Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जमाने भर पे ज़ख़्मों को कभी ज़ाहिर नहीं करते

 

 

जमाने भर पे ज़ख़्मों को कभी ज़ाहिर नहीं करते,
हमें इस खेल में अल्फ़ाज़ क्यूँ माहिर नहीं करते,

 

शहर में घर बनाने का हुनर बस शायरों को है,
क्यूँ ऐसे दर्द के मारों को ज़वाहिर नहीं करते,( जवाहिर = रत्न, आभूषण)

 

सियासत छोड़ कर इक दिन हमारे बज़्म में आओ,
सुख़न में डूब कर क्यूँ दिल को तुम ताहिर नहीं करते,( ताहिर = पाक ,साफ़)

 

हमारा दर्द-ए-महफिल भी हिज़ाबों में निकलता है,
इन्हें बे-आबरू हम लफ्ज-ए-मुजाहिर नहीं करते,( मुजाहिर = प्रदर्शन करने वाला)

 

जुदा होकर मिले जब भी मिले हो अजनबी माफ़िक़,
कि ऐसी बेवफ़ाई तो कभी आहिर नहीं करते,( आहिर = व्यभिचारी)

 

घटा ज़ुल्फों को, अशकों को तेरे जुगनू बनाते हैं,
कलम “अंकुर” की वो करती है जो साहिर नहीं करते,( साहिर-जादूगर)

 

 

 

अस्तित्व "अंकुर"

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