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परोपकार

 

परोपकार —- डॉ० श्रीमती तारा सिंह


परोपकार अर्थात पर + उपकारअर्थात नि:स्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई करना ;  परोपकार एक ऐसा गुण हैजो मनुष्य को पशु से देवत्व के पायदान पर ला खड़ा करता है । जो लोग परोपकार को धर्म ही नहींपरम पुण्य समझकर अपनाते हैंउन्हें इस लोक में तो सुख-शांति मिलती ही हैउनका परलौकिक कल्याण भी निश्चित हो जाता है ।

भारत के इतिहास और पुराणों में परोपकार के ऐसे महापुरुषों के अनगिनत उदाहरण हैंजिन्होंने परोपकार के लिए अपना सर्वस्व दे डाला । इनमें ऋषि दधिचि का नाम सर्वोपरि विख्यात है उन्होंने देवताओं की रक्षा के लिए अपनी अस्थियाँ तक दे डालींराजा शिवि ने अपने शरण में आये कबूतर के वजन का मांस काटकर दे दिया ईशा मसीह सूली पर चढ़ेसुकरात लोक-कल्याण के लिए विष पान कियेकर्ण ने अपना कवच-कुंडल सब कुछ जानते हुए याचक बने इन्द्र को दान दे दिया सिक्ख गुरुगुरु नानक देव जी महाराज ने अपने माता-पिता द्वारा सौदे के लिए दिये पैसे सेसाधु-संतों को भोजन कराकर परोपकार का सच्चा सौदा किया । इस प्रकार अनेकों उदाहरण हमारे इतिहास में हैं ।

प्रकृति का कण-कण हमें त्याग का पाठ पढ़ाता है । नदिया परोपकार के लिए बहती हैवृक्ष अपना फ़ल स्वयं नहीं खातावह दूसरों के लिए रखता हैसूर्य सम्पूर्ण संसार के जीवों का जीवन हैचंद्रमा से शीतलतासमुद्र से वर्षावायु से प्राण शक्तिसब परोपकार है । यहाँ तक कि जानवर भी विवेकशील न होते हुए भी स्वभाव से परोपकारी हैं जैसे गाय । गाय हमें दूध देती हैभैंस दूध देती हैबैल हमारी खेत जोत देता हैतो हाथी भारी-भरकम सामान ,जहाँ यातायात के साधन नहीं हैंवहाँ पहुँचाता और लाता है । नीति शास्त्र का कथन है—-

पिबन्ति नद्य: स्वयमेव नाभ्य:

स्वयं न खादन्ति फ़लानि वृक्षा:


घराघरो    वर्षाति  नात्महेतवे

परोपकाराय   सतां   विभूतिय: ॥

अर्थात नदिया स्वयं जल को नहीं पीतीन वृक्ष अपना फ़ल खातान बादल स्वयं के लिए बरसता ; ; उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति का जन्म परोपकार के लिए होता है खुद के लिए नहीं । स्वरत्नै में कहा गया है—-

रत्नाकर:  किं  कुरुते   स्वरत्नै:

विन्ध्याचल: किं करिभि: करोति

श्रीखंडखंडै     र्मलयाचल:   किं

परोपकाराय   सतां     विभूतय: ॥

अर्थात समुद्र को अपने रत्नों का क्या उपयोगविध्यांचल को हाथियों से क्या काममलयाचल पर्वत को चंदन का क्या उपयोगउसी तरह सत्पुरुषों का जन्म खुद के लिए नहीं परहित के लिए होता है ।

संत कबीर का कहना है—-

वृक्षा कभी न फ़ल भखैनदी न संचय नीर

परमारथ  के  कारणे संतन  धरा  शरीर” 

अर्थात वृक्ष कभी अपना फ़ल नहीं खातान ही नदी अपना नीर पीतीजो संत हैंसज्जन हैंवे दुनिया में खुद के लिए नहींदूसरों के परमार्थ के लिए आते हैं ।

