Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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दद्दू का ठेलागाड़ी

 

दद्दू का ठेलागाड़ी


           बाल्य अवस्था के पश्चात ऐसा समय आता है, जब उद्दंडता की धुन सर पर सवार हो जाती है| इसमें युवाकाल, जिसकी कोई सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, यह तो दुर्लभ और असाध्य को भी मुँह का कौर समझती है; तरह-तरह की मृदु कल्पनाएँ चित्त को आंदोलित किये रहता है| अपनी क्षमता पर इतना विशवास रहता है, कि भविष्य की बाधाएँ झूठी लगती हैं| इस कल्पना से उन्हें गर्वयुक्त आनंद मिलता है, रामधन के पिता ‘’ज्ञानशंकर’’ ने भविष्य चिंता का पाठ नहीं पढ़ा था| कल की चिंता उन्हें कभी नहीं सताती थी, समस्त जीवन भोग-विलास, काम-लिप्सा की रक्षा में व्यतीत कर दिया| इन्द्रिय सुखभोग में, पूर्वजों से मिली, अधिकांश संपत्ति बर्वाद कर दिया| उनकी नजर में संपत्ति, मर्यादा-पालन का साधन-मात्र था| जो धन उनके ऐशो-आराम में लगता था, उसे ही वे श्रेयस्कर समझते थे| उस नशे में उन्हें यह भी ख्याल नहीं रहा, कि मैंने अपने ही घर के दीपक को बुद्धि और शिक्षा के तेल बिना ही रख दिया है| जब मेरे जीवन-रूपी शाम में अंधेरा छायेगा, तब वह जलेगा कैसे, और हुआ भी वही, जो होना चाहिए था|  

             ज्ञानशंकर दंभ के आवेश में बहता हुआ, अभाव की तंग दीवार से टकराकर एक शाम दम तोड़ दिया| पिता के बिछड़ने का शोक रामधन को अवश्य हुआ, पर शीघ्र ही चित्र स्थिर हो गया| क्रोध शांत हो गया, वह संज्ञाशून्य हो गया| सारे मनोवेग शिथिल पड़ गए, केवल आत्मवेदना का ज्ञान उसके दिल को आरे के समान चीर रहा था| रामधन भविष्य की अपार चिंताओं के भार से दबा हुआ, निर्जीव सा पड़ा था, तभी किसी ने द्वार पर आवाज लगाई, कोई है? रामधन का बेटा,सुखमंगल दौड़कर दरवाजे पर आया, देखा एक सेठ खड़ा है, और वह आँगन में जाकर पिता रामधन को बताया---- बाबू! तुमसे मिलने, कोई सेठ आये हैं| सुनकर रामधन का मन एक क्षण के लिए हरा हो गया| सेठ जी के इस कृपा से वह पुलकित हो उठा, और मन ही मन कहा---- धन्य हैं, ये पुण्यात्मा लोग, जो मुसीबत में गरीबों की रक्षा करते हैं|

           रामधन अंगोछे से आँख के आँसू पोछते हुए, देखा---- सेठजी के अतिरिक्त एक और सज्जन खड़े हैं|

सेठ, रामधन को देखते ही बोल पड़ा---- तुम्हारे पिता की असमय मृत्यु से हमें कितना दुःख हुआ, हम बता नहीं सकते| अब हमारा धर्म बनता है, कि तुम्हारी रोजी-रोटी के लिए कोई काम निकालें जिससे कि तुमको भी दो पैसे मिलते रहें 

और हम भी निश्चिंत रहें|

रामधन भयभीत होते हुए पूछा---- कैसा काम सेठ; आप मेरे माँ-बाप हैं, आपको मेरे घर का हाल मालूम है| मैं तो पढ़ा-लिखा नहीं हूँ सेठ! 

