Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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देखो ! मिलने खड़ा है कोई अतिथि

 


 

देखो ! मिलने खड़ा है कोई अतिथि

 

 

विरह – मिलन  की  इस  मरु -मरीचिका में

प्राणों   के  कुसुम  से  बाँधकर , बाँहों  का

बनाकर   उपाधान , और   सोओ  साथी

उठो, अपनी   अलसाई  आँखें   खोलो, और

कान धरकर सुनो,आ रही किसी की पगध्वनि

लगता , धूलि- धूसरित, हमारे जीर्ण द्वार पर

हमसे   मिलने  खड़ा   है   कोई   अतिथि

 

मुख  तो  अभी  तक  देखा नहीं

वाणी   लगती  जानी -  पहचानी

कह  रहा  है हमसे, कर्मभूमि  के

थके  श्रमिक , पंचानद  के सपूत

उठो,प्राण के दिवस बहुत गये बीत

आशा  भरी  यौवन , मधुवन  की

कालिंदी  भी  कब  की  गई सूख

 

अदृष्य  वाष्प  बन  कब  के उड़ चुके

तू  अभी  भी शोभा के मदिर ओठ को 

पी रहा,ज्यों व्योम पीता उदधि को झुक

व्यथा  से  चीख  रही  तुम्हारी आत्मा

फ़िर  भी  तू  गा   रहा  प्रणय  गीत

 

 

 

 

 

दुख  आतप  में  सूख-सूखकर खाली

हो  गई, तेरी  जीवन सुरा की प्याली

और तू एक हाथ रसघट पर,एक हाथ

मरण ग्रीवा पर रखकर ,रटन लिये है 

एक  घूँट, एक  घूँट, बस अंतिम घूँट

 

अरे !  यहाँ  तुम्हारा  घर नहीं है

तू  यहाँ  परदेशी है, तुझे लौटकर

अपना  देश  जाना  है, फ़िर तेरा

यह कहना, अब तक तो ज्योत्सना

धौत, सरित, तृण, तरु  सब  मेरी

परिछाहीं थीं,ये सभी कैसे गये सूख

 

मैं   समझ   गया, तू   धर्मग्य   थका

तुझे   होश   नहीं, यह  सब  तू   नहीं

बोल   रहा  , बोल   रही     है   तेरी

पलकों की झुकी झुर्रियों में छुपा वह जीव

जिसे आशा स्वर्ण भूषित परिधान पहनाती

सपने   आकर   खिलाते  साकार  कुसुम

 

इसलिए , इसके   पहले   की   तेरी

पसलियों   का   कंकाल - जाल, युग

अंधर में झड़,पत्तों सा न जाये बिखर

तू   मेरे  संग  चल  वहाँ, जहाँ  की 

धरती  कोटि  उषाओं  से  है  मंडित

वेदना, स्नेह  मूर्ति सी जीती मूर्च्छित

 

 

 

बहती  गंगा  का उद्गम और अंत वहीं है

वहीं  से  उषा  अपना  स्वर्णिम मंगलघट

भरकर,जागरण–चरण लिये धरा पर उतरती

सृष्टि का बीज वहीं अंकुरित होता, वहीं से

शत – शत  निर्झर   की  धाराएँ , शोभा

सिंधु  का  उत्साह  बन  धरा पर उतरती

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