हमारा शास्त्र कहता है—’मनुष्य योनि में जन्म बड़े पुण्य से मिलता हैइसलिए इसे यूँ खा-पीकर और घूमकर व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये । यह जनम बड़ा ही अनमोल हैइस अनमोल जीवन को इस तरह न गंवाकरहमें अपनी व्यस्तता से कुछ समय निकालकर जरूरतमंदों की भलाई में लगा देना चाहिये । इससे आत्मिक आनंद और मन को भी संतुष्टि मिलती हैजो स्वर्गीय सुख के समान होता है । परोपकार के अनेक रूप हैंजैसे— प्यासे को पानी पिलानाबीमार या घायल व्यक्ति ही नहीं जानवरपशु-पक्षी तक को अस्पताल पहुँचानाअंधों को रास्ता दिखानागिरे को उठाना आदि सभी परोपकार की श्रेणी में आते हैं । परोपकारी मनुष्य के लिए यह संसार कुटुम्ब बन जाता है ।


महर्षि व्यास ने कहा है—- ’परोपकार ही पुण्य है और दूसरों को दुख देना पाप । उनका कहना हैअपने लिए तो सभी जीते हैं यहाँ तक कि कीड़े-मकोड़े भी,लेकिन यह भी कोई जीना हैजिसमें परोपकार न हो । परोपकारी व्यक्ति मरकर भी जिंदा रहता हैलोगों की जुबां परइतिहास में सबूत के साथ,ऐसे महान व्यक्ति देव कोटि के अंतर्गत स्थापित हो जाते हैं ।  परोपकारएक ऐसा कृत्य हैजिसके द्वारा शत्रु भी मित्र बन जाते हैं । विपत्ति के समय शत्रु का उपकार किया जाय तो वह उपकृत होकर सच्चा मित्र बन जाता हैलेकिन प्रतिफ़ल की आशा रखने वाले कभी सच्चा परोपकारी नहीं हो सकते ।  गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा है—- शुभ कर्म करने वालों का विनाश न यहाँ न परलोक में होता है शुभ कर्म   करने वाले दुर्गति को प्राप्त नहीं करते । चाणक्य के अनुसारसच्चे परोपकारी व्यक्ति से किसी भी प्रकार की आपदायें दूर रहती हैं ।

तुलसीदास ने लिखा है——

परहित सहस धरम नहीं भाई

पर  पीड़ा  सम नहिं अधमाई ॥

दूसरे शब्दों में परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है ।

आत्मार्थं   जीवलोकेsस्मिन  को  न  जीवति  मानव:

परं      परोपकारार्थं    यो    जीवति    स     जीवति  ॥

अर्थात  इस  जीवलोक  में   स्वयं  के  लिए  तो  सभी  जीते  हैंपरन्तु  जो  परोपकार  के  लिए  जीता  हैवही  सच्चा  जीना  है । दूसरे शब्दों में परोपकार ईश्वर तक पहुँचने का एक सोपान है इसलिए हमें यथाशक्ति परोपकार करते रहना चाहिये ।

राजा भर्तहरि पहुँचाने  ने  नीतिशतक  में  लिखा  है —– सूर्य  कमल  को  स्वयं  खिलाता हैचन्द्रमा कुमुदिनी  को  स्वयं  विकसित  करता   हैबादल  स्वयं  बरसता  है । उसी तरह श्रेष्ठजन अपने आप दूसरों की भलाई में दिन-रात लगे रहते हैं । इससे हमें यह संदेश मिलता है कि हमारे जीवन का उद्देश्य भी इन्हीं की तरह होना चाहिये ।

हमारे सारे वेदों का सार भी यही है—- उत्तम बनकर उत्तम कार्य करेंऔर यही सभी तरह के पापों से मुक्ति और मोक्ष पाने का एकमात्र तरीका है । यग्य तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन परोपकार नहीं है ।


अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है — ’ प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य बनता हैकि संसार से वह जितना लियाउतना अवश्य लौटा देतभी उसके जीवन  की शोभा बढ़ेगी । परोपकार प्रवृति को अपनाने का अर्थ होता है ईश्वर की रची श्रृष्टि की सेवा करना ।

परोपकार देखने में भले ही घाटे का सौदा लगता होमगर है बड़ा लाभकारी । महात्मा गाँधी को परोपकार करने से जो गौरव और सम्मान मिलादेशभक्त भगत सिंह को फ़ांसी पर चढ़ने से जो प्रसिद्धि मिलीभगवान बुद्ध को अपना महलराजपाट छोड़ने से जो ख्याति मिली यह सब परोपकार का ही सुगंध हैऔर यही एकमात्र रास्ता भी हैपरमात्मा के प्रति अपना आभार प्रकट करने का ।

पाश्चात्य विद्वान विक्टर ह्यूगो ने लिखा है— परोपकार के लिए हम जितना अपने को जुटाते हैंउतना ही हमारा हृदय आनंद से भरता है । परोपकार से मनुष्य की केवल चेतना ही विकसित नहीं होतीउर्ध्वमुखी भी होती हैजिससे खुद में एक पूर्णता का अनुभव होने लगता हैऔर हमारी आत्मा असीम तृप्ति का अनुभव करती है ।

इस संसार में सारे साधनाओं का फ़ल दूरगत होता हैबस एक मात्र परोपकार ही ऐसी साधना है ,जो सुखशांतिऔर संतोष के रूप में एक हाथ करोदूसरे हाथ मिलता है । परोपकार से उपजा हुआ संतोषस्वार्थजन्य सुख के बराबर होतायह कहना कदापि सही नहीं होगा । दोनों में आकाश-जमीं का फ़र्क हैवहीं दूसरा सत्य और कल्याणकारी होता है । निष्ठापूर्ण परोपकार करने से अपने अंत:करण में देवी भावना का जागरण होता हैइसलिए परोपकार परम धर्म ही नहींपरम पुण्य भी है ।

आज हम संसार अथवा समाज का जो भी विकसित रूप देखते हैंयह सब हमारे पूर्व -पुरुषों का ही उपकार हैयदि वे अपने ग्यानपरिश्रमपुरुषार्थ एवं उदार भावना द्वारा प्रगति एवं विकास के बंद द्वार न खोज पातेतो आज मनुष्य जाति यहाँ नहींबल्कि अतीत के बंद कपाटों से सिर मार रही होती । हमइस उपकार के लिएसदा ही अपने पूर्वजों के ऋणी हैं और रहेंगे मात्र इतना ( ऋणी शब्द ) बोल देने से हम  उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकते । यह कर्ज केवल उपकार से चुकेगासेवासहयोगत्याग और बलिदान के बल पर जिस प्रकार संसार आगे बढ़ा हैइन्हीं प्रवृतियों द्वारा यह और आगे बढ़ेगा । इसलिए परोपकार की ये  प्रवृतियाँ चलती रहनी चाहिये इसे एक व्रत मानकर निष्ठा के साथ करते रहना चाहिये ।


हमें जन्म देने वालाहमारे सृजनकर्ता ने मानव को इतना सक्षम बनाया है कि वह चाहे तो अपने कर्मों से ईश्वरीय सिंघासन पर बैठ सकता है । यही कारण है कि मानव योनि में जन्म लेने के लिए देवता भी तरसता है इसलिए मानव जनम पाने के लिए  परमात्मा के प्रति हमें अपनी कृतग्यता प्रकट करनी चाहियेऔर परोपकार से बढ़कर इसके लिए दूसरा सुंदर कोई उपाय नहीं है । उपकार का प्रत्युपकार हम उसकी सृष्टि को दें अर्थात संसार के प्राणियों को सुखी तथा संकट-रहित बनाकर ।





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