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Dr. Srimati Tara Singh
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‘प्रेमाश्रय’

 

                                                                      ‘प्रेमाश्रय’

              ‘प्रेमाश्रय’ अपने जीवन के उलझन, ‘नदी के किनारे बैठकर, जिंदगी-तट से टकराते, दुःख-लहरों की परवा न कर, बड़े –वेग गति से बढ़ा, और अपने स्मृति-भंडार से, एक ऐसी स्त्री को खोज निकाला, जो समाज द्वारा बनाये जाति-सागर के विषम जाल में गोते लगाते कह रही थी, ‘मेरा प्रेम तो निष्काम हुआ, अब जमाने को हमारा आत्मिक संयोग भी गंवारा नहीं|

प्रथम दृष्टिया प्रेमाश्रय को शंका हुई, लेकिन विचार करने पर शंका निवृत हो गई, यह सोचकर कि मैं इसे जानता तक नहीं| ऐसी अवस्था में स्त्री के नैराश्य जीवन-क्रोध से मुझे कोई हानि नहीं हो सकती| प्रेमाश्रय, उस औरत को बचाने के उद्देश्य से, उसके पास गया, बोला, ‘लगता है, आपको किसी ने धोखा दिया है, वरना यह भी कोई उम्र है, मृत्यु-जल में कूदने का? 

नैराश्यमुखी ने रोते हुए कहा, ‘आपलोग तो, औरतों को खुश करने के लिए सदियों से चाँद- तारे को धरती पर उतारने का दावा करते आये हैं! अभी के लिए चाँद-तारे छोड़िये, आप सिर्फ समाज में फैली जाति-विषमता की मजबूत दीवार को तोड़कर दिखाइये, वरना आप और मेरे में अंतर ही क्या है?

प्रेमाश्रय, श्रद्धाभाव से उत्तर में कहा, ‘देवीजी! नारी तो स्वयं देवी का अवतार है| आप से मैं हूँ, मुझसे आप नहीं ; अर्थात् आप नहीं होतीं, तो ये मर्द कहाँ से आते? 

प्रेमाश्रय की बात सुनकर, उस नैराश्यमयी की आँखों से सुख के आँसू निकल पड़े| उसने रोते हुए कहा, ‘ पथिक! आप के इस श्रद्धाभाव का कवच पहनकर, मैं अपनी विपत्ति का सामना नहीं कर सकती| आपकी बातों से लगता है, आप कोई 


दार्शनिक हैं, जब कि आपको एक कवि होना चाहिये!

प्रेमाश्रय, हँसकर बोला, ‘आप समझती हैं, बिना दार्शनिक हुए कोई कवि हो सकता है, तो ऐसा नहीं होता| 

नैराश्यमुखी, ‘मेरे कहने का मतलब था, जीवन-प्यास बुझाने में शराब लाख मदद करे, पानी से अच्छा नहीं कहा जाता| आखिरकर अंतिम प्यास, पानी ही बुझाता है| 

प्रेमाश्रय, ‘मैं विचारोत्तेजक गुणों के प्रमाण देकर, अपने गुनाह पर पर्दा नहीं डालूँगा| वरना यह गुनाह तो पिछले गुनाह से भी बड़ा होगा| 

प्रेमाश्रय की उल-जुलुल बातों को सुनकर नैराश्यमुखी का स्वर आँसुओं से भीग  गया| उसने काँपते स्वर में पूछा, ‘तब आप मुझे इस मृत्यु-जल से कैसे निकालेंगे? मैं आज घर से इरादा करके आई हूँ, कि लौटकर नहीं जाऊँगी| जीवन रहते, मैं उस दीवार को जब तोड़ नहीं सकती, तब मुझे मरना तो पडेगा ही| इसलिए, अपने विशाल आचरण का उदाहरण दीजिये, या फिर मैं जो कर रही हूँ, उसे खड़े होकर एक तमाशगिर कि तरह देखते रहिये|

नैराश्यमुखी की बात से, प्रेमाश्रय सन्नाटे में आ गया| एक तो लड़की के मर जाने 

का शोक, उस पर उसके पुरुषत्व को ललकार! प्रेमाश्रय हाथ जोड़कर कहा, ‘कृपया इतनी निर्दयता से आप मेरे पुरुषत्व को मत ललकारिये, बल्कि एक क्षण के लिए अपनी जिद्द छोड़ दीजिये, और सोचिये, ‘क्या वीरों की सदैव जीत होती है?

