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दर्द की एक गाथा

 

सिंधी कहानी               

दर्द की एक गाथा


लेखक:शगुफ़्ता शाह

अनुवाद: देवी नागरानी 


जैसे ही एक टीचर ने स्टाफ़रूम में आकर ऐलान किया कि हमारी हैड मिस्ट्रेस की बदली हो गई है और अब उसके स्थान पर आपा खैरालनिसा हैड मिस्ट्रेस नियुक्त हुई है, तो सभी के चेहरों की हवाइयाँ उड़ने लगीं और स्टाफ़ रूम में हंगामा मच गया। मैं तो उस समय सरकारी स्कूल में बिल्कुल नई टीचर के तौर नियुक्त होकर आई थी। 

इसलिए न तो शहर के स्कूलों के बारे में कोई अधिक जानकारी थी और न ही प्रधानों के बारे में, और न ही टीचर्स के बारे में। एक प्रधान टीचर से पूछा-‘आख़िर आपा खैरालनिसा के बारे में सुनकर टीचर्स परेशान क्यों हो गई हैं?’

उसने कुछ पल मेरी ओर देखा और फिर कहा-‘आपा खैरालनिसा इस शहर की बेहद वरिष्ठ प्रमुख हैं और प्रधान स्कूलों में अपनी कार्यक्षमता का सिक्का जमाए हुए हैं। वैसे तो वह बहुत अच्छी हैं, पर अनुशासन क़ायम रखने के लिए सख़्त मशहूर हैं। न ख़ुद स्कूल में देर से आती हैं और न ही औरों का देर से आना बर्दाश्त करती हैं... मतलब है, तो बस पढ़ाई से। आधे दिन छुट्टी के लिए भी दरख़्वास्त और समय की पाबंदी में भी सख़्ती से बर्ताव करती हैं। संक्षेप में बात यह है कि वह निहायत ही अनुशासन-पसंद और पाबंदीवाली शख़्सियत हैं।’

‘ओह!...यह बात है।’ मैंने कहा।

न जाने क्यों, यह सुनकर किसी हद तक दिल को बहुत ख़ुशी मिली, क्योंकि ख़ुद मुझे भी नियमबद्धता और उसूल बहुत पसंद हैं। कोई टीचर स्कूल आने के समय से आधा घंटा देर से आ रही है, कोई एक घंटा देर से आ रही है और कुछ तो पढ़ाने में दिलचस्पी ही नहीं लेतीं, पर वास्तविकता में हंगामा, वे अध्यापिकाएँ मचा रही थीं, जो शादीशुदा थीं और बाल-बच्चों वाली थीं। उनकी एक नहीं, अनेक मजबूरियाँ थीं। सुबह नाश्ता बनाना, बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजना। अगर स्कूल छोड़ने के लिए कोई सुविधा न हुई, तो ख़ुद बच्चों को छोड़कर आना और फिर बच्चों के पिता का काम करना। कभी दोपहर के खाने के लिए पहले से ही भाजी काटना, आटा गूँथना पड़ा, तो देर होने की संभावना लाज़मी है। ऊपर से ऐसी सख़्त हैड मिस्ट्रेस हो, जो वक़्त की पाबंदी लाज़मी समझे, तो फिर दिक्कत तो होगी।

दो तीन दिन तो ख़ैर से गुज़रे। ज़ाहिरी तौर पर आपा खैरालनिसा एक वरिष्ठ, संयमी और एक अच्छी हैड मिस्ट्रेस लगीं, पर बहुत जल्द ही वे बातें सुनीं, जिनका डर था। आपा खैरालनिसा ने मीटिंग बुलवाई, जिसमें अनुशासन और समय की पाबंदी को निहायत ज़रूरी करार किया और किसी घरेलू मजबूरी की ख़ातिर या बच्चे की ख़ातिर ‘शार्ट लीव’ या आधे दिन की छुट्टी न लेने की हिदायत दी। हम जैसी अध्यापिकाओं की तो ख़ैर थी कि हम समय पर आती-जाती थीं, पर परेशानी तो शादी-शुदा और बच्चेवाली अध्यापिकाओं को थी। बाक़ी हम जैसी ग़ैर-शादीशुदा अध्यापिकाएँ यक़ीनन कम ही थीं। उन्होंने ऐसी बातों को इतनी अहमियत न दी, इसीलिए हमारे लिए अभी तक तो कोई मसला खड़ा नहीं हुआ था। हालाँकि औरों के साथ होने लगा।

