Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अम्बर छोड़ चला दिवाकर

 


अम्बर छोड़ चला दिवाकर

प्रिये ! अपनी बोझिल आँखें खोलो
देखो ऊपर आकाश की ओर
दिन भर सूरज लुटाकर अपनी विभा
अम्बर छोड़ चला पश्चिम की ओर

लगती काल जाल –सी निस्तब्ध निशा
धरा पर कुछ पल में ही बिछने वाली है
तभी नील गगन में उड़ रहे भीत पक्षी
नींद सेज पर गिरने मचा रहे शोर
बच्चे दौड़ रहे,गायें भाग रहीं,वन को छोड़

धरती का अंचल फ़ाड़, बादल कह रहा
यहां काल की लौह कारा में, हत जनभू- मन
जीवन जर्जर, पल-पल प्रकृति का है आतंक
फ़िर भी मनुज यहाँ,निज भविष्य की चिंता में
वर्तमान का सुख देता छोड़
वारि का धार पकड़कर झूलता रहता
एक तार की साँस पर रहता डोल

मगर जीवन सरिता का यह कूल
लहरों के दल से टकरा – टकराकर
एक दिन सदैव के लिए ओझल हो जाता
फ़िर भी मनुज समझता नहीं,जीवन का तोय
व्यर्थ ही लगाये रखता , अम्बर छूने की होड़



धरती – अम्बर के बीच भयंकर खाई है
यहां से जो दीख रहा, शून्य का घेरा
वह बिछा हुआ केवल भ्रम जाल है
जो जीवन की उलझन सुलझाता नहीं
बल्कि उलझाये रखता है
इसलिए पुलक हिलोर आती कहां से
उस उदगम को ढूँढना छोड़
अन्यथा रात बीत जायेगी,हो जायेगा भोर

प्रिये ! हम दोनों थके भग्नांश पथिक हैं
जिनका पल-पल रक्त क्षय हो रहा
अब लेशमात्र भी शरीर में रक्त-मांस नहीं बचा
रुद्ध हो रही साँसें, बाहर बह रही सर्द हवा

इसलिए आओ चले चलें हम यहाँ से
हमारा ठहरना अब निराधार है यहाँ
ऊपर धीरता उधम मचा रही
विकम्पित हो रहा क्षितिज का छोर
कान देकर सुनो, श्मशान से
आ रहा रुद्र, शृंगी रब रोर


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