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कैसे देश-समाज का, होगा बेड़ा पार

 


दोहे "कैसे देश-समाज का, होगा बेड़ा पार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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विजयादशमी विजय का, पावन है त्यौहार।
जीत  सत्य की हो गयी, झूठ गया है हार।।
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रावण के जब बढ़ गये, भू पर अत्याचार।
लंका में जाकर उसे, दिया राम ने मार।।
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विजयादशमी ने दिया, हम सबको उपहार।
अच्छाई के सामने, गयी बुराई हार।।
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मनसा-वाता-कर्मणा, सत्य रहे भरपूर।
नेक नीति हो साथ में, बाधाएँ हों दूर।।
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पुतलों के ही दहन का, बढ़ने लगा रिवाज।
मन का रावण आज तक, जला न सका समाज।।
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राम-कृष्ण के नाम धर, करते गन्दे काम।
नवयुग में तो राम का, हुआ नाम बदनाम।।
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आज धर्म की ओट में, होता पापाचार।
साधू-सन्यासी करें, बढ़-चढ़ कर व्यापार।।
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आज भोग में लिप्त हैं, योगी और महन्त।
भोली जनता को यहाँ, भरमाते हैं सन्त।।
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जब पहुँचे मझधार में, टूट गयी पतवार।


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