Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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माँ का दूध सस्ता क्यों ?

 

माँ का दूध सस्ता क्यों ?

जेठ का महीना था , आकाश से आग के गोले बरस रहे थे | लखन अपने गाँव के बाहर बने चंडीस्थान में एक पीपल के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठा, ठंढी हवा खा रहा था | लोग अपने-अपने घरों में पड़े थे | कहीं कोई आवाज नहीं थी बस, जब-तब भैसों और बैलों के डकारने की आवाज अवश्य सुनाई पड़ती थी | तभी उसे य़ाद आया, कई सालों से घर का खपरैल नहीं बदला गया | भादो करीब है, इस बार कुछ न कुछ करना ही होगा , सोचता हुआ लखन घर की ओर चल दिया | दरवाजे पर पहुँचते ही उसे मुन्ना के चीख-चीखकर रोने की आवाज सुनाई पड़ी | वह चिंतित,परेशान दौड़ता हुआ आँगन में पहुँचा, देखा --- मुन्ना के शरीर में जितनी ताकत है , सब रोने में लगाये हुए है | उसने झटपट मुन्ने को गोद में उठाया, चूमा, पूछा ------ मेरा प्यारा बेटा, आप क्यों रो रहे हैं ? क्या, माँ ने मारा ?
मुन्ना, सिर हिलाकर कहा--- नहीं |
लखन विस्मित हो पूछा--- तब आप क्यों रो रहे हैं ?
मुन्ना ,अपनी माँ की ओर ऊँगली से इशारा कर कहा--- उसने मुझे आज दूध पीने नहीं दिया ; कहती है --- घर में दूध नहीं है |
लखन, दार्शनिक विवेचना के भाव से , मन ही मन बुदबुदाया, कहा--- जो काम खुद न देखो , वही चौपट हो जाता है | उसने मुन्ना को गोद में उठाया , एक लोटा लिया , और बोला---- चलिये, हमलोग अभी शम्भू चाचा के यहाँ से भैंस का दूध ले आते हैं | चलते-चलते लखन, पत्नी देवकी की ओर, एक बार उन्मत्त नेत्रों से देखकर पूछा --- क्या तुम्हें भी हमारे साथ चलने का मन है ?
देवकी, व्यंग्य कर कही--- यह कैसा नेवता , जाइये मैं नहीं जाती | ले चलना था, तो तब क्यों नहीं कहा, जब बेटे को आप साथ चलने का नेवता कर रहे थे |
पत्नी की नाराजगी देखकर लखन के पाँव द्वार पर ठिठक गए | उसके पग बाहर न बढ़ सके, मानो पत्नी की नाराजगी उसके धैर्य और मनोबल के ह्रास का सूचक है | यह देखकर देवकी को अपनी निठुरता पर खेद हुआ , उसने अपने कमलमुख को प्रेम -सूर्य की किरणों सी विकसित कर , सतृष्ण नेत्रों से लखन की ओर देखकर कहा ---अभी तक आप यहीं हैं, गए नहीं ; जल्दी जाइये, वरना दूध नहीं मिलेगा ; फिर मुन्ना इसके बाद तो और अधिक रोयेगा | लखन हर्षित हो, आनंद

