यात्री हूँ दूर देश का
मेरे हृदय की टूटी मधुप्याली को ठुकराकर
तुमने, मेरे जीवन के, बचे रस कणों को
अम्बर पर ले जाकर बिखरा दिया, देखो
वह रसकण, सावन बन, तुमको नहलाने
धरती पर कैसे झड़-झड़कर झड़ा जा रहा
तुमने सोचा नहीं, विविध विरोधी तत्त्वों
के संघर्षों से संचालित, यह जीवन
तन तृण की तरी पर है ठहरा हुआ
आज जिसे देख रही हो तुम अपनी
आँखों के करीब, कल न जाने वह कहाँ होगा
इसलिए नफरत से, क्रोध से, पूर्व प्रीति से
जैसे भी हो, एक बार अपने होठों पर
मेरा नाम आने तो दिया होता
मेरे हृदय तन तरु के सारे, पत्तों को
सुखलाकर तुमको क्या मिला
यौवन मधुवन की कालिंदी, कभी हृदय
दिगंत को चूमकर यहाँ भी बहा करती थी
जिसमें, मुकुर मान तुम अपने रूप की छाया
रातों को जाग-जाग कर देखा करती थी
तुम्हारी वाणी में हुआ करता था, प्रीति का हिलोर
जिसमें नित नूतनता इठलाती थी, मचाती थी शोर
ये आज तुम्हारे विचारों की शीतलता को क्या हुआ
झंझा प्रवाह से निकला यह जीवन
जिसमें है विकल परमाणु पुज, नभ
अनिल, अनल, क्षितिज, नीर भरा हुआ
जो प्रतिपद विनाश की क्षमता दिखलाता
कहता, अरे प्रवासी! निज भविष्य की चिंता में
वर्तमान का सुख क्यों छोड़े जा रहा
दूरागत से आ रही आवाज को कान लगाकर सुनो
निस्तब्ध निशा में कोई तुमसे मिलने आ रहा
जो छुड़ा ले जायेगा, तुम्हारा प्रेम मकरंद
नवेली कलिका-सी सुकुमार प्रिया से तुमको
निष्ठुर विधु का सदा से यही न्याय रहा
इसलिए प्रिये! अपना हृदय द्वार खोलो, देखो
बाहर, हृदय का छिन्न पात्र लिए कौन है खड़ा
मरु ज्वाला में बूंद को चातक कितना तरस रहा
मत उड़ाओ अपने विकल साथी की ठिठोली
यत्री हूँ दूर देश का, दूर न निकल जाऊँ कहीं
बुझ जाये न कहीं यह मृत्ति का अनल
अपने स्वर्गपुर का इतना भी न ध्यान कर
जिस ज्वाला की दीप्ति तुमको सजाती आयी
उतप्त का न इतना भी अपमान कर,
सहज भावनाओं में बहते जो, वे ही
होते सच्चे प्रेमी, इस धरा पर
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