Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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चाहती हूँ ,मैं भी अमर हो जाऊँ

 

 

चाहती तो मैं भी हूँ, अमावस की
अमर गोद में डूबकर, अमर हो जाऊँ
अंगारे को गूँथकर गले में पहनूँ
अणु-अणु में संचित कर वेदना का गान
युग-युग की तुम्हारी पहचान बन जाऊँ

 

 

अपने मृदु पलकों को मुँदकर
दुख की मरकत प्याली से,अतीत को
पी लूँ , बूँद-बूँद कर आँसू छलकाऊँ
अंगारे का पुष्प सेज सजाऊँ
सोकर भस्म शेष रह जाऊँ

 

 

तुम्हारी स्मृतियों के तार को,अपने स्वर
तरंग से, सूने नभ को झंकृत कर दूँ
सो रहे तारक – किरण - रोमावली
नीड़ों में अलस विहग, को जगा दूँ

 

 

जगाकर उनसे पूछूँ, निष्ठुर देवता समान
क्यों सुनते हो मेरी व्यथित पुकार
तोड़कर अग्नि में जला दो मुझको
होगा तुम्हारा मुझपर सबसे बड़ा उपकार
तुम क्या जानो,बुझ गई जिसके पथ की ज्योति
छिन गया जिसके मधुमय रात्रि का प्यार
वह कैसे जीती इस दुनिया में, कैसे सहती
छाती पर धात्री के धौसों की दुतकार

 




मगर मेरे जीवन के भाग्य विधाता
कहाँ से लाऊँ मैं तुम्हारा नाम -पता
तुम तो ठहरे उस दूर देश के वासी
जहाँ से मंथर जल के बिंदु चकित हो
ढुल , गिर पड़ते होकर विचलित
ऐसे में वहाँ न खत भेज पाती,न खबर ही
छलकता यौवन का मधुकोश
तुम तक कहाँ ,कैसे ,किस तरह पहुँचाऊँ
अपने छोटे से जीवन की बड़ी कथाएँ
लिखकर इस भुवन में ,कहाँ- कैसे धरूँ

 

 

 

डा० श्रीमती तारा सिंह

 

 

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