Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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शीत नजारा

 

 

 

सुबह
जब मैं नींद से जागा
चारों तरफ धुँआ
विख्यात मँडराता
जैसे सिखा रही दाँव पेंच
हवा पेड़ों को I

 

मैंने आँखे मलते
खुद को निहारा
सामने बूढी काकी
ऐसा लग रहा
मानो बर्फीली
दुनिया लेकर
बैठी है
काकी
फैलाती कोहरा
बूँदें शीतल सी
इर्द-गिर्द I

 

उफ़! जुबान मेरी
ना समझ
ठगी सी
निहारती रही नजारा I

 

 

 

नाम-अशोक बाबू माहौर

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