Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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होली

 

होली



मिटेधरा  से ईर्ष्याद्वेषअनाचारव्यभिचार

जिंदा  रहे  जगत  में , मानव के सुख हेतु

प्रह्लाद का प्रतिरूप बन कर,प्रेम,प्रीति और प्यार

बहती रहे,धरा पर नव स्फ़ूर्ति का शीतल बयार

भीगता रहेअंबर-ज़मींउड़ता  रहे लाल, नीला 

पीला हरा बैंगनी रंग -  बिरंगा गुलाल




मनुज होकर मनुज के लिए महा मरण का

श्मशान  करे कभी कोई तैयार

रूखापन के सूखे पत्र झड़ते रहे

दुश्मन,दुश्मनी को भुलाकर गले मिलते रहे

जिससे मनुष्यत्व  का पद्मजो जीवन

कंदर्प मेंहै  खिला उसकी सुगंधित

पंखुड़ियों  से भू– रजसुरभित होता रहे

खुशियों का  ढाकनगाड़ा बजता रहे

लोग  झूमेनाचे ,गायेआनंद मनाये,कहे

देखो ! धरा  पर उतरी  है  वसंत बहार

लोग  मना रहे  हैंहोली का त्योहार






रूप,  रस,  मधु  गंध भरे  लहरों  के

टकराने  से , ध्वनि  में उठता रहे गुंजार

सुषमा की खुली पंखुड़ियाँस्पर्शों का दल

बन करभावों  के  मोहित  पुलिनों  पर

छाया प्रकाश  बन  करता  रहे  विहार

चेतना के जल में खिला रहे,कमल साकार

त्रिभुवन के नयन चित्र – सीजगती के

नेपथ्य भूमि से निकल,दिवा की उज्ज्वल 

ज्योति बन होली  आती  रहेबार-बार


थके चरणों में उत्सुकता भरती  रहे

भू –रज में लिपटा ,श्री शुभ्र धूप का टुकड़ा

रंग -बिरंगे रंगों से  रँगे दीखे लाल -लाल

देख अचम्भितआसमां कहेदेखो लगता

सृष्टि ने निज सुमन सौरभ की निधियों का 

मुख –पट ,दिया हैधरा  की ओर खोल


चारो तरफ़ लोग खुशियाँ मना  रहे

एकदूजे सेगले मिल रहेमचा रहे शोर

फ़ूटे डाली  पर कोमलपल्लवपी गा रही

पंचम सुर में कह रही ,डाली की लड़ियों को 

मंजरियों का  मुकुट पहनाने  आया है

वसंत बहार,लोग मना रहे होली का त्योहार


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