Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पंचतंत्र के सपूत

 

पंचतंत्र के सपूत


पंचतंत्र के सपूत, व्यथित, परेशान प्राण

जब अपने जीवन से लोभ नहीं तुमको

तब पश्चिम की जलधि में, तिल-तिलकर

दिनमान को डूबता देख, तुम क्‍यों हो हैरान


क्या तुम सोच रहे, ज्यों छोड़ अकस्मात

अवनि को सूरज खोने चला उर्ध्व गगन में

त्यों मैं भी किसी रोज, इस बंधन विहीन

धरा को छोड़, विलीन हो जाऊँगा, निष्ठुर

नियति के, इस परिवर्तन के क्रम में


मेरा ही रुदन, शिशिर कण बन

छलकता, कोमल उषा की पलकों पर

मेरे ही दुख से व्यथित होकर सागर में

लहरें उठतीं-गिरतीं, गरजतीं-बजरतीं

पगली-सी दौड़तीं निरवधि पथ पर


मृत्तिका पुत्र, मिट्टी का क्षीर पीने वाला

मूर्ख हो तुम, यह सब जीवन क्षीण

होती जा रही लाली का भ्रम है तुम्हारा

वरना, प्रकाश की रश्मि जब नक्षत्रों से

खेलने आती, संध्या क्यों हो जाती उदास

पेड़ों से लिपटी लताओं को देख, रो-रोकर

अपने वेकली का भेद, खोलता क्यों आकाश


मुझे तो ऐसा लगता, सहस्रों, अरबों

खरबों सालों से अंधकार में जीता आ

रहा मनुज, ताप कलुष है, तभी तो कहता

मन की शिखा बुझा दो, जबकि वह यह

भलीभाँति जानता, आग बुझा देने से

पौरुष शेष को वह नहीं रख पायेगा जिंदा


कलिका तुम्हारे कलेजे की मलि नहीं जाती, फिर

देख, चकोर के प्रति शशि की निर्ममता

तुम्हारी आँखों से अश्रु झर-झरकर क्यों झड़ता

शक्ति के तार तो तुममें बचे नहीं, बनूँ मैं

वीणा की तान, नहीं तो तोड़-मरोड़कर

बंद कर दूँगा जीवन का गान, हो जायगा

व्यथामय जीवन अवसान, ऐसा क्यों सोचता


रजनी के अंतिम पहर में, निराशा बीच

पीड़ाओं की भाषा में, रोती अभिलाषा के

रंग से, विरही का चित्र क्‍यों रंगता

खड़ा होकर उस पथ पर, जो पथ मरघट

की ओर जाता, शोर क्यों मचाता


मेरी मानो, जीवन सुख है या विकट पहेली

सबसे पहले स्वागत किसका करूँ, कौन भली

छोड़ दो करना, अब इन सब बातों की चिंता

प्रकृति संग जीवन संघर्ष निरंतर चलता आया है

रवि-शशि-तारा भी नहीं है इससे अछूता

तरल अग्नि की दौड़ लगी है सबके भीतर

उदधि बना मरुभूमि, जलधि से ज्वाला जलती

हिम-नग गलकर सरिता बनता, टिकने को

कब मिला यहाँ, किसी को सुभीता

 


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