Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

बंदिनी

 

बंदिनी


रात की बरसात से, गाँव के नदी-नाले उफ़न रहे थे । आम के वृक्ष के पत्तों से पानी ढुलक रहा था कि अचानक दक्षिण पवन ने फ़ल से लदी डालियों से ऐसी उठखेलियाँ ली,कि उसका संचित धन अस्त-व्यस्त हो धरती पर बिखर गया, जिसे देखकर दूर खड़ी रेणु उषा की किरणों की तरह खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली---- तेरा हाल भी मेरी ही तरह है । तुम और मैं, दोनों एक नाव के सवारी हैं । साथ चल रही उसकी सहेली, सुषमा चौंक गई । उसने हरियाली से लदे ढलुवां तट के बीचो-बीच कल-कल बह रही नदी की ओर दिखाकर बोली---क्या तुम इसे देखकर हँस रही हो,या ऊपर आकाश में मदिरा से भरी, छा रही घटा को देखकर । आखिर तुम्हारे हँसने का कारण क्या है ? 

सुषमा के पूछने पर , रेणु शांत हो गई, उसकी आँखों से झड़-झड़ कर आँसू बहने लगा । उसने दोनों हाथों अपने बहे जा रहे आँसू को पोछते हुए कहा ---मुझमें और उसमें कोई अंतर नहीं ,इसलिए । 

सुषमा, रेणु के उत्तर को सुनकर मुस्कुराती हुई बोली---रेणु ,तुम्हारी इस उदासीनता को देखकर मेरी चिंता बढ़ जाती है । तुम सच-सच बताओ, शायद मैं तेरी कुछ सहायता कर सकूँ ।

रेणु , सुषमा के प्रश्न के जवाब में सिर्फ़ इतना बोलकर चुप हो गई--- ’ हारने वाले को विजेता की ओर से कोई पुरस्कार नहीं मिला ’ । 

सुषमा समझ गई; रेणु के हृदय की संचित व्यथा, इस भीषण विद्रोह के रूप में प्रकट होने का कुछ तो कारण है, अन्यथा अपने दर्द को व्यक्त कर इतनी करुण नहीं हो जाती । उसने रेणु को अपनी दोस्ती का वास्ता देते हुए पूछा--- रेणु क्या बात है, मुझे बताओ ?

रेणु ,अपने जीवन में इतना स्नेह–धन किसी से नहीं पाई थी, सो वह टूट गई ; बच्चों की तरह विलख उठी । उसके बीते दिनों की स्मृतियाँ चमकीले तारों की तरह प्रज्वलित हो गईं । उस आत्म-सम्मोहित दशा में उसने जो कुछ बताया, सुनकर सुषमा चकित रह गई । उसने कहा---सुषमा, बचपन से मैं दिल में एक सपना पाल रखी थी, मैं उसे अपना हमसफ़र बनाऊँगी, जिसके दिल में आरजुएँ होंगी, दर्द होगा, त्याग होगा; जो मेरे साथ रो सकेगा , जो मेरे साथ जल सकेगा, लेकिन- - - - - ।

रेणु के स्वर में निराशा थी, क्रोध था; आहत सम्मान का रुदन था । भर्राई आवाज में बोली--- मैं पति-सेवा को अपने व्रत का आधार मानकर अपने गृहस्थ जीवन को दीर्घायु बनाने की भरपूर कोशिश कर रही थी , लेकिन उनके प्यार में वह माधुर्य, कोमलता नहीं दिखी, जिससे मेरी आत्मा तृप्त हो । मेरी जिंदगी में ,उनकी बेरुखाई दिन-ब-दिन जंग भरने लगी । इन चंद सालों में मेरे शरीर पर क्या-क्या बीता, मैं जानती सिर्फ़ इतना हूँ कि  मैं मौत की जंजीरों में जकड़ी चली जा रही हूँ ; तुम्हारी तरह मैं भी रूहानी बुलंदियों पर उड़ सकती थी, जो उनका साथ मिला होता ।

