Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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प्रकृति और सृष्टि में कोई भेद नहीं

 

प्रकृति और सृष्टि में कोई भेद नहीं


निखिल  धरा  के  कटु  पीड़न  से  पोषित

रोग-   शोक   तापित  शपित,  पृथ्वी  पर

जनम  काल  से  ही  निज  भाग्य की वक्र

रेखाओं   का   कठपुतला   बनकर   जीता

आ    रहा   मनुज , एक    दिन   सोचा

भूत- वर्तमान – भविष्यत  तीनों  काल  जब

मुझी  में  नव –नव  रूपों  से  है  अलंगित

मैं भी प्रकृति के संग सृष्टि में हूँ सम्मिलित

फ़िर  आकाश  में  चमक  रहे देवों की तरह

तूफ़ानों  में, मैं  क्यों  नहीं रह सकता जिंदा


अम्बर   में  रस  मटके  से  झूल  रहे

चाँद –तारों से झड़-झड़ कर झड़ी जा रही 

जो  रंग - विरंगी  आभा  की  पंखुड़ियाँ

जमी  के  भीतर जाकर होती कहाँ जमा 

जानने  तलातल को खोदना, ठान लिया

और  जिस  सतह  पर कदम पड़े उसके

उसे   छोड़  आगे  बढ़ता  चला   गया

तृष्णा का पूजक मनुज,सीमा लाँघ जब 

तलातल  में पहुँचा, देखा वहाँ बड़ी-बड़ी 

चट्टानें  हैं  सोई हुई,मनुज सोचने लगा

जग  तो अंधेरा था ही,यहाँ भी निर्मम 

नियति  की छाया बनकर है पसरी हुई

प्रकृति  और सृष्टि में कोई भेद नहीं है

दोनों  एक दूजे के पर्याय हैं, कहने को 

अलग-अलग हैं,ईंच भर भी फ़र्क नहीं है 



मैं तो दुनिया में आकर बुरी तरह उलझ गया

सोचा  था ,सर्वदर्शी लोचन पाकर सूर्य बनूँगा

देवों  का  है  जो भाग, वही हमें भी मिलेगा

लेकिन  प्रकृति  ने  मुझ  संग धोखा किया

कल्पतरु   के  दो  फ़ूल, जो  स्वर्ग  में  हैं

महक  रहे, उन्हें  यहाँ  लाने तक नहीं दिया

जहाँ-जहाँ पीयूष कुंड था,वहाँ पहरा लगा दिया


लेकिन  आत्मसिद्धि  से आवृत मनुज

सोचा, जीवन  के रण-प्रांगण के बिना

कोई नर अमर नहीं हो सकता, उसने

प्रकृति  के संग अपना रण छेड़ दिया


दोनों  के  तलवारों  में धार तेज थी

दोनों   एक   दूजे   पर  टूट  पड़े 

परिजात  मंदार लताएँ मुरझाने लगीं

सृजन भूमि,मरुभूमि में बदलने लगी

प्रकृति  पर  मनुज  भारी पड़ा और 

छिन्न-भिन्न हो गई उसकी व्यवस्था


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