सेठ प्रसन्न होते हुए कहा---तुमको यह सब कहने की जरूरत नहीं है| आज से तुम हमारे घर के सदस्य हो गए, और घर के सदस्यों के साथ क्या धर्म बनता है, वो हमलोग भलीभाँति जानते हैं| 

सेठ, रामधन की ओर नजर कर कहा---- अच्छा तो चलते हैं; कल दूकान पर आ जाना|

रामधन गंभीर स्वर में फिर पूछा---- काम क्या करना है, और मेहनताना क्या मिलेगा? पेट पर कपड़े बाँधकर तो काम नहीं होगा| 

रामधन की बात सुनकर दोनों सेठ के कदम वहीँ रुक गए, और बोले---- ठेले पर माल लादकर, एक जगह से दूसरी जगह ले जाना, रोज 300 रुपये मिलेंगे| 

रामधन, सेठ की बातों का उत्तर न देकर सोचने लगा---- यथाशक्ति, मैं ऐसा कोई काम नहीं कर सकता, जिससे हमारे पूर्वजों की उज्जवल बिरादरी में कालिमा लगने का भय हो; फिर दूसरे ही क्षण सोचा, काम कोई भी हो, बड़ा-छोटा नहीं होता| ऐसी सोच मेरा आत्मपतन और सामाजिक भीरुता है| 

              अरुणोदय का समय हो रहा था, रामधन पाँव दबाता, मोहल्ले के लोगों से आँख बचाता, सेठ के गोदाम पर चल दिया| प्रति-चरण उसे अपने मृत पिता का दम्भी चित्र उसके नेत्रों में भ्रमण करता रहा| गोदाम पर जाकर, जब उसने ठेले को छूआ, सिर से लगाया, तब पिता का स्वरूप साक्षात नेत्रों के सम्मुख आ गया| रामधन का शोक शांत भी नहीं हो पाया था, कि सेठ ने कड़ककर कहा---- यहीं खड़े रहोगे, या माल भी लादोगे? 

रामधन, सेठ का कृपापात्र बने रहने के लिए, ठेले पर जल्दी-जल्दी माल लादने लगा| रामधन सेठ से कुछ पूछने वाला ही था, कि गोदाम से एक दूसरा ठेलेवाला निकला और कहा---- इसे कन्हैया लालजी की दूकान में पहुँचा दो और हाँ, जल्द लौटकर आ जाओ| दूसरी जगह से भी, माल भेजने का आर्डर आ गया|

रामधन---- ठीक है भैया, बोलकर माल पहुँचाने चला गया|

              ठेला खींचते, रामधन को 20 साल हो गए| बच्चे को शिक्षा तो नहीं दिलवा सका, हाँ, किसी तरह दो जून की रोटी, अवश्य मिलती रही| देखते-देखते, रामधन के दोनों बच्चे बड़े हो गए| अब तो उनके भी आठ साल के बच्चे हैं, जो बगल के ही एक सरकारी स्कूल में पढने जाता है, नाम है विक्रम| एक दिन विक्रम (रामधन का पोता) स्कूल से लौटते वक्त देखा कि दद्दू खाली ठेलागाड़ी लेकर घर लौट रहे हैं| 

विक्रम---- दद्दू!, दद्दू! रुक जाओ| जोर-जोर से आवाज लगाता हुआ, दद्दू के पास आया और दद्दू के हाथ से ठेला अपने हाथ में लेते हुए कहा---- दद्दू! कितनी अच्छी बात है कि आज ठेलागाड़ी खाली है, एक काम करो, रोज-रोज ठेला खींच-खींचकर तुम थक चुके होगे| आज तुम ठेले पर बैठ जाओ, मैं खींचूंगा|

सुनकर रामधन का कलेजा द्रवित हो उठा, उसने अंगोछे से अपनी आँख के आँसू पोंछकर कहा---- नहीं बेटा! आज सेठ ने माल नहीं दिया, इसलिए घर वापस जा रहा हूँ| एक काम करो; तुम बैठो, मैं खींचूंगा| तुम्हारे हाथ कोमल हैं, दर्द होने लगेंगे| पर विक्रम् कब मानने वालों में था; दादा का हाथ पकड़कर कहा---- दर्द-वर्द कुछ नहीं होगा दद्दू , मैं तुम्हारी तरह बूढा नहीं हूँ, देखो मेरे हाथ---- इनमें तुम्हारी हाथ की तरह कहीं झुर्रियाँहैं? नहीं हैं न, इसलिए तुम ठेले पर बैठ जाओ, वरना मैं तुमसे रूठ जाउंगा|

