सब्जी बिकती धान से, दाम नहीं है पास" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') नदी शारदा में किया, उत्सव का इसनान।
फिर खिचड़ी खाकर किया, मेले को प्रस्थान।।
झनकइया वन में लगा, मेला बहुत विशाल।
वियाबान के बीच में, बिकता सस्ता माल।।
यहाँ सिँघाड़े बिक रहे, गुब्बारों की धूम।
मस्ती में-उल्लास में, लोग रहे हैं घूम।।
आदिवासियों ने यहाँ, डेरा दिया जमाय।
जंगल में मंगल किया, पिकनिक रहे मनाय।।
बहुत करीने से सजा, चाऊमिन का नीड़।
जिसको खाने के लिए, लगी बहुत है भीड़।।
फल के ठेले हैं यहाँ, फूलों की दूकान।
मनचाहा रँग छाँट लो, रंगों की है खान।।
गरमा-गरम जलेबियाँ, और पकौड़ी खाय।
मेला घूमों शान से, हज़म सभी हो जाय।।
सब्जी बिकती धान से, दाम नहीं है पास।
बिन पैसे के हो रहा, मेला आज उदास।।
ऊँचे झूले हैं लगे, भाँति-भाँति के खेल।
सर्कस के इस खेल मे, भारी धक्का-पेल।।
घर के दाने बिक रहे, बच्चों का है साथ।
महँगाई की मार से, बिगड़ रहे हालात।।
आओ अब घर को चलें, घिर आई है शाम।
जालजगत पर अब हमें, करना है कुछ काम।।
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