Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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शक की बुनियाद पर भीत

 

शक की बुनियाद पर भीत

          रात के दश बज चुके थे| किशोर, लीला से मिलने आने का वादा कर, मिलने नहीं आये| प्रेमातुर लीला की आँखें क्रोध में रोते-रोते सूज आईं| दिल से मधुर स्मृतियों का लोप भी होने लगा है| लीला को ऐसा, ज्ञात होने लगा कि उसके साथ किशोर का प्रेम-मात्र  दिखावा है, मेरे यौवन को लूटने का वहाना है| नहीं तो क्या, वादा भी कोई इस तरह तोड़ता है| जिस दिल में मेरे लिए इज्जत नहीं, प्यार नहीं, विशवास नहीं, उसके साथ मुझे अब एक पल भी रहना नहीं| वह मन ही मन भिनभिनाई, कही---- जो रात-दिन प्रियतमा, प्रियतमा कह थकता नहीं था, उसके विचार इतने कुटिल होंगे, मैंने कभी कल्पना नहीं की थी|

           अचानक आँगन में मटका फूटने सी आवाज आई| लीला, छत से नीचे, आँगन में झांककर देखी, तो भौचक्का रह गई| देखी---- किशोर, बदहवास, मुँह भार गिरा हुआ है, और डूबती आवाज में कह रहा है---- लीला, मुझे माफ़ कर देना| मैं मौत से नहीं डरता, मगर तुम्हारी भलमानसी से डरता हूँ| मैं जानता हूँ लीला, पुराना सौहार्द बड़ी जल्दी द्वेष का रूप ग्रहण कर लेता है| कोई कितनी भी कोशिश कर ले, उसकी बात-व्यवहार में सहृदयता, एक कृत्रिम वात्सल्य, एक गौरवयुक्त साधुता आ जाती है|

                लीला को अपनी निठुरता और अश्रद्धा पर बहुत खेद हुआ| कुछ पल पहले जो आत्मरक्षा की अग्नि प्रदीप्त हुई थी, किशोर की दशा देख तत्काल बुझ गई| वे भावनाएँ सजीव हो गईं, जो आज से पहले मन, ललायित किया करती थीं| वे सुखद वार्ताएँ, वे मनोहर क्रीड़ाएँ, वे प्रीति की बातें, वे वियोग-कल्पनाएँ नेत्रों के सामने फिर से चमकने लगीं| क्रोध के बादल छंट गए और प्रेम का चाँद चमकने लगा| लीला प्रेमानुराक्त होकर किशोर का मस्तक अपनी गोद में रख ली| किशोर ने देखा, लीला के अश्रु-पल्लवित नेत्रों में प्यार का सागर हिलोरे मार रहा है| मुख-मंडल, प्रेम-सूर्य की किरणों सी विकसित हो, कह रही थी---- ‘किशोर, मैं कितनी कमजोर हूँ ,कितनी श्रद्धाहीन हूँ| मैंने तुम्हारे विशुद्ध और कोमल ह्रदय पर शक किया| तुम्हारी ज़रा सी देरी, मेरी आँखों पर कैसा पर्दा डाल दिया| मैं कैसे इतनी अंधी हो गई? मैं तुम्हारी प्रेम-कसौटी पर खड़ी न उतर सकी, मुझे माफ़ कर दो|

       किशोर रुंधे कंठ से कहा---- तुम मुझसे क्षमा माँग रही हो, यह तो मेरे ऊपर अन्याय है| सच मानो लीला, यह मेरा दुर्भाग्य है, कि तुम जैसी वात्सल्य की मूर्ति, निर्दोष, निष्कलंक का, मैं सम्मान न कर सका|

लीला प्रेमोनमत्त हो बोली---- भगवान के लिए, ऐसी बातें बोलकर मुझे लज्जित मत करो, मैं मिथ्याभ्रम में पड़कर तुम्हारे विरुद्ध न जाने कैसी-कैसी बातें सोचने लगी थी| पर अब तुम गुस्सा थूक दो, और मेरी क्षुद्रताओं और दुर्बलताओं को क्षमा कर दो|

किशोर ने रुंधे स्वर में कहा---- लीला, तुम नाहक ही खुद को परेशान कर रही हो| इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, दोष तो स्थिति और माहौल का है| ऐसा सबों के साथ होता है, जब साधारण मन की स्थिति को जोड़कर मनुष्य कुछ दूसरी बात सोचने का प्रयास करता है, तब उसके त्रस्त मन को किसी भयावनी साया में ही शरण मिलती है| निश्चय ही तुमको भी मुझसे अलग होने का डर सताया होगा, और उस चिंता-सागर से जब तुमने खुद को निकाला होगा, तब तुमको अपनी अप्रसन्नता पर भ्रम हुआ होगा| उस वख्त तुम अपनी उच्चाकांक्षा को पर्वत के पदस्थल तक ले गई होगी, लेकिन ऊपर न ले जा सकी| वहीँ हारकर बैठ गई, तब मुझ जैसे साहसी, ईमानदार व्यक्तित्व पर भ्रमवश, निंदा करने के लिए तुम बाध्य हुई होगी|

लीला, किशोर की बातों को सुनकर कुछ देर तक चुप रही, फिर कंपित स्वर में कही---- तुम्हारा कहना बिलकुल सही है किशोर, घंटों इंतजार के बाद भी जब तुम नहीं मिले, तब मेरे मुख पर, बुद्धि पर, मस्तिष्क पर मृत्यु की छाया पड़ने लगी थी| मन की दुर्बलता ने मुझे दिशाहीन बना दिया था, दम फूलने लगा था| ऊपर की साँस ऊपर ही रह जाती थी, भीषण प्राण वेदना थी; लगता था, साँसों का अवरोध, तुमसे मिलने के पहले ही मेरे प्राण का अंत कर देगा,तभी आँगन में मटका फूटने सी आवाज आई| मैं दौड़कर, जब देखने गई, देखी---- तुम आँगन की एक तरफ औंधे मुँह गिरे हुए हो और दूसरी तरफ, उसी आँगन में चाँदनी, कुहरे की चादर ओढ़े, जमीन पर, तुमको गिरा देख, सिसक-सिसक कर रो रही है| तुलसी का पौधा ठीक तुम्हारे बगल में सिर झुकाए आशा और भय से विकल हो-होकर मानो तुम्हारे वक्ष पर हाथ रख, तुमको उठाने की कोशिश कर रहा है| सहसा तुमने आँखें खोलीं, और इधर-उधर खोई हुई आँखों से, कुछ इस तरह देखा, मानो देरी से आने हेतु संवेदना से भरा तुम्हारा ह्रुदयाग्रह क्षमा माँग रहा हो| यह सब देखकर मेरा ह्रदय विदीर्ण हो गया| पर क्षण भर बाद ही दिल ने कहा---- जिस दंड का हेतु ही तुमको नहीं मालूम, उस दंड का मूल्य ही क्या? यह तो विधाता की जबरदस्ती की वह लाठी है, जिससे आघात करने के लिए, किसी कारण की जरूरत नहीं पड़ती|

 


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