एक दिन एक टीचर ने स्टाफ़रूम में सुबह-सुबह अंदर आते ही चिल्लाना शुरू किया-‘आपा का अपना पति तो कभी का परलोक पधार गया और औलाद कोई है नहीं। अकेली है घर में, इसलिए तो हम जैसी औरतों का अहसास ही नहीं उसे। हम भी क्या करें, घर को देखें, बच्चों को स्कूल भेजें, मर्दों को नाश्ता दें...आख़िर लेट-वेट तो हो ही जाएगी न...? और फिर यहाँ हर रोज़ आपा की दो बातें सुनें। क्या करें, नौकरी करने के सिवा भी गुज़ारा नहीं होता? अगर ऐसा होता तो घर में न बैठ जातीं।’

...और फिर सभी शादी-शुदा और बच्चे वाली अध्यापिकाओं की ज़बान से यही वाक्य सुनने को मिलते। इस तरह कुछ महीने गुज़रे। शिकायतें भी होती रहीं, डाँट-फटकार भी पड़ने लगी। एक बार मैं भी कुछ देर से, शायद पाँच मिनट देर से स्कूल पहुँची। डरते-डरते आपा के आफ़िस गई। आपा को सलाम किया, तो सलाम का उत्तर देने के बाद कहा-‘कम-से-कम आपको तो देर से नहीं आना चाहिए।’

‘आपा गाड़ी एक है। पहले ड्राइवर भाई के बच्चों को स्कूल में छोड़ने जाता है, क्योंकि उनका समय पहले है, फिर मुझे यहाँ छोड़ जाता है। आज संयोगवश देर हो गई, नहीं तो मैं रोज़ समय पर आती हूँ।’ ऐसा कहते मैं आफ़िस से निकल आई।

पता नहीं क्यों, आपा के आफ़िस से निकलते ही मुझे बहुत दुःख हुआ। शायद हम समय पर आने वाले हल्की-सी ग़लती को नज़रअंदाज़ किए जाने की ख़्वाहिश रखते हैं। वैसे भी मैं हर काम समय पर करती हूँ। पढ़ाई पर ध्यान देना और हर सौंपी हुई जिम्मेदारी को पूरा करना ज़रूरी समझती हूँ। आज फ़क़त पाँच मिनट देर से आने के कारण आपा ने अनुचित समझकर उलाहना दी...? ख़ैर जल्दी ही यह बात जहन से हट गई। पंद्रह-बीस दिनों के बाद फिर एक बार दस मिनट देर से पहुँची, तो उस दिन आपा ने कहा-‘आख़िर तुम्हारे साथ क्या मसला हो सकता है। तुम तो शादीशुदा नहीं हो। न पति की जिम्मेदारी, न बच्चों की समस्या का बहाना है, तो फिर तुमने देर क्यों की?’

इससे पहले कि वह आगे कुछ कहें, एक और ग़ैर-शादीशुदा टीचर भी उसी समय आ पहुँची। फिर तो दोनों को बहुत-कुछ सुनना पड़ा। हम दोनों गर्दन नीचे करके आफ़िस के बाहर निकलीं। मैंने तुनककर दूसरी टीचर से कहा-‘ग़ैर-शादीशुदा होना भी मुसीबत है। स्कूल में हर अहम जिम्मेदारी हमें ही मिलती है, क्योंकि यह माना जाता है कि शादीशुदा न होने की वजह से हम पर घर की कोई जिम्मेदारी नहीं है। हालाँकि हम भी नौकरी करती हैं और घर जाकर घर के काम-काज भी करती हैं। हम पर भी जिम्मेदारियाँ हैं।

‘देखो ना...’ उसने कहा। ‘आपा समझती हैं कि ग़ैर-शादीशुदा अध्यापिकाओं को कोई मसाइल ही नहीं होती। हम भी संयुक्त परिवार में रहती हैं। कभी गाड़ी कोई भाई ले जाए, तो कभी ड्राइवर छुट्टी पर। कभी रिक्शा मिलने में देर-सवेर हो ही जाती है।’