               अपनी आत्मा के दर्द की झलक  को विनोद की आड़ में छिपाए हुए दद्दू मुस्कुराये, कहे---- ठीक है, मैं ही बैठ जाता हूँ, पर एक बात का ख़याल रखना बेटा, ठेले को ऊबड़-खाबड़ जमीं पर ज़रा संभालकर चलाना, वरना टूट जाएगा| 

विक्रम ख़ुशी से उछल पड़ा, बोला---- दद्दू! टूट जाए, यही तो मैं चाहता हूँ, इसके टूटने के बाद ही तो तुम, नया ठेलागाड़ी लावोगे| 

विक्रम की बात सुनकर, रामधन कई मिनट तक आश्चर्यान्वित हालत में खड़ा रहा, मानो सारी ज्ञानेन्द्रियाँ शिथिल हो गई हों| इसके पहले भी उस पर बड़े-बड़े आघात हो चुके थे, पर इतना बदहवास वह कभी नहीं हुआ था| उसके ह्रदय में विक्रम की कही बातें, बर्छियाँ चला रही थीं| उसने विक्रम की क्षणिक ख़ुशी के लिए कहा---ठीक है बेटा!

              दूसरे दिन विक्रम जब स्कूल पहुँचा, उसके मुख पर एक अजीव सी ख़ुशी देखकर, उसके गाँव के सरपंच का पोता ‘’अवधेश’’ ने पूछा---- क्या बात है, विक्रम, आज बड़ी खुश दीख रहे हो? 

विक्रम,अपना कान हिलाते हुए कहा---- बात ही कुछ ऐसी है, तुम सुनोगे, तो तुम अभी स्कूल छोड़कर अपने दादा से मिलने घर चले जावोगे| पता है, अवधेश---- मेरे दादा, मेरे लिए शीघ्र एक नया ठेला-गाड़ी खरीदने वाले हैं| पहले वाली, जिसे गरीबन-बाई ने आज से 30 साल पहले मेरे दादा को दिया था, वह पुरानी हो गई है, अब टूटने लगी है; है न ख़ुशी की बात?

विक्रम की बात सुनकर अवधेश कुछ देर दुविधा में खड़ा रहा, फिर तीर की तरह स्कूल से निकल भागा, और अंधाधुंध भागता हुआ अपने दद्दू अमरकांत जी के पास पहुँचा| अवधेश को हाँफता हुआ देख, दादा चिंतित भाव से पूछे---- क्या बात है बेटा विक्रम, तुम हाँफ क्यों रहे हो? 

अवधेश अपने मुँह का पसीना पोछता हुआ तीव्र कंठ से बोला---- दद्दू! मुझे भी एक नया ठेला गाड़ी खरीद दो|

सुनकर अमरकांत के रोम-रोम से ज्वाला निकलने लगी| वे अवधेश के कंधे को दोनों हाथों से झकझोड़कर बोले---- ठेला गाड़ी क्या करोगे? 

अवधेश, दद्दू की तरफ भयातुर आँखों से देखते हुए बोला---- ठेलागाड़ी, मैं चलाऊँगा| जानते हो दद्दू, मेरा दोस्त, विक्रम है न, उसके दद्दू उसे नया ठेलागाड़ी खरीद देंगे| वह भी बड़ा होकर अपने दद्दू की तरह ठेला खींचेगा| 

अमरकांत क्रोध से उन्मत्त होकर अवधेश के गाल पर एक तमाचा जड़ दिया और कहा---- तुम्हारी बुद्धि मारी गई है ,पता है तुमको, ठेला कौन खींचता है,जो लोग गरीब होते हैं| उन्हें अपनी जीविका चलाने के लिए पैसे चाहिए होते हैं, जिसके लिए वे ठेला खींचते हैं| तुम्हारे दद्दू के पास पैसे हैं, खेत है, तुम क्यों ठेला खींचोगे? 

अवधेश, उदासी भाव से पूछा---- दद्दू! उनके पास पैसे नहीं हैं, तो वे नया ठेलागाड़ी कैसे खरीदकर विक्रम को दे रहे हैं? तुम कहते हो, तुम्हारे पास बहुत पैसे हैं, तब भी खरीदना नहीं चाहते हो| मैं समझ गया, तुम अच्छे दद्दू नहीं हो; बोलकर रोता हुआ अवधेश, जाकर अपनी माँ की गोद में, गुमसुम बैठ गया| 

 


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