Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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उसने पीया है ज़हर

 


उसने पीया है ज़हर

रसदेव की पाँच साल की बच्ची ऋचा, दरवाजे पर से दौड़ती हुई आई | पिता रसदेव से बोली --- बाबू ! वो जो, झुनियाँ की दादी है न , वो बहुत बुरी हैं | 

रसदेव, बेटी को गोद में भरकर पूछे --- बेटा ! दादी ने ऐसा क्या कह दिया, जो आप इतना गुस्सा कर रहे हो ?

ऋचा, पिता की मूँछ को सहलाती हुई बोली---बाबू ! दादी, हमेशा हमें डाँटती रहती हैं , खेलने से मना करती हैं ; कहती हैं ----- इतना उछल-कूद मत करो | टांग कहीं टूटी, तो जीवन भर कुँवारी रह जावोगी, कौन तुझे ब्याहेगा ? कभी-कभी तो अपनी लाठी लेकर मारने दौड़ पड़ती है | बाबू ! तुम उन्हें ऐसा करने से मना कर दो |

रसदेव की पत्नी ( ऋचा की सौतेली माँ , सुनीता ), पति की ओर देखकर व्यंग्य भाव से कही --- कुछ समझ भी रहे हो, अपनी बेटी की बात ; या मुँह में दही जमा हुआ है ? आप इसे इतनी जहरीली बातें बोलने से मना क्यों नहीं करते ? जब देखो, ज़हर उगलती है !

रसदेव, आहत कंठ से कहे--- जो खायेगी, वही तो उगलेगी ! पीयेगी ज़हर , तो अमृत कैसे उगलेगी ? 

सुनीता नाक सिकोड़कर बोली--- भगवान न करे, ऐसी सन्तान मेरी कोख से जनम ले , वरना मैं तो चुल्लू भर पानी में डूब मरुँगी |

रसदेव , खिन्न होकर बोले---तुम्हारी बातों को सुनकर जी चाहता है, मैं खुद भी मर जाऊँ और इसे भी मार दूँ |

तभी झुनियाँ की दादी , लाठी टेकती हुई आकर, रसदेव के सामने खड़ी हो गई, बोली---- रसदेव ! यह बात मेरे लिए असह्य हो गई है. कि तुम्हारी सुपुत्री मेरे दरवाजे पर आकर उधम मचाये | मेरी वस्तुओं का सर्वनाश करे , तुम्हारी आँखों पर तो परदा पड़ा हुआ है, लेकिन मैं तो तुम्हारी बेटी का रुख साल भर से, मेरे कहने का मतलब, जब से इसकी माँ मरी है ; गाय के नए बछड़े की तरह उछल-फाँद करती रहती है | अचरज है, कि तुम इसकी इन शरारतों को बर्दाश्त कैसे करते हो ?





रसदेव गौरवोनमत्त होकर कहा---- मैं मरते दम तक अपनी बेटी को मातृप्रेम की सुखद छाया देता रहूँगा | इसलिए दादी तुमसे मेरी प्रार्थना है कि मेरी बेटी के साथ ऐसा निर्मम व्यवहार न करो |

            मगर दादी पर इन विनयपूर्ण शब्दों का कुछ असर नहीं हुआ, और झुँझलाकर कही---यह सब तुम्हारी मानसिक दुर्बलता का चिन्ह है | तुम भावुकता के फेर में पड़कर अपने शारीरिक सुख और शांति का बलिदान कर रहे हो | घर में किसी को ब्याह कर लाये हो, उसकी तरफ तुम झाँकते तक नहीं, पड़े रहते हो बेटी को लेकर |

रसदेव, बिना किसी हिचक के दादी से बोले----- आपके और मेरे जीवन-सिद्धांतों में बड़ा अंतर है ; आप भावों की आराधना करती हैं , और मैं विचार का उपासक हूँ | आप निंदा के भय से आपत्ति के सामने सर झुकाती हैं, लेकिन मैं अपनी वैचारिक- स्वतंत्रता के सामने लोकमत का लेश-मात्र भी परवाह नहीं करता | आपकी शिष्टता का आधार आत्मघात है ; मैं ऐसा नहीं कर सकता | रसदेव की बातों से नाराज होकर, झुनियाँ की दादी खिन्न होकर चली गई , मगर रसदेव वहीँ ऋचा को गोद में लिये बैठे रहे |  उसके ह्रदय में एक दाह सी हो रही थी | इतनी निष्ठुरता एक छोटी सी बच्ची के साथ, वो भी जिसने जनमते माँ को खो दिया हो | तभी रसदेव की पत्नी सुनीता आकर बोली--- रसदेव ! अपनी बेटी को तुम समझाते क्यों नहीं, मैं तो इसे समझा-समझाकर हार गई | यह कहते कुटिल नेत्रों से ऋचा को देखकर बोली ---- सर दर्द के सिवा ये लड़की और कुछ नहीं है, या ईश्वर ! इसके और नखरे देखने के पहले मेरी मौत क्यों नहीं आ जाती ? 

