Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जब बुआ घर पर आती थी

 

वह दौर पुराना परिवारों का, जब बुआ घर पर आती थी,
गली मोहल्ले सारे गाँव में, ख़ुशियाँ तब आ जाती थी।
हर घर से दावत का न्योता, फूफा का आया करता था,
फूफा सब बच्चों के होते, मेहमान गाँव के कहलाते थे।
सारे गाँव से रिश्ते जुड़ते, बनते ताऊ चाचा बाबा भाई,
माँ के गाँव से कोई होता, सब मामा नाना बन जाते थे।
ऊँच नीच और जाति धर्म का, रिश्तों में अवरोध न था,
बूढ़े तो बाबा होते थे, बाक़ी ताऊ चाचा कहलाते थे।
बाबा जब भी घर आते थे, बाहर से आवाज़ लगाते,
बहुएँ घूँघट कर लेती, छोटे दौड़ कर आया करते थे।
कोई पानी लेकर आता, बाबा के पैर हाथ धुलवाता,
बहुएँ खाने की थाली लाती, बच्चे खाना खिलवाते थे।
खाना खाकर बाबाजी, खटिया पर लेटा करते थे,
सोनू मोनू से बातें करते, क़िस्से बतलाया करते थे।
दरवाज़े के पीछे से भाभी, घर का सामान बताती थी,
शाम ढले सारा सामान, बाबा बच्चों से ही भिजवाते थे।
खाट बिछी बाबा की आँगन, आसपास सब होते थे,
गली मोहल्ले सारे गाँव के, झगड़े निपटाया करते थे।
बहन बेटियाँ सारे गाँव की, सबकी साझा होती थी,
उनके गाँव कभी गये तो, मान सम्मान जताया करते थे।
ताऊ जी का काम अधिकतर, खेतों की रखवाली था,
हम बच्चे भी प्रतिदिन ही, खेतों पर ज़ाया करते थे।
रोज़ रहट पर पशु नहलाते, खुद भी नहाया करते थे,
माँ जो रोटी भेजा करती, संग बैठकर खाया करते थे।
वह रोटी साग का स्वाद पुराना, मट्ठे संग गुड़ का खाना,
साझे रिश्ते साझी संस्कृति, मुझको बहुत ही भाते थे।
बदल गया वह दौर पुराना, अब अपने ही रूठे रहते हैं,
गली मोहल्ले गाँव की क्या, निज में सब सिमटे रहते हैं।

अ कीर्ति वर्द्धन 



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