सागर में डुबकी लगाते हुए ईश्वर का धन्यवाद किया और कहा --- प्रभु ! आज तो मैं प्रेम की कसौटी पर उत्तीर्ण हो गया, आगे भी ख्याल रखना |
देवकी उन माँओं में थी, जिसकी नसों में सन्तान-सुख के लिए , रक्त की जगह त्याग बहता था | लखन की तरह वह भी चाहती थी , कि अपने बेटे के जीवन-प्रभात में , लालसा -ह्रदय के सारे आकाश को माधुरी की सुनहरी किरणों से रंजित कर दूँ | मगर जिस गृहस्थी में पेट भर रोटियाँ भी न मिले, वहाँ दूध की बात कैसे सोच सकती थी , निराशा ह्रदय में आतंकमय कम्पन डाल रखा था | जीवन-यापन के लिए पूर्वजों से मिली दो बीघे जमीन थी | सिवा और कुछ नहीं था , जिससे खींच-तान कर घर चल पाता था | यूँ तो लखन ज्यादा तो नहीं , पर थोड़ा पढ़ा-लिखा व्यक्ति था | वह चाहता तो शहर जाकर , दौड़-धूपकर रोटी की व्यवस्था कर लेता, मगर वह चाहता था कि शहर जाने से पहले , देवकी और मुन्ने के खाने-पीने का बंदोवस्त आवश्यक है | इसी चिंता में पड़े-पड़े दिन कट जाता था , मगर जाना कभी संभव नहीं हो सका |
परिस्थिति ने देवकी और उसके परिवार का आमोद-प्रमोद भूल जाने के लिए विवश कर रखा था | उसका स्वयं का भी मानना था, ‘’ जितनी लम्बी चादर हो, आदमी को उतना ही पैर पसारना चाहिए ‘’ | ऋण लेकर खर्च करने वाले लोग जब जीवन भर तपस्या कर भी ऋण-मुक्त नहीं हो पाते , तब उनका संयम निराशा में परिणत हो जाता है , जो मैं नहीं चाहती | आदमी अन्न बिना मर सकता है , दूध बिना नहीं , इसलिए अपने बेटे को अगर भैंस के दूध बिना ही बड़ा करना पड़ा , तो करूँगी | आखिर कोई दूसरा रास्ता भी तो मेरे पास नहीं है, अब तो परिवार की आवश्यकताएँ घटते-घटते संन्यास की सीमा को पार कर चुकी है |
देवकी , पति और मुन्ने के आने के इन्तजार में दरवाजे पर जब्त बैठी , सोच रही थी ---- आगे जीवन कैसे कटेगा, जब मुन्ने के स्कूल का खर्च ,किताब-कोप़ी, पोशाक खरीदनी होगी ; कहाँ से पैसे लाऊँगी ? मजदूरी का विचार आते ही काँप गई | उसकी आँखें बंद हो गईं , और जीवनाभाव की सारी स्मृतियाँ,स्वप्न-चित्रों की तरह बेमेल, विकृत और असंबंध आने लगी | पहले वह सुखद अवसर आया, जब वह चिंतामुक्त हो, बचपन में गुडवा-गुड़ियों से खेलती
थी ; फिर आया, लाल चुनरी ओढ़े ससुराल जा रही है | उसके बाद उसने एक बेटा को जनम दिया , जिसे छुपकर अपने स्तन का दूध पिला रही है ,कि अचानक किसी के पदचाप की आहट से उसकी आँखें खुल गईं | देखी, सामने लोटा में दूध लिये लखन ,मुन्ने के साथ खड़ा है | उसने पति की तरफ एक बार करुण भाव से देखी, फिर लखन के हाथ से दूध का लोटा लेकर आँगन में चूल्हे पर गरम करने चली गई | चूल्हा सुलगाती, लखन से पूछी ---- क्या जी, सुनती हूँ आजकल दूध के दाम बहुत बढ़ गए हैं |
लखन, सिर हिलाकर कहा--- हाँ देवकी, एक किलो दूध के दाम पूरे पचास रुपये लिये |
देवकी नम्रता से पूछी--- ये तो रहा भैंस के दूध की कीमत, बकरी के दूध किस भाव हैं ?
लखन, बिना लाग-लपेट का बोला ---चालीस रुपये |
देवकी आहत स्वर में कही -----जानवरों के दूध का दाम बढ़ रहा है , और माँ के दूध का दाम घटा जा रहा है | क्या लखन--- माँ, गाय-बकरी से भी गयी गुजरी है ?
लखन, देवकी के निराशा में डूबे हुए शब्द को सुनकर , इतना व्यथित हुआ कि उसकी आँखों से पानी निकल आया | उसने एक बार मुन्ना की ओर देखा, देखते ही उसके मन में हर्ष की जगह एक अव्यक्त शंका उत्पन्न हुई | ऐसे तो लखन भविष्यवाणी का कायल नहीं था, लेकिन पत्नी के मुंह से अनिष्ट की बातें सुनकर, जिसके त्याग ने उसके आत्मज्ञानी होने में कोई संदेह न रखा , उसका ह्रदय कातर हो गया | इस समय उसके ह्रदय की संचित आशा कहीं बिखर गई , उसके जीवनाभिनय में अब एक और दृश्य का सूत्रपात हुआ ; जो पहले से ज्यादा दुखद था | अभी दश मिनट पहले उसकी आशा उस नौका की तरह था , जो तट पर सही सलामत पहुँचती दीख रही थी, मगर देखते ही देखते , मझधार में फंसकर चक्कर काटने लगी | दृष्टि की परम सीमा की निधियों का भव्य, विस्तृत -उपवन मरु में तब्दील हो गया | लखन की विषाद चिंताओं का यहीं अंत नहीं था, उसकी प्रसन्नता एक क्षण में लुप्त हो गई थी , और नयी चिंताएँ आँखों के सामने फिरने लगीं | उसे देखकर लगने लगा , मानो कोई जीर्ण रोगी किसी उत्तेजक औषधि के असर से एक क्षण के लिये चैतन्य होकर फिर से मूर्च्छित हो गया हो |
लखन सोचने लगा, खुद को मानवता का पुजारी बतानेवाला मानव, आज उस देवी माँ को, जिसका दूध, अमृत समान लहू बन नसों में दौड़ता है, उसे ही आदर न दे पा रहा है , जिसकी वह हकदार है | जब वह पेट में था, जिसे वह देखी तक नहीं थी तब अपनी आशा के तुंग शिखर पर चढ़कर ऊपरवाले से आँचल फैला-फैलाकर संतान की ख़ुशी की, सलामती की दुआ माँगती थी , कहती थी--- हे ईश्वर ! अगर मैंने थोड़ा भी कोई अच्छा कर्म किया हो , तो उसका फल मेरे कोख में पल रहे, मेरी संतान को देना, और उसके भाग्य का मलिन दिन ,मेरे भाग्य संग जोड़ देना, जिससे कि मेरी संतान स्वस्थ और नीरोग होकर जीये | क्षण भर में ही लखन का मुखमंडल वर्णहीन हो गया | यह सोचकर , कि मैंने जिस घर को एक युग में अविश्राम उद्योग से बांधा , बनाया; आने वाला कल, क्या यह घर मेरे लिए उस तरह भूमिस्थ हो जायगा; मानो उसका कोई स्तित्व ही नहीं था | वह केवल मेरी माया रचना थी, तब जीवन कितना निरर्थक हो जाएगा | वह त्याग,तपस्या जिसके पीछे मैं आँखें तेज करके चल रहा हूँ ,एक दिन ये मुझे घातक भंवर में डालकर मेरी दुर्गति और उपहास पर खुश होंगे | मेरी प्राण-पीड़ा पर तालियाँ बजायेंगे | उससे भी जब दिल नहीं भरेगा, तब दूध पिलाकर बड़ा करने वाली माँ को दंडस्वरूप (वृद्धाश्रम) कालापानी भेज देगा | तो क्या, वह इस तरह अपनी माँ को, उसके त्याग का ईनाम देगा ? यह सब सोचकर वह जोर से रो पड़ा, आँसू की झड़ी लग गई | उसका शोक और अथाह हो गया , जिसमें उसके चित्त की समस्त वृत्तियाँ इस अथाह शोक-सागर में निमग्न हो गईं |




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