रसदेव ने बेटी की ओर दीनता से देखकर कहा--- बेटा ! इस समय तुम्हारी माँ आपे में नहीं है | इसे छोडो, तुम खेलने चले जावो | रसदेव को आश्चर्य हो रहा था ,कि नारी ह्रदय में इतनी दयाहीन स्वार्थपरता कहाँ से आ गई ? बीते सप्ताह ही तो सुनीता, न्याय और लोकसेवा पर लंबा-चौड़ा भाषण दे रही थी | बस एक सप्ताह में ही काया पलट गई ; विचार और व्यवहार में इतना अंतर ? रसदेव इन्हीं विचारों में मग्न था,कि देखा, उसकी पत्नी सुनीता आँखों में आँसू भरे सामने आकर खड़ी हो गई, कही ---- मेरे अपराधों को क्षमा कीजिएगा ,कौन जाने आज के बाद आप से फिर मुलाक़ात होगी भी या नहीं | आपका घर, आपको मुबारक हो !

सुनीता के मुँह से ऐसी बातें सुनकर, रसदेव का ह्रदय पिघल गया | उसने व्यथित भाव से कहा---- सुनीता, फिर कभी ऐसी बातें मुँह से नहीं निकालना |

रसदेव को, बचपन से ही अपमान और आघात को धैर्य और उदारता से सहने की आदत थी | वह कहता था ---- उपजीवी होना शर्म की बात है, मगर कर्म प्राणी-मात्र का धर्म है | एक गृहिणी को अपना घर बरक़रार रखने के लिये, अपनी आत्मा की इतनी ह्त्या करनी पड़ती है कि उनमें आत्माभिमान का नाम भी नहीं रहता | हम माता-पिता के आगे इसलिए अपना सर झुकाते हैं , कि उनमें त्याग का बल है, नम्रता और स्नेह की मूर्त्ति हैं , हमारे रक्षक हैं, सच्चे पथ-प्रदर्शक हैं  | जो माँयें अपने और पराये के बच्चों में पृथकता करती हैं, वो माँ , माँ नहीं हो सकतीं; माना कि तुमने ऋचा को जन्म नहीं दिया , मगर तुम्हारा पति तो उसका जन्मदाता है , इस लिहाज से वह तुम्हारी बेटी है, और अपनी बेटी से इतनी कटुता ठीक नहीं है |

रसदेव की बात सुनकर,सुनीता दृढतापूर्ण स्वर में बोली ---- इस कृपा के लिए तुम्हारा कृतग्य हूँ , तुम्हारे मुँह से अपनी बेटी के बहाने, मेरा जिक्र तो होता है, वरना तुम तो भूल चुके हो कि मैं तुम्हारी पत्नी हूँ | जब देखो, सोते-जागते, बेटी ऋचा, बेटी ऋचा करते करते थकते नहीं हो, तुम्हारे लाड़ ने उसे बिगाड़ रखा है | मेरा कहा मानो---ज़माना नाजुक है, कहीं तुम्हारी इस तरह की नरमी उसे शेर न बना दे | 

रसदेव को , ऋचा के लिए इस तरह के अप्रिय शब्दों का प्रयोग, सुनीता के मुँह से सुनकर अच्छा नहीं लगा | उसे इतना क्रोध आ रहा था, कि यदि कानून का भय नहीं होता, तो, उसी वख्त उसे घर से निकल जाने को कहता | उसे खेद नहीं, लज्जा नहीं, विस्मय हो रहा था, यह सोचकर कि दोवारा शादी के दल-दल में कैसे फंस गया ?,

