- हाँ बंसीधर, तुमने ठीक ही कहा, भय और उसकी निर्दयता ने मेरी सद्भावनाओं को इतना विकृत कर दिया, कि मुझे निर्मल वस्तु भी मैली दिखने लगी, पर इसमें मेरा क्या दोष है? माना कि मैं संध्या का गुलाम हूँ, मुझे उससे डरने या उसके बारे में अपशब्द कहने का कोई हक़ नहीं; पर मैं तो उसका सिर्फ और सिर्फ दैहिक गुलाम हूँ, मानसिक नहीं| यहाँ तो दैहिक गुलामी पीछे होती है, पर मानसिक गुलामी पहले हो जाती है, ऐसा क्यों?

बंसीधर, बीरजू की ओर देखते हुए कहा---- इसलिए कि, लोग उसके आने का इंतज़ार जनमते ही शुरू कर देते हैं| जैसे उसकी कोई प्रिय वस्तु हो, जितनी तड़प और जलन दिल में, उसके आने के लिए रहती है, वैसा और कहीं संभव नहीं| जो जिंदगी को कड़वा बना रखा है, उसका ख्याल तुम अपने दिल से निकाल दो| क्योंकि  जिंदगी बंदिशों का ही तो नाम नहीं है, बचपन के जाते ही जवानी एक-एक कर टूटने लगती है और एक दिन शोक मग्न, और बेबसी से झुकी जिंदगी ना-उम्मीदी के कब्र में जाकर दफ़न हो जाती है|

बीरजू की आँखें आकाश की ओर थीं, शाम का छायाचित्र कठोर हो चुका था| उसने मन में वेदना, आँखों में पानी की बरसात लिए साँझ के धुंधले अँधेरे में अपनी संभावित चिता की रोशनी में, पूर्णिमा का चाँद जो नील गगन के विशाल सागर में बादलों के गोल टुकड़ों सदृश ओझल हुआ जा दिख रहा था, देखकर बोला---- देखो बंसीधर! ऊपर आकाश की ओर; जवानी के स्वर्ण का पीलापन भी इस संध्या को सुनहली न बना सका|

बंसीधर, रुंधे कंठ से, बीरजू की बातों को स्वीकारते हुए बोला---- हाँ बीरजू, सूरज समान स्वर्णातीत हो निखरती जवानी, अगर दिन है तो, कालिमा में विरह का संयोग लिए बुढापा, रात है; जिसकी प्रतीक्षा चाहे-अनचाहे, हम जीवन भर करते आ रहे थे, यह वही शाम है|

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