नैराश्यमुखी, ‘समाज कहता है, नारी कुल-मर्यादा की वस्तु होती है| उसकी रक्षा करने का दायित्व, समाज के हर स्तर को लेना होगा| तो क्या, मैं मान लूँ, यह सब भाषण के लिए लिखी गई है| आज तो मैं देख रही हूँ, विपत्ति के समय, किस तरह एक पुरुष कर्त्तव्यहीन, पुरुषार्थहीन तथा उद्यमहीन हो गया है| औरत को विवश, लाचार जीवन जीने के लिए बाध्य करनेवाले, अपना शेर-दिल कहाँ रख आये हैं?

प्रेमाश्रय, ‘मेरे लिए नारी-मर्यादा की रक्षा करना, दुनिया की सबसे उत्तम चीज है| उसके लिए मैं प्राण न्योछावर कर सकता हूँ| यदि आप कहें, तो मैं अग्नि के अंक में ऐसे हर्षपूर्वक बैठ जाऊँ, जैसे फूलों की शय्या पर| मेरे प्राण, आपके काम आये, तो मैं उसे ऐसी प्रसन्नता से दे दूँ, जैसे कोई उपासक अपने इष्टदेव को पुष्प चढ़ाता है|

प्रेमाश्रय की बात सुनकर, नैराश्यमुखी का मुखमंडल प्रेमज्योति से अरुण हो गया| सोचने लगी, ‘यह आदमी केवल मेरे ध्यान पर अपना जीवन-समर्पण कर सकता है| एक प्रेम ने तो मुझे जलाकर भष्म कर दिया, वहीँ दूसरा अपनी जान न्योछावर करने खडा है, और मैं हूँ कि ऐसे धैर्य को जला डालना चाहती हूँ ; आखिर क्यों? 

तभी प्रेमाश्रय, हसरत भरे स्वर में बोल पडा, ‘यदि मेरे लिए कोई योगिनी बनना स्वीकार करती है, तो मेरा फर्ज कहता है कि मुझे उसके लिए सन्यास और वैराग्य दोनों को त्याग कर देना  चाहिये|

नैराश्यमुखी, क्रोधित होकर बोली, ‘आप मेरा अपमान कर रहे हैं, महानुभाव!

प्रेमाश्रय, अत्यंत दीन आग्रह भरकर कहा, ‘क्षमा चाहूँगा, मैं पहले ही कह चुका हूँ, कि मैं आपकी सहायता करना चाहता हूँ| मैं नहीं चाहता कि आप बेकार भार अपने ऊपर लादकर रूढियों, विश्वासों और इतिहासों के मलवे तले दबी रहें| वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, वह ज्ञान नहीं है, वह कोल्हू है, पर क्षमा कीजिये, मैं तो आपको पूरा भाषण ही दे दिया|

नैराश्यमुखी, अभिमान भरी हँसी के साथ मन ही मन कही, ‘लगता तो है, आप में शुद्ध संकल्प की कमी नहीं है, तभी आपके पैर इतने बलशाली झोकों में भी उखड़ नहीं रहे| आपकी अविचलता, परिस्थिति-ज्ञान शून्यता की हद तक जा पहुँची है| 

प्रेमाश्रय, ‘जीवन एक संग्राम है, इस क्षेत्र में विवेक, धर्म और नीति नहीं चलती, यहाँ औचित्य-अनौचित्य का निर्णय सफलता के अधीन है| सफल हुए तो पुण्य, हारे तो पाप| 

प्रेमाश्रय के इन क्षोभयुक्त विचारों ने नैराश्यमुखी के ह्रदय को इतना मसोसा, कि उसकी आँखें भर आईं| आत्मरक्षा की अग्नि जो कुछ देर पहले प्रदीप्त हुई थी, इन आँसुओं से बुझ गई, और वो भावनाएँ सजीव हो गईं, जिसके लिए वह खुद को जीते जी दफन कर देना चाह रही थी| उसने प्रेमाश्रय की तरफ सतृष्ण नेत्रों से देखकर कही, ‘आप मुझे माफ़ कर दीजिये| मैं कितनी जड़भक्त हूँ, कि रूप और गुण का निरूपण नहीं कर सकी, मेरी निठुरता ने आपके कोमल ह्रदय को व्यथित किया है| आपके प्रेम-कसौटी पर मैं खोटी निकली| 

          इस प्रकार नैराश्यमुखी के दिल में भाँति-भाँति की शंकाएँ और दुष्कल्पनाएँ की आँधी उठ रही थीं, तभी उस आँधी और तूफ़ान में उसे एक नौका, अपनी ओर बढ़ती स्पष्ट दिखाई दी| उसका भय-अंधकार, तिमिर पट से धीरे-धीरे बाहर निकल रहा था| उसने सुदृढ़ भाव से जब अपना हाथ बढ़ाया, देखा, प्रेम की वेदी पर खुद को समर्पण करने, प्रेमाश्रय अपनी दोनों बाहें फैलाये खड़ा है|

 


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