सुषमा, रेणु से जो सुनना चाहती थी, उत्तर मिल गया । वह समझ गई, विलासिनी रेणु तपस्विनी बनकर क्यों जीती है । उसने विस्मय भरी आँखों से रेणु की ओर देखा और तीखे स्वर में पूछा--- अब तक तुम कैसे सह रही थी ? तुमको तो कब का उसका घर छोड़कर अपने माँबाप के पास लौट आना चाहिये था ? अरे ! तुम्हारे पति में न तो देवत्व है, न मनुष्यत्व ही है; केवल और केवल अहं की मदांधता और पति होने की हृदयहीन निर्लज्जता है ।

रेणु आर्द्र होकर बोली ---- मैंने साथ अपने प्रेम-थाल में , आत्मा का सारा अनुराग, सारा आनंद उनके चरणों में समर्पित करने ले गई थी, लेकिन उनका यह रूप देखकर मैं भयभीत हो गई । मेरा थाल मेरे हाथ से छूटकर गिर गया और धूप, दीप, नैवेद्य सब भूमि पर बिखर गये । मेरी चेतना का एक-एक रोम जैसे इस प्रेम से विद्रोह करने लगा । जी में आया कि बोल दूँ,’आपके और मेरे रास्ते एक नहीं हो सकते, क्योंकि प्रेम-शासन में कोई दूसरा शासन मुझे स्वीकार नहीं , लेकिन अपने माँ-बाप और समाज का ख्यालकर कभी कह न सकी ; सहती गई, सहती गई । तब मैं यौवना थी, स्वस्थ थी, इसलिए तब यह आत्मचिंतन का समय नहीं मिला , कि सोचूँ जब तक पानी के ऊपर आवरण है, सूर्य का प्रकाश भीतर नहीं प्रवेश कर सकता, फ़िर अपनी वैवाहिक सजा की मियाद बताकर बोली---- जानती हो रेणु, मेरी शादी को आज 50 साल होने जा रहा है; इस बीच ,उन्होंने कभी मेरा कदर नहीं किया । प्रेम की भूख उन्हें थी तो मुझे भी थी, वे जो कुछ मुझसे चाहते थे, मैं भी उनसे वही सब कुछ चाहती थी । जो चीज वे मुझे न दे सके , वह मुझसे न पाकर इतना क्यों उद्दंड हो गये ? क्या इसलिए कि वे पुरुष हैं, और मैं एक अबला नारी ? उनको तो समझना चाहिये था, नारी लज्जा की मूरत होती है । अपनी चाहत को टूटता देख, बिखर सकती है, मौत को गले लगा सकती है, लेकिन शर्म की एक पतली दीवार को तोड़ नहीं सकती । 

सुषमा --- तो आत्मोन्नति के प्रयास में तुम्हारा जीवन इतना शुष्क , निरीह हुआ है ? 

रेणु - - हाँ, माँ-बाप ने बचपन में पति के प्रति दिल में जो त्याग का दीपक जला दिया था, उसकी लौ जरा भी मंद न पड़े, इसकी कोशिश में सदा करती रही ।

