Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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भाषा की अग्यानता

 

कभी-कभी एक दूजे की भाषा को न जानने-समझने के कारण कितनी बड़ी-बड़ी गलतफ़हमियाँ और दिक्कतें हो जाती हैं ; जिसका कि हमें पहले से कोई अंदाजा नहीं रहता । जब घटना घट जाती है, तब समझ में आती है कि हमें अपनी भाषा के साथ-साथ दुसरों की भी भाषा सीखना कितना जरूरी है । ऐसा ही एक वाकया, शर्मा जी , अपने साथ घटित, विजय से बता रहे थे । वे किसी काम से कलकत्ता गये हुए थे । लौटते वक्त , हावड़ा से मुम्बई के लिए ट्रेन पकड़ने आये । रात के बारह बज रहे थे । दिसम्बर का महीना था, हाड़ को कंपा देने वाली ठंढ़ थी । सो ट्रेन को प्लाटफ़ार्म पर देते ही लोग चढ़ने दौड़ पड़े । कौन पहले चढ़ेगा, इसके लिए धक्का-मुक्का शुरू कर दिये । मेरे पास एक सूटकेश और एक बैग था ,जिसे लेकर चढ़ना मुश्किल हो रहा था । तभी मेरे पीछे से एक साहब, मुझे ढकेलते हुए, जोर की आवाज दी,’ उठिये, उठिये ! उठने में कितनी देर लगाता है । एक-दो बार तो मैंने उनकी बातों को नजरांदाज़ कर दिया । लेकिन जब उन्होंने मेरे बैग को हाथ से खींचते हुए कहना शुरू किया,’ आपसे बोलता है, उठिये ।’ एक तो मैं परेशान,उस पर उसका ऐसा व्यवहार; मैं अपने आप को काबू में नहीं रख सका और मुड़कर उसकी तरफ़ देखते हुए चिल्ला उठा ,’ आप पागल हैं क्या ? अभी मैं चढ़ा भी नहीं;बैठने की बात तो दूर,आप कहते हैं—उठिये,उठिये । कहाँ से उठूँ ? आप से यही बात मैं कहूँ तो, आप क्या करेंगे ?’
बुजुर्ग ,’ मैं क्या करेगा,उठ जाएगा ;तुम थोड़ा साइड तो दो हमको ।’ मैं थोड़ा सा साइड होते हुए ,’ लीजिए !’ जगह मिलते ही वे मुस्कुराते हुए चढ़ गये । मैं बाद में जब ,अपनी सीट पर आया, उनसे बोला,’ चढ़ते वक्त आपने कहा, ’थोड़ा हटो, मैं उठ जाऊँग”, लेकिन आप तो यहाँ आकर बैठ गये ।
जवाब में वे मेरी ओर देखकर मुस्कुराये और बोले,’ तुम बहुत रागता है । ’ मैं आब देखा न ताब उम्र का भी ख्याल नहीं किया और कहा,’ आपका बहुत हो गया । पहले तो मैं बैठा नहीं , आपने उठने कहा । क्या आपको ऐसा करना चाहिये ? अब आप कह रहे हैं, मैं बहुत रागता हूँ । मुझे आपके समक्ष गाना गाने का कोई शौक नहीं है । मेरी बात आपको ’राग’ लगती है ?’ तभी पास बैठे एक बुजुर्ग , मेरी ओर देखकर , जोर-जोर से हँसने लगे और कहा,’ बेटा ! उठना का अर्थ, बंगला में, ऊपर चढ़ना होता है और राग का अर्थ गुस्सा करना होता है,तान नहीं । मैं आश्चर्यचकित होकर उनके मुख की तरफ़ देखता रह गया और पाश्चाताप की घूँट पीते हुए,उनके साथ जोर-जोर से हँसने लगा । मैंने तुरत साथी मुसाफ़िरों से कहा,’ आप मुझे माफ़ कर दें ।’ वे भले आदमी थे, एक ही झटके में कह दिया,’ कोई बात नहीं , बेटा ! गलती मेरी है । अगर मैं हिन्दी सीखा होता, तो ऐसी घटनाएँ घटती ही नहीं । उनकी विद्वता को देखते हुए, मैंने भी महसूस किया और हाथ जोड़कर कहा,’ अंकिल, गलती तो मेरी भी है । अगर मैं बंगला जानता- समझता, तो आपकी बातों को इस प्रकार नहीं लेता । बुजुर्ग निहात ही अच्छे इन्सान थे; हँसते हुए बोले,’ गलती दोनों की है, इसलिए तुम स्वयं को अकेला दोषी मत समझो । हम दोनों बराबर के दोषी हैं ।

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