Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पंचभूत का मिश्रण यह जीवन

 

पंचभूत का मिश्रण यह जीवन


झंझा    प्रवाह    से      निकला      यह      जीवन 

पंचभूत  का         है         भैरव मिश्रण

इसमें    नहीं है  सुख  का एक  भी  कण

तभी तो मानव को तुच्छ लगता यह भुवन

पलकों के दल को भेदकर ,रवि की किरणें

आँखों  में घुसकर  पहुँचाती  यहाँ  चुभन

भौं के केशों में घुसकर दुख करता संचरण


यहाँ  अनास्तित्व नित ताण्डव कर स्तित्व बन जीता

परम व्योम से मृत्यु सदृश कुहासा झड़-झड़कर गिरता

जीवन नद  में पीड़ा की लहरें , हाहाकार करती रहतीं

खोज  धरा  में  स्थान, अपने ही  चरणों  में गिरती

यहाँ  किसी को  नहीं मिलता, करुणा का श्रांत चरण

सभी  घूमते  झेल कलेजे पर, किस्मत की नाराजगी

जीते     लेकर   पीड़ित , व्यथित   अशांत   मन


यहाँ  मृत्यु  भीत  शत  लक्ष्य  मानव  के, करुण पुकार से

पत्थर   की   दीवारें  तो  ढह  जातीं  मगर, दुखमय  का

चिर   चिंतक , सृष्टि   की  प्रतीक  श्रद्धा   नहीं  पिघलती

जीवन नद में बह रही अपूर्ण लालसा,चूमकर दिगंत को छूना 

तो चाहती ,मगर तकदीर की बक्र रेखाएँ, उसे छूने नहीं देती







इसके  समक्ष  क्षुद्र  है, मानव  का  हृदय  स्पंदन

व्यर्थ  है  चीखता  तन, व्यर्थ  है   करुण   क्रंदन

क्यॊंकि  यहाँ  अनास्तित्व , तोड़कर मनुज हृदय की

पापड़ी आग जलाती,आत्मा को चुभन दे–देकर जगाती

ज्यों खर  तल अनल ताप को  पीकर हो जाती शांत

त्यों  मनुज का  देह, घुन – तपकर  हो  जाता शांत


आशा  उड़ाती  जीवन का  परिहास,स्मृति करती उपहास 

वेदना    मुँह  खोले  रहती,  दिखाती  अपना  आकाश

मलयानिल दे भले निमंत्रण,काँटों में सोया रहता उल्लास

शत – शत  रंगों  में  पीड़ा  की ज्वालाएँ  बिछी  रहतीं

काँपती  छायाओं   में   भी  दूर्वांचल, सूनापन  विदीर्ण

करता  मन  को  , नियति  की  निर्ममता, सुंदरता  में 

बंधकर , हर  क्षण  उड़ाती  मनुज  मन  का   उपहास


चिंतन कर यह जान मेरी क्षण-क्षण की चिंता से , मेरे

भाग्य गगन का दूर - दूर तक कुछ नहीं बदलने वाला

फ़िर  भी मनुज कल्पना  का चरण उठाकर  , सोचता

उसके  पद के  निक्षेपों से , सब  कुछ  बदल जायेगा

क्योंकि  मनुज के  जीवन में अंध -तमस तो है, मगर

प्रकृति  का आकर्षण सब कुछ अपनी ओर खींच रहा है

कहीं   न    कहीं   दिवा –  श्रांत    की    रश्मियाँ

नील  निलय  में   हैं  छुपी  हुई , जो  सुनकर  मेरा

करुण  स्वर , संसृति  में  गलकर   उतर    आयेगी

तब  मेरा   यह  मनुज  जीवन, स्वर्णमय  हो जायेगा






मगर   मूढ़  मनुज, जानता  कहाँ,  नियति   का

आनंद  प्रदीप  इस  लोक   में   कहाँ   छुपा  है

सुरपुर  की  शीतलता  में आग  कहाँ  से उठती है

समस्त सौभाग्य मनुज का कैसे छिन जाता क्षण में 

कैसे  आत्मा  देह को  छोड़ उड़  जाती  अम्बर में

यह  तो  वही  जानती  है, वही  बता  सकती  है






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