सुषमा,एक दीर्घ नि:श्वास लेकर बोली----- वह प्रणय भी कैसा, जो विषाक्त छुरी हो ।

रेणु व्यथित हृदय से बोली---- जिस दिन मैं उनके घर गई, वे रात को गले में बाँहों का हार डाले, आँखें नशे से लाल , उन्मत्त की भँति पहुँचे , जैसे कोई प्यादा असामी से महाज्न के रुपये वसूल करने आया हो । मेरा घूँघट हटाते ही बोले---- मैं तुम्हें देखने नहीं आया हूँ, बल्कि मैं तो तुमको मन-क्रम से पाने आया हूँ, इसलिए तुमको मेरा स्वागत मुस्कुराकर करना चाहिये । तुम तो ऐसे मुँह ढ़ँककर बैठी हो, जैसे मैं कोई रावण हूँ । तुमको मेरी सूरत देखना कबूल नहीं; उनका हाथ मेरे शरीर पर पड़ा, मुझे लगा, जैसे कोई सर्प काट लिया हो । सिर से पाँव तक, मैं पत्थर की हो गई, मैं अपनी आँखें मुँदी, उनके अगले हरकत की प्रतीक्षा करने लगी ; तभी उन्होंने मेरे मुँह पर एक जोर का तमाचा लगा दिया । मेरी आँखों से टप-टपकर बूँदें गिरने लगीं । वे इतने पर भी नहीं रुके , बोले --- ज्यादा ढकोसला मत करो । इसके बाद मेरे वे सोने के सारे सपने टूट गये , जिसे मैं उनके घर पहुँचने से पहले देख रही थी । जी में आया कह दूँ, आपके साथ शादी का आशय यह नहीं कि मैं आपकी लौंडी हूँ, शायद आपको मालूम नहीं प्रेम के शासन में और कोई दूसरा शासन मैं स्वीकार नहीं कर सकती । मैं आपकी व्याहिता हूँ, आपने अग्नि-देवता के समक्ष , अपने बुजुर्गों की उपस्थिति में , मुझे अर्धांगिनी के रूप में स्वीकारा है । इसके पहले ही उन्होंने मुझे घसीटकर कमरे से बाहर निकाल दिया, और अंदर से किवाड़ बंद कर लिये । उस दिन से मैं ईश्वर से एक विनती करती रही, ’ ईश्वर ! वे अपना विवाह कर लें, मुझे छोड़ दें ’। जो मर्द स्त्री में केवल रूप देखना चाहता है, उसके लिए स्त्री केवल और केवल स्वार्थ सिद्धि का साधन है, ऐसे मर्द पति नहीं बन सकते । सुषमा मूर्तिवत बैठी, रेणु की बातें सुनती रही, मानो उसके ऊपर जूते पड़े हों ।

रेणु कुछ बोलना चाही, पर शब्दों की जगह कंठ में जैसे नमक का डला पड़ा हुआ हो, कुछ बोल न सकी; सिर्फ़ उसकी आँखों में आँसुओं का सागर उमड़ आया । सुषमा की आँखों में भी आँसू थे, मगर छिपे हुए ; चिंतित, दुखी सुषमा अपने मनोबल से उसे दबाई हुई थी, लेकिन उसकी छलछलाती आँखें , काँपते ओठ, विनय दीन मुखश्री उसे नि:शस्त्र किये जा रहे थे । उसके दबे आँसू, फ़व्वारे की तरह उबल पड़े, वह मुँह ढ़ँककर रोने लगी । रेणु ने सुषमा को गले लगाकर कहा----एक अभागिन के लिए तुम क्यों रो रही हो, और कितना रोवोगी ? मेरा तो नसीब ही ऐसा है, तुम्हारे रोने से बदल थोड़े ही जायगा ।

रेणु के ये शब्द ,सुषमा को फ़ोड़े की तरह टीस मारने लगे; उसने कहा---- जब सत्तर वर्ष तक संसार के समर में जमा रहने वाला नायक हथियार डाल दे, तो जो नायक कल उतरा है, उसका क्या होगा ?

रेणु , आँसुओं की धार से अपने यौवन के कलुषित जीवन-चिह्न को धोने की असफ़ल कोशिश करती हुई बोली----- सुषमा , सच तो यह है कि स्त्री मर्यादा के अनुसार , जब तक घर वालों से दो-चार खड़ी-खोटी सुन नहीं लेती हूँ, मेरा भी पशुता मन विरक्ति से नहीं भरता है ।

सुषमा झुँझलाकर रेणु की ओर देखी, बोली---- तुम्हारी बातों में लहर है, दम नहीं, अन्यथा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कोई सिर नीचा कर नहीं बैठा रह सकता है । तुम्हारी सहृदयता, तुमको प्रतिकार का घूँघट उलटने नहीं देती है, तुमने आकांक्षा का नशा पी रखी है, इसलिए इतनी विवश हो ।

रेणु की आँखें छलछला आईं, बोली-----भाग जाऊँ, लेकिन यह नहीं हो सकता; मैं कृतदासी हूँ; मेरे माता-पिता ने अग्नि देवता के समक्ष,उनके हाथों में दान स्वरूप मुझे भेंट किया है । 

सुषमा विचलित हो बोली---- यह असत्य है, सत्य नहीं हो सकता । पशुओं के समान मनुष्य नहीं बिक सकते । तुमने अनजाने में जो साथ जीने-मरने की प्रतिग्या ली है, उसे तोड़ दो, और लौट जाओ अपने घर ।

रेणु , कुछ देर तक स्तब्ध और शून्य सी खड़ी रही ; फ़िर सहसा पति के घर की तरफ़ दौड़ गई ।

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