वह मौन-दशा में बैठकर यही सोचा करता, कि यदि मुझे ऋचा के अल्हड़-बचपना के निगरानी की चिंता नहीं रहती, तो मैं कदापि नहीं दूसरी शादी करता | लोग ठीक ही कहते हैं, विपत्ति में भी जिस ह्रदय में सद्ज्ञान न उत्पन्न हो, वह सूखा वृक्ष है, जो पानी पाकर पनपता नहीं, बल्कि सड़ जाता है | सचमुच मैं उसके लिए माँ नहीं, अपने लिये पत्नी लाया हूँ | मैं कितना अत्याचारी, कितना संकीर्ण-ह्रदय , कितना कुटिल-प्रकृति का पिता हूँ |

                 वह इसी खिन्नावस्था में बैठा था , तभी उसे ऋचा की चीख सुनाई पड़ी ; दौड़कर गया , तो देखा--- ऋचा आँगन के गंदे नाले के पास बैठी, कीचड़ से सनी रो रही है, और सुनीता, वहीँ पर नहा-धोकर तुलसी के पौधे में जल डाल रही है | रसदेव, कई मिनट तक वहीँ चुपचाप खड़ा रहा, सहसा अर्धचेतना के साथ जागा , जैसे कोई रोगी देर तक मूर्च्छित पड़ा, चौंक पड़ा हो |

            उसने ऋचा को गोद में उठाकर सीने से लगा लिया | उस गुदगुदे स्पर्श में, रसदेव की आत्मा ने जिस परितृप्ति और माधुरी का अनुभव किया ; उसकी आँखों से टपक-टपक कर आँसू की बूँदें नीचे भूमि पर गिरने लगीं | ऋचा भी, पिता के सीने से चिपककर ठोस और भारी हो गई | रसदेव,ऋचा की आँखों के आँसू पोछते हुए व्यथित कंठ से मन ही मन कहा---ईश्वर ! तुम मुझे माफ़ कर दो, मैंने अपनी बच्ची को पिता के अतुल आनंद से बंचित रखा है | अब से ऐसा नहीं होगा |

उसने सजल नेत्रों से पूछा ---- बेटा ! आप तो बड़े हो गए हो , उस पर होशियार भी, फिर भी अपने पैर में लगा कीचड़ देखकर रो रहे हो | ऋचा, पिता का अपनत्व पाते ही, फिर से सिसकने लगी |

रसदेव, यह देखकर घबडा गए, पूछे--- कहीं जोर की चोट तो नहीं लगी, आपको? 

ऋचा, अपने सूजे हुए गाल पर ऊँगली रखकर तुतलाती हुई बोली --- मुझे यहाँ पर, माँ ने लोटे से मारा , मुझे दर्द हो रहा है | बाबू ! मैंने कुछ नहीं किया था, बस माँ, जब तुलसी के पौधे में लोटे से पानी डाल रही थी, मैंने तुलसी का एक पत्ता तोड़ने की कोशिश की | इसी पर माँ ने मुझे लोटे से मारा, और पकड़कर, कीचड़ में फेंक दिया | पापा, मुझे दर्द हो रहा है | माँ मुझे हमेशा मारती रहती है; खाना माँगने पर मुझे आँगन से बाहर निकालकर, दरवाजा बंद कर लेती है |

ऋचा की बातें सुनकर रसदेव संज्ञाशून्य हो गया, मानो कोई पाषाण-प्रतिमा हो | वह,ऋचा के गालों की चोट पर उसकी स्वर्गीय माँ की आत्मा को छटपटाते हुए  साफ़ देख रहा था |

              वे विद्रोह भरे मन से , पत्नी सुनीता के पास गये , और क्रोध भरी नजरों से देखकर बोले ---सुनीता | तुम औरत नहीं, तुम एक अत्याचार और अहंकार की देवी हो | तुम कितनी अविवेकिनी हो, मैंने शादी से पहले और बाद , तोते की तरह तुमको रटवाया था,कहा था --- मेरी बच्ची, मेरी आत्मा है; मुझे खुश रखने के लिए तुमको, मेरी बेटी को खुश रखना होगा | तब तो तुमने कहा था--- ‘ मैं अपनी जान देकर भी ऋचा के हित की रक्षा करुँगी ‘ | आज अपनी जान की बात तो छोडो, तुम तो इसी की जान लेकर अपने हित की रक्षा करना चाहती हो | मैं तो विश्वास पर तुम्हारे संरक्षण में अपनी बच्ची को रखकर निश्चिंत जीता था | मगर रक्षक ही जिसका भक्षक बन जायेतब उसे कौन बचायेगा ? 



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