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भारतीय शिक्षा प्रणाली का द्वंद्व

 

हिंदी बनाम अंग्रेज़ी: भारतीय शिक्षा प्रणाली का द्वंद्व

लेखिका: डॉ. मुक्ता मिश्रा
अध्यक्ष – प्रोन्नति फाउंडेशन (एनजीओ), लेखिका, कवयित्री, वॉइस ओवर आर्टिस्ट, फैशन डिज़ाइनर, न्यूज़ एडिटर – कंट्री ऑफ़ इंडिया
स्थान: गुरुग्राम, हरियाणा
संपर्क: 8588886431 

ईमेल: muktamisra1@gmail.com



भूमिका: एक भाषा, दो धाराएँ

भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है, जहाँ लगभग 121 भाषाएं और 22 आधिकारिक भाषाएं संविधान में मान्यता प्राप्त हैं। फिर भी, शिक्षा प्रणाली में दो भाषाओं के बीच एक निरंतर संघर्ष देखा जाता है—हिंदी और अंग्रेज़ी। यह केवल भाषाई टकराव नहीं, बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा, अवसरों की समानता, और सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़ा हुआ गूढ़ द्वंद्व है।


इतिहास की छाया में वर्तमान द्वंद्व

अंग्रेज़ी शासनकाल में "मैकॉले की शिक्षा नीति" (1835) ने अंग्रेज़ी को ज्ञान और प्रशासन की भाषा बना दिया। परिणामस्वरूप अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे वर्ग की भाषा बनी, जबकि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं 'कमज़ोर वर्गों' की भाषा मानी जाने लगीं।

स्वतंत्र भारत ने हिंदी को राजभाषा घोषित किया, परंतु अंग्रेज़ी को भी "संविधान की धारा 343" के अंतर्गत सहायक भाषा का दर्जा मिला। तब से अब तक, यह स्थिति बनी हुई है कि नीति में हिंदी है, लेकिन प्रैक्टिस में अंग्रेज़ी हावी है।


आज की शिक्षा प्रणाली में द्वैधता की स्थिति

  1. माध्यम का भेदभाव: सरकारी विद्यालयों में हिंदी माध्यम प्रचलित है, वहीं निजी विद्यालयों में अंग्रेज़ी का वर्चस्व है। इससे सामाजिक और आर्थिक वर्गों में भाषा आधारित असमानता पनपती है।

  2. प्रतियोगी परीक्षाएँ: अधिकांश राष्ट्रीय स्तर की परीक्षाएं जैसे UPSC, NEET, JEE इत्यादि अंग्रेज़ी में प्राथमिक रूप से संचालित होती हैं, जिससे हिंदी भाषी विद्यार्थी आत्मविश्वासहीनता का शिकार होते हैं।

  3. उच्च शिक्षा में अंग्रेज़ी का प्रभुत्व: IITs, IIMs, मेडिकल, लॉ और विज्ञान संस्थानों में अंग्रेज़ी अनिवार्य है। हिंदी में सीमित पाठ्यसामग्री और तकनीकी शब्दावली का अभाव इस असमानता को बढ़ाता है।

  4. सामाजिक प्रतिष्ठा और मानसिकता: अंग्रेज़ी बोलना आज 'शिक्षा' नहीं बल्कि 'प्रतिष्ठा' का प्रतीक बन गया है। यह एक मनोवैज्ञानिक गुलामी है जो हिंदी भाषियों को अपने ही देश में दोयम दर्जे का अनुभव कराती है।


क्या हिंदी पिछड़ रही है? नहीं—पर संघर्ष में है

  • हिंदी भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है (लगभग 44%)
  • सरकारी योजनाएं, न्यायालय, मीडिया और लोकसेवा परीक्षाएं हिंदी में उपलब्ध हैं
  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने मातृभाषा में शिक्षा पर बल दिया है
  • डिजिटल प्लेटफॉर्म्स जैसे DIKSHA, SWAYAM में हिंदी कंटेंट बढ़ रहा है

फिर भी अंग्रेज़ी का प्रभुत्व इसलिए कायम है क्योंकि:

  • वैश्विक संपर्क की भाषा मानी जाती है
  • अधिकांश उच्च स्तरीय शोध अंग्रेज़ी में होते हैं
  • कॉर्पोरेट क्षेत्र में अंग्रेज़ी अनिवार्य होती जा रही है

यह संघर्ष नहीं, संतुलन की माँग है

हमें यह स्वीकार करना होगा कि यह हिंदी बनाम अंग्रेज़ी का युध्द नहीं है, बल्कि हिंदी के साथ अंग्रेज़ी की आवश्यकता है। भाषा का चयन अवसर को सीमित न करे, बल्कि अवसरों को लोकतांत्रिक बनाए।


समाधान की दिशा में प्रयास

  1. त्रिभाषा सूत्र का सुदृढ़ कार्यान्वयन – मातृभाषा, हिंदी और अंग्रेज़ी को संतुलित रूप से सिखाया जाए।
  2. हिंदी में तकनीकी और उच्च शिक्षा सामग्री का निर्माण – NPTEL, UGC, AICTE को हिंदी में कोर्स उपलब्ध कराने के लिए विशेष निर्देश।
  3. शिक्षकों और छात्रों को द्विभाषी (bilingual) रूप से प्रशिक्षित करना – जिससे दोनों भाषाओं में दक्षता बढ़े।
  4. सामाजिक सोच में परिवर्तन – हिंदी को 'गौरव' से जोड़ने की आवश्यकता, न कि 'गिरावट' से।
  5. हिंदी अनुवाद और तकनीकी शब्दकोशों का विस्तार – जिससे विज्ञान, विधि और प्रबंधन जैसे विषय हिंदी में भी पढ़ाए जा सकें।

निष्कर्ष: द्वंद्व का समाधान सामंजस्य में है

भाषा किसी भी राष्ट्र की आत्मा होती है। हिंदी हमारी संस्कृति, हमारी जड़ों और हमारी सामाजिक एकता की वाहक है। वहीं अंग्रेज़ी वैश्विक संवाद और तकनीकी ज्ञान की कुंजी बन चुकी है। अतः आवश्यकता इस द्वंद्व को युद्ध में नहीं, सह-अस्तित्व में बदलने की है।

जब तक हम हिंदी को 'गाँव की भाषा' और अंग्रेज़ी को 'शहर की भाषा' मानते रहेंगे, तब तक भारतीय शिक्षा प्रणाली अधूरी ही रहेगी। समय आ गया है जब हम भाषा को दीवार नहीं, पुल बनाएँ—ऐसा पुल जो भारत के भविष्य को उसकी जड़ों से जोड़कर विश्वपटल पर प्रतिष्ठित करे।








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