हमारी दिक्कतें हमारे साथ, पर सच में शादीशुदा अध्यापिकाओं की हालत देखकर रहम आता है। छोटे बच्चों के साथ कभी जाना पड़ता है। कभी नर्सरी पढ़ते और थोड़े बड़े बच्चों को सुबह उठाना है, तैयार करना, स्कूल भेजना, कभी बच्चा बीमार होने पर उसे छोड़कर आना और फिर यहाँ उसके लिए परेशान रहना साधारण बात है, पर जब उनके स्कूल की परीक्षाओं के कारण जल्दी छुट्टी होती, तब स्कूल जाकर उन्हें अपने स्कूल में ले आने के पश्चात् उनका ख़्याल रखना, मनोरंजन करना भी बहुत मुश्किल होता है। ऊपर से उन्हें दूसरे दिन की परीक्षा के लिए तैयार करना...। उफ़! नौकरी के बाद घर जाकर काम करना...। मतलब तो कामकाजी महिला की दशा देखकर रहम आता है। उसके सिवा घर-परिवार की दुश्वारियाँ, किसी की पति के साथ अनबन, तो किसी की सास के साथ। किसी का ससुराल वालों से झगड़ा, तो किसी की कोई और समस्या। अक्सर उन्हें सुबह-सुबह बाल बनाने की भी फुर्सत नहीं होती। वे स्कूल में आकर अपने बाल सँवारती हैं। बस, पढ़ी-लिखी औरतों की यही सबसे बड़ी कामयाबी है कि हज़ार परेशानियों और दुश्वारियों के बावजूद वह बाहर से टिप-टाप प्रदर्शन करने में सफल रहती हैं। फ़ैशन और मेकअप के सामंजस्य से ख़ुद को तरोताज़ा बनाए रखती हैं। जब वे साथ मिलकर बैठती हैं, तो कभी अपना रोना रो लेती हैं, तो कभी सभी बातें भुलाकर महफ़िल में गप्पे-शप्पे मारकर हँसते-हँसाते अपना वक़्त गुज़ार लेती हैं।

...और...अब बच्चे वाली अध्यापिकाओं से भी देर से आने पर पूछताछ नहीं होती थी और आधे दिन की छुट्टी भी मिलने लगी। इसलिए अब किसी को भी आपा खैरालनिसा से कोई शिकायत नहीं रही। क्योंकि ‘माँ’ बनने से आपा खैरालनिसा की संपूर्ण शख़्सियत में बदलाव आने लगा था। चाहे उसने ख़ुद इस बच्चे को जनम न दिया था, फिर भी वह बहुत ही मेहरबान और कद्रदान बन गई। लहज़े और रवैये में भी पहले वाली कड़वाहट न रही। आजकल वह अक्सर टेलीफ़ोन पर बार-बार बच्ची को सँभालने वाली ‘आया’ को बच्चे के खान-पान और कुछ कामों की हिदायत दिया करती। कभी वह स्कूल से घर जाकर बच्चे की ख़ैर-ख़बर ले आती। कभी बच्ची बीमार रहती तो बस, फिर क्या होना था, आपा की नींद हराम हो जाती। ...मतलब, माओं की क्या-क्या दुश्वारियाँ हैं, ख़ास करके काम वाली माओं की...यह आपा खैरालनिसा भली-भाँति जान चुकी थीं। जो औरत अनुशासन को लेकर बेहद सख़्त होने के लिए मशहूर हुआ करती थी, एक नन्ही बच्ची ने उसके अनुशासन की बुनियाद हिला दी थी। शायद ‘ममता’ ऐसा ही जष्बा है, जो

औरत में बदलाव ले आता है।

वक़्त गुज़र रहा था। आपा खैरालनिसा सबके साथ एक-सा हमदर्दी और मुहब्बत से भरा बर्ताव करने लगीं। अब न उसे किसी से और न किसी अध्यापिका को उससे शिकायत थी कि....अचानक एक ख़बर बम के धमाके की तरह स्टाफ़रूम में आई कि आपा खैरालनिसा का ट्रांसफ़र हो गया है। आपा खैरालनिसा चली गईं। उनका हमदर्दी, प्यार व बराबरी वाला बर्ताव भी चला गया। नई प्रमुख आई थी। फिर नए झगड़े थे, नए मसाइल थे...ख़ास करके ‘बच्चे वाली’ शादीशुदा औरतों का शोर मचा रहता था। क्योंकि नई प्रमुख भी बे-औलाद थी।

 

शगुफ्ता शाह: जन्म: 24 अप्रैल, 1965, हैदराबाद में। शिक्षा: जुबैदा गवर्नमेंट गर्ल्स कॉलेज से एम. ए. की डिग्री हासिल की और अब शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी है।1978 से लेखन शुरू किया है। करीब 30 कहानियाँ, लेख, कॉलम लिखे। रेडियो पाकिस्तान के लिए गीतों भरी कहानियाँ और नाटक लिखे। शगुफ्ता शाह की एक पहचान और भी है, वह एक चित्रकार भी है। अनेकों प्रदर्शनियाँ लगाईं हैं और शोहरत हासिल की। 1984 में महराण आर्ट्स काउंसिल की ओर से , 1988 में सिंधी अदबी कॉन्फ्रेंस, सिंध यूनिवरसिटि, जामशोरो की ओर से, 1999 में अ. क. शेख़ फ़ाउंडेशन की ओर से मेरिट सर्टिफिकेट व सम्मान प्राप्त हुए हैं।

संपर्क: 58 C, द मुस्लिम को-ओपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी, सिन्ध प्रोविनशियल म्यूज़ियम, कासिमाबाद, हैदराबाद। 


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