Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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दहन मनुज का धरम है

 

दहन मनुज का धरम है


काटना चाहती, मगर काट नहीं पाती

नियति, मेरे लघु जीवन का क्षीण तार

फिर भी नित करती, मेरे व्यथामय

जीवन पर, तीक्ष्ण वाणों से प्रहार


कभी काढ़कर मेरे हृदय लहू को

पीड़ा की कसौटी पर चढ़ाकर औंटती

कभी मुक्ति को ललक रहे पलकों पर

रुदन को हास बनाकर छलकाती

कहती, वेदना के इस परम उन्नत

शिखर से, भुवन लगता तुच्छ क्षार

रहे आबाद पीड़ा, जिसकी प्रेरणा से

प्राण, कूल को चूमने उठता बार-बार


ऐसे भी दहन मनुज का धरम है

मरण है, त्योहार इसलिए

महाकाल जब तक, मौन त्यागे

अपने व्यथित प्राण की वर्ति बना

जीवन दीप जलाती चलो, वही

ले जायेगा तुमको भव-बंध के पार


मत अधीर हो, मत भरो, सिसकियों में चित्कार

रोग, शोक, संताप मिलाकर ढला है संसार

मिथ्या है तर्क तुम्हारा, वृथा है तर्क का आधार

निस्सीमता के आगे बसता नहीं, जीवन का सार

जब कि काल की साँस है निस्सीमता

इसमें पचा हुआ है, प्राणी-जीवन का आकार

जिसे तुम सुन नहीं पाती, फूटती नहीं झंकार


अगर ऐसा नहीं है, तो फिर तुम क्‍यों

सुना रही अपनी मूर्त वेदना के

गीतों को बड़े-बडे शब्दों में ढाल

धुन रही मस्तक, धुनता देख संसार

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