Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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क्यों ढूंढ रहा हूँ मैं अपना अक्स ?

 

क्यों ढूंढ रहा हूँ मैं अपना अक्स (प्रतिरूप)
सामने वाले आदमी के आईने मेँ ?
जब कि मुझे मालूम है
उनकी भी नहीं है कोई 'पहचान'
मेरी ही तरह.
करता हूँ बहुत कोशिश
समझने की, यह कि -
जब उनकी भी नहीं है कोई खास 'पहचान'
क्यों झाँककर उनके वज़ूद मेँ
काँट-छाँट कर उनके वज़ूद को
कुछ-कुछ अपना-सा बनाकर उनकी परछाई को
बन जाना चाहता हूँ
क्यों मैं उनसे-भी बेहतर ?
और फिर....
रीझ-रीझ जाता हूँ क्यों मैं
अपने को कुछ-कुछ उन-सा पाकर
जब सुनाई देती हैं मुझे
कर-तल ध्वनियाँ उनकी या उन-जैसों की,
यह जानते हुए भी कि
'उस-सब' मेँ
उस बिंबित प्रतिबिंब मेँ
कहीं भी नहीं हूँ मैं,
उस-सारे मेँ 'कुछ' भी नहीं हूँ मैं ?
क्यों नहीं बन पाता
क्यों नहीं बन पाया मैं 'स्वयं' सा
वैसा ही...जो हूँ मैं
और
जो चाहिए था मुझे होना ?
उन-सब मेँ खोकर
बनना चाहता हूँ क्यों मैं
'भार' अपना
'अपने-आप' पर ही ?
यह नहीं जानता क्या मैं
कि
इस 'मनुष्य'-रूपी 'दो-पाये' मेँ
बस गए हैं आकर
'दो-मुहे' साँप
खटमल या मच्छर जैसे
न जाने कितने परजीवी ?
फिर भी ??
देखता हूँ
सिंह जैसा भारी पड़ने वाला 'वह'
स्वार्थ के आगे मिमियाने लगता है जब,
तब दर्पण मेँ दिखने वाला मेरा 'बिम्ब'
धुंधलाने लगता है ,
समझ नहीं पाता यह ...,
पर क्यों ?
'अकेला' हूँ, पर अकेला नहीं
मैं तो एक 'भीड़' हूँ
हैं एक-साथ बहुत-कुछ ...
बहुत सारे मुझमें,
पर जो नहीं है इन सबमें
वह नहीं है तो केवल
'मैं' ही नहीं हूँ.
'क्यों नहीं हूँ मैं ?'
यह जानता यदि 'मैं'
तो
जान न जाता
अब तक अपने को !

 

 


--डॉ. सुरेन्द्र यादव, इंदौर

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