Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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और दर्पण टूट गया

 

 संतान को पढ़ा-लिखाकर अच्छी जिंदगी देने की हवस भला किस माँ-बाप में  नहीं होती, सो रामकिशन में भी था | शादी के दश साल बाद भी पुत्र -पदार्थ का न पाना , दोनों पति-पत्नी ( रामकिशन और सुरेखा ) के लिए प्राणांतकारी था , आत्मिक -यंत्रणा थी | लेकिन निज भाग्य से आशा मिटी नहीं थी , हाँ कभी-कभी आशा-निराशा से विकल हो, अवश्य पुकार उठती थी ; कहती थी , दान और व्रत से मैंने अपनी कालिमाओं को धोने का प्रयत्न बहुत किया  | मगर धुला नहीं, क्या भगवान तुम ,हमारे लिए केवल दया के सिद्धांत रूप-मात्र  हो  |

एक दिन सुरेखा दुखी हो पति रामकिशन से बोली — रामकिशन और बरदाश्त नहीं होता, जी चाहता, विष खाकर जान दे दूँ | उसके बगैर मैं नहीं जीवित रह सकती , केवल तड़प सकती हूँ | मैंने ऊपर वाले के समक्ष , कितना गिडगिडाया , कितनी मिन्नतें की, लेकिन सब बेकार गया | उसने अब तक अपना फैसला नहीं बदला |

रामकिशन—सुरेखा को संतावना देते हुए , विनीत भाव से समझाया —कहा -प्रिये ! ऊपरवाले का शिकायत करना तुम्हारा उचित है , मगर निंदा, पाप है पाप | इसे छोड़ दो, बल्कि यह सोचो — यह सब हमारी किसी अपराध की सजा तो नहीं है |

सुरेखा , शून्य दृष्टि से आकाश की ओर देखी , तो उसकी आँखें छलक आईं | उसने आँचल से आँसू पोछते हुए कहा—हे ईश्वर ! जिसे मैं अपने जीवन तप का वरदान समझती हूँ , उसके लिए तुमको कोसा, तुमसे छल किया, मुझे माफ़ कर दो ; भविष्य में ऐसी गलती नहीं होगी |

                एक दिन सुरेखा अनमने ढंग से आईने के सामने खड़ी थी, एकाएक उसे लगा, कि उसके आँखों की ज्योति बढ़ गई है , अथवा , शरीर में कोई दूसरी ज्योतिर्मय आत्मा आ गई है | यह सब देखकर उसके ह्रदय का सारा अनुराग , सारी भक्ति आँखों से उमड़कर अपने ही श्रद्धा के चरणों में गिर गई | वह रामकिशन को बताने के लिए दौड़ पड़ी , मगर लज्जा बश  ठिठक कर बीच रास्ते में ही खड़ी रह गई |

रामकिशन ने देखा — सुरेखा का चेहरा लज्जा के आवरण में खिला फूल सा दमक रहा है | वह सुरेखा के पास गया , और पूछा—कुछ कहना है क्या, तो कह डालो न , इसमें शर्माने का क्या है ?

सुरेखा सर झुकाए हुए गौरवमय हो बोली — रामकिशन , तुम पिता बनने वाले हो |

सुनते ही रामकिशन की आँखों से आँसू की अविरल धारा बह निकली, उसने बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला,और कहा –हे ऊपरवाले ! तुम्हारे घर देर है, अंधेर नहीं | उसकी आत्मा उन्मत्त हो उठीं , प्राण मानो शरीर से बाहर निकलकर , आगंतुक पर समर्पित हो गया हो | गरीबी की प्रचंड गर्मभूमि में रहकर भी उसकी आँखें आनंद सागर सी हलसने लगीं | उसका नैराश्य जीवन कैसी-कैसी कल्पनाएँ करने लगा | आत्मिक-आनंद, आदेश और नैराश्य जीवन के हुक्म का विरोध करने लगा | गरीबी की जंजीर जो उसके दिल और दिमाग, दोनों को जकड़ रखा था ,थोड़ी देर के लिए ही सही , उसे तोड़कर वह आजाद हो गया |

               आखिरकर वह दिन आया, जब सुरेखा ने एक सुन्दर बालक को जनम दिया , नाम रक्खा शम्भू | बालक  को गोद में लेकर दोनों पति-पत्नी जीवन की नई-नई अभिलाषाओं को सजाने लगे | दोनों को शम्भू की आँखों में लोक-परलोक का सुख जो दिखाई देता था | जब शम्भू ,रामकिशन को पिताजी कहकर पुकारता था , तब रामकिशन के अंग-अंग की स्फूर्ति छलक पड़ती थी | वह दोनों हाथ उठाकर ऊपरवाले से कहते थे , ‘ईश्वर ! अब हमें तुमसे कोई शिकायत नहीं रही , मगर हाँ, मेरे, मेरे बेटे पर एक कृपा करना | जिन बुरे दिनों को मैं ढो रहा हूँ , ऐसा जीवन मेरे पुत्र का मत देना | फिर अपना विचार पलटते हुए कहता , प्रभु ! मेरी बारी में तो तुमने मामूली शिष्टाचार भी नहीं निभाया; साधुता और सज्जनता की प्रतिमा बनकर सिर्फ देखते रहे, और मैं गरीबी के बोझ तले पिसता रहा | लेकिन तुम भी सुन लो, मैं भी तुम्हारा ही अंश हूँ , इसलिए कुछ न कुछ जिद्द मुझमें भी है | मैंने भी ठान लिया है , शम्भू को अपने साहब की तरह बड़ा आदमी बनाऊँगा | तुम साथ दोगे न प्रभु ? जानते हो , जब भी मैं शम्भू को देखता हूँ , तब अपने जिल्लत की जिन्दगी को भूल जाता हूँ | मेरे कमजोर वदन, बुझे नयन और पीले मुख पर उसके लिए साहिबी दौड़ जाता है |

                समय के साथ-साथ शम्भू जवान होता चला गया | ऊपरवाले की दया से पढ़ाई-लिखाई भी ठीक रही | माँ-बाप के आशीर्वाद तथा उसकी अपनी कड़ी मेहनत रंग लाई, और वह एक इंजीनियर बन गया | वही रामकिशन , जो कुछ दिन पहले तक गरीबी को  आँसू की धारा समझता था, बेटे की नौकरी मिलते ही, वह अपने आराध्य के चरणों पर आँसू छलकाना व्यर्थ समझने लगा | अपनी पिछली बातों को याद कर जब भी आँखों में आँसू आता , कहता— तुम में चाहे जितनी ही ज्वाला तुममें क्यों न रहे , अब तुम हमें जला नहीं सकते , क्योंकि हमारे तप के दिन पूरे हो चुके हैं | हमारा बेटा शम्भू एक बड़ा इंजीनियर बन चुका है, महीने के तीस हजार पगार है |

               एक दिन दोनों पति-पत्नी नदी के किनारे-किनारे चले जा रहे थे , दिन के एक बज रहे थे | लेकिन सुरेखा को न विश्राम की इच्छा थी, न लौटने की | आज उसे पति के संभाषण में ऐसा सुख मिल रहा था , जो बिल्कुल नया था | अचानक सुरेखा के कानों में ढोल-मजीरे बजने की आवाज गई, उसने अपने मस्तिस्क पर जोर देकर सुना , तो वह आस्वस्थ हो गई कि यह आवाज उसके गाँव के ही विश्वनाथ नाई के घर से आ रही है | उसने सुखदेव से कहा — रामकिशन, ध्यान देकर सुनो, यह आवाज हमारे ही गाँव के विश्वनाथ नाई के घर से आ रही है | हो न हो, उसके बेटे की आज शादी है , फिर हलसती हुई कही – रामकिशन, क्यों न अब हमलोग भी शम्भू की शादी की बात सोचें | हमारा शम्भू जवान हो गया है और फिर नाई के बेटे से एक साल का बड़ा भी है |

रामकिशन, सुरेखा की आँखों में आँख डालकर देखा, बोला—– खैरा गाँव के रामधन की बेटी सुनयना, शम्भू लिए कैसी रहेगी , कहो बात आगे बढाऊं ?

सुरेखा, अत्यंत आत्मीयता से बोली— मैं भी यही कहने वाली थी | उनकी बेटी सलोनी, छरहरी ; गोरी न होकर भी आकर्षक है |

रामकिशन—तो शुभ काम में देरी क्यों , चलकर आज ही बात करते हैं |

             शम्भू की शादी हुए महीने भर भी नहीं बीते कि सुनयना के ह्रदय में सास-ससुर के प्रति निर्भीकता भर गई , किसी न किसी बहाने अपना रोब, उन दोनों पर जमाने लगी | कभी-कभी सुनयना उन दोनों के साथ ऐसा ह्रदय-विदारक बर्ताव करती थी, कि दोनों पति-पत्नी का कलेजा छिद जाता था | दोनों ही पति-पत्नी, बड़े ही भावुक प्रकृति के थे | दोनों की दशा ऐसे मनुष्य सी हो गई थी , जो नौका में बैठा सुरभी तट की शोभा का आनंद उठाता हुआ किसी श्मशान में पहुँच गया हो | जीवन में इतनी निर्मम कठोरता के चट्टान से टकराने का दोनों को ज़रा भी अनुमान नहीं था | सुखभोग दोनों के लिए विष बन चुका था, और आत्मसंयम अमृत |

              एक दिन दोनों पति-पत्नी ने तय किया — क्यों नहीं, हमलोग इस बारे में एक बार शम्भू की सलाह जान लें | सुरेखा, शम्भू के पास गई , और सारा वृत्तांत एक ही साँस में कह डाली |

शम्भू, खड़ा-खड़ा सब कुछ सुनता रहा , फिर अचानक माँ से कुछ कहे बिना वहाँ से चला गया | यह सब देखकर सुरेखा टूट गई , संज्ञाहीन हो गई , उसकी सारी चैतन्य शक्तियाँ शिथिल हो गईं | वह उद्विग्न हो ऊपरवाले से कही — हे ऊपरवाले ! हमारे सुख की सामग्रियाँ जो तुमने , दयास्वरूप दिया था , आज जाने क्यों , सभी हमारे अविश्रांत कर्मधारा में विलीन होते दिखाई दे रहे हैं | पिंजड़े में कैद पक्षी की तरह हम दाने-दाने को तरसते हैं | इतनी गरीबी हमने कभी नहीं भोगा था | इतना दुःख पाकर हम , क्या किसी योगी , सिद्ध , महात्मा के लिए भी ज़िंदा रहना मुश्किल है | मैं जिस तलवार को अपनी सुरक्षा का औजार समझ रही थी, आज उसी ने हमारा गर्दन काट दिया | हमने सुख-सामग्री स्वरुप पुत्र , मात्र उसके रूप की पूजा करने के लिए तुमसे नहीं माँगी थी | सुरेखा अपमान की बात यादकर, विह्वल हुए जा रही थी, तभी रामकिशन ने आकर उसे सहारा दिया, कहा — सुरेखा आईने में फिसलन बहुत होती है ; शायद हमने उसे ठीक से संभाला नहीं, तभी गिरकर वह